श्रीपराशरजी बोले -

इक्ष्वाकुका जो निमि नामक पुत्र था उसने एक सहस्त्रवर्षमें समाप्त होनेवाले यज्ञका आरभ्म किया ॥१॥

उस यज्ञमें उसने वसिष्ठजीको होता वरण किया ॥२॥

वसिष्ठजीने उससे कहा कि पाँच सौ वर्षके यज्ञके लिये इन्द्रने मुझे पहले ही वरण कर लिया है ॥३॥

अतः इतने समय तुम ठहर जाओ, वहाँसे आनेपर मैं तुम्हारा भी ऋत्विक् हो जाऊँगा । उनके ऐसा कहनेपर राजाने उन्हें कुछ भी उत्तर नहीं दिया ॥४॥

वसिष्ठजीने यह समझकर कि राजाने उनका कथन स्वीकार कर लिया है इन्द्रका यज्ञ आरम्भ कर दिया ॥५॥

किंतु राजा निमि भी उसी समय गौतमदि अन्य होताओंद्वारा अपना यज्ञ करने लगे ॥६॥

देवराज इन्द्रका यज्ञ समाप्त होते ही ' मुझे निमिका यज्ञ कराना है' इस विचारसे वसिष्ठजी भी तुरंत ही आ गये ॥७॥

उस यज्ञमें अपना ( होताका ) कर्म गौतमको करते देख उन्होंने सोते हुए राजा निमिको यह शाप दिया कि ' इसने मेरी अवज्ञा करके सम्पूर्ण कर्मका भार गौतमको सौंपा है इसलिये यह देहहीन हो जायगा' ॥८॥

सोकर उठनेपर रजा निमिने भी कहा - ॥९॥

" इस दुष्ट गुरुने मुझसे बिना बातचीत किये अज्ञानतापूर्वक मुझ सोये हुएको शाप दिया है, इसलिये इसका देह भी नष्ट हो जायगा । " इस प्रकार शाप देकर राजाने अपना शरीर छोड़ दिया ॥१०॥

राजा निमिके शापसे वसिष्ठजीका लिंगदेह मित्रावरुणके वीर्यमें प्रविष्ट हुआ ॥११॥

और उर्वशीके देखनेसे उसका वीर्य स्खलित होनेपर उसीसे उन्होंने दूसरा देह धारण किया ॥१२॥

निमिका शरीर भी अति मनोहर गन्ध और तैल आदिसे सुरक्षित रहनेके कारण गला-सड़ा नहीं, बल्कि तत्काल मरे हुए देहके समान ही रहा ॥१३॥

यज्ञ समाप्त होनेपर जब देवगण अपन भाग ग्रहण करनेके लिये आये तो उनसे ऋत्विग्गण बोले कि " यजमानको वर दीजिये " ॥१४॥

देवताओंद्वारा प्रेरणा किये जानेपर राजा निमिने उनसे कहा - ॥१५॥

" भगवन् ! आपलोग सम्पूर्ण संसार - दुःखको दूर करनेवाले हैं ॥१६॥

मेरे विचारमें शरीर और आत्माके वियोग होनेमें जैसा दुःख होता है वैसा और कोई दुःख नहीं है ॥१७॥

इसलिये मैं अब फिर शरीर ग्रहण करना नहीं चाहता, समस्त लोगोंके नेत्रोंमें ही वास करना चाहता हूँ । " राजाके ऐसा कहनेपर देवताओंने उनको समस्त जीवोंके नेत्रोंमें अवस्थित कर दिया ॥१८॥

तभीसे प्राणी निमेषोन्मेष ( पलक खोलना - मूँदना ) करने लगे हैं ॥१९॥

तदनन्तर अराजकताके भयसे मुनिजनोंने उस पुत्रहीन राजाके शरीरको अरणि ( शमीदण्ड ) से मँथा ॥२०॥

उससे एक कुमार उप्तन्न हुआ जो जन्म लेनके कारण ' जनक' कहलाया ॥२१-२२॥

इसके पिता विदेह थे इसलिये यह ' वैदेह ' कहलाता है, और मन्थनसे उप्तन्न होनेके कारण ' मिथि' भी कहा जाता है ॥२३॥

उसके उदावसु नामक पुत्र हुआ ॥२४॥

उदावसुके नन्दिवर्द्धन, नन्दिवर्द्भनके सुकेतु, सुकेतुके देवरात, देवरातके बृहदुक्थ, बृहदुक्थके महावीर्य, महावीर्यके सुधृति, सुधृतिके धृष्टकेतु, धृष्टकेतुके हर्यश्व , हर्यश्वके मनु, मनुके प्रतिक, प्रतिकके कृतरथ, कृतरथके देवमीढ, देवमीढके विबुध, विबुधके महधृति, महाधृतिके कृतरात, कृतरातके महारोमा, महरोमाके सुवर्णरोमा, सुवर्णरोमाके हॄस्वरोमा और हृस्वरोमाके सीरध्वज नामक पुत्र हुआ ॥२५-२७॥

वह पुत्रकी कामनासे यज्ञभूमिको जोत रहा था । इसी समय हलके अग्र भागमें उसके सीता नामकी कन्या उप्तन्न हूई ॥२८॥

सीरध्वजका भाई सांकश्यनरेश कुशध्वज था ॥२९॥

सीरध्वजके धातुमान् नामक पुत्र हुआ । भानुमान‌के शतद्युम्र, शतद्युम्रके शुचि, शुचिके ऊर्जनामा, ऊर्जनामाके शतध्वज, शतध्वजके कृति, कृतिके अत्र्जन, अत्र्जनके कुरुजित् , करुजितके अरिष्टनेमि, अरिष्टनेमिके श्रुतायु, श्रुतायुके सुपार्श्व, सुपार्श्वके, सुज्जय, सृत्र्जयके क्षेमावी, क्षेमावीके अनेना, अनेनाके भौमरथ, भौमरथके सत्यरथ, सत्यरथके उपगु, उपगुके उपगुप्त, उपगुप्तके स्वागत, स्वागतके स्वानन्द, स्वानन्दके सुवर्चा, सुवर्चाके सुपार्श्व, सुपार्श्वके सुभाष, सुभाषके सुश्रुत, सुश्रुतके जय, जयते विजय, विजयक ऋत, ऋतके सुनय, सुनयके वीतहव्य, वीतहव्यके धृति, धृतिके बहुलाश्व और बहुलाश्वके कृति नामक पत्र हुआ ॥३०-३१॥

कृतिमें ही इस जनकवंशकी समाप्ति हो जाती है ॥३२॥

ये ही मैथिलभुपालगण हैं ॥३३॥

प्रायः ये सभी राजालोग आत्मविद्याको आश्रय देनेवाले होते हैं ॥३४॥

इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थऽशे पत्र्चमोऽध्यायः ॥५॥

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