<p dir="ltr">अकेले बैठे-बैठे <br>
मन में <br>
अकेलापन छा जाता है।<br>
तब <br>
कुछ खास <br>
आभास होता है।<br>
जिस्म पड़ जैसे <br>
हवा का झोका छेड़ रहा हो।<br>
जैसे प्रकृति <br>
अपने पास आने का<br>
इशारा कर रही हो।<br>
हिला-हिला कर हाथ अपना <br>
इंद्रिय झंकृत हो रही है।<br>
वर्षों बाद<br>
शान्ती,खुशी,<br>
और<br>
अपनापन <br>
महशूश कर रहा हूँ।<br>
पड़ सता रहा है<br>
वह वृक्ष<br>
वो पत्ते<br>
वो नदी,और वह किनरा।<br>
जहां घंटो बातें होती <br>
अकेले।<br>
याद आने लगी अपना गाँव <br>
वो गली<br>
वो मन्दिर<br>
और वह बड़गद पूराना।<br>
हां अच्छा लगता था<br>
बैठना अकेला।<br>
खो गया सब<br>
बची शेष बस यादें।<br>
आह!<br>
तरुवर की ठंढी छाया<br>
मीठा पानी<br>
दृश्य <br>
अति प्यारा।<br>
कोई चले,ना चले<br>
चलती है वक्त<br>
अपने रफ्तार से।<br>
हम कहां आ गये?<br>
गाड़ी कि रफ्तार से।<br>
पिछे छूट गई<br>
वो लहलहाते खेत<br>
सुहानी हवा<br>
गंगा का निर्मल जल।<br>
कहां गया?<br>
हमारा बीता कल।<br>
कूदते-फांगते <br>
हवा को चीरते<br>
आ गया ये <br>
चौकाचौंध<br>
भयावह पल।<br>
आह!<br>
वो सुहाना पल<br>
बीता हुआ कल।<br>
- गौतम गोविन्द।</p>
मन में <br>
अकेलापन छा जाता है।<br>
तब <br>
कुछ खास <br>
आभास होता है।<br>
जिस्म पड़ जैसे <br>
हवा का झोका छेड़ रहा हो।<br>
जैसे प्रकृति <br>
अपने पास आने का<br>
इशारा कर रही हो।<br>
हिला-हिला कर हाथ अपना <br>
इंद्रिय झंकृत हो रही है।<br>
वर्षों बाद<br>
शान्ती,खुशी,<br>
और<br>
अपनापन <br>
महशूश कर रहा हूँ।<br>
पड़ सता रहा है<br>
वह वृक्ष<br>
वो पत्ते<br>
वो नदी,और वह किनरा।<br>
जहां घंटो बातें होती <br>
अकेले।<br>
याद आने लगी अपना गाँव <br>
वो गली<br>
वो मन्दिर<br>
और वह बड़गद पूराना।<br>
हां अच्छा लगता था<br>
बैठना अकेला।<br>
खो गया सब<br>
बची शेष बस यादें।<br>
आह!<br>
तरुवर की ठंढी छाया<br>
मीठा पानी<br>
दृश्य <br>
अति प्यारा।<br>
कोई चले,ना चले<br>
चलती है वक्त<br>
अपने रफ्तार से।<br>
हम कहां आ गये?<br>
गाड़ी कि रफ्तार से।<br>
पिछे छूट गई<br>
वो लहलहाते खेत<br>
सुहानी हवा<br>
गंगा का निर्मल जल।<br>
कहां गया?<br>
हमारा बीता कल।<br>
कूदते-फांगते <br>
हवा को चीरते<br>
आ गया ये <br>
चौकाचौंध<br>
भयावह पल।<br>
आह!<br>
वो सुहाना पल<br>
बीता हुआ कल।<br>
- गौतम गोविन्द।</p>