हाँ, तो जरा उसी बात को देखें कि वह कौन-सी है। हमने शुरू में ही उसकी तरफ श्रद्धा, मानसिक भावना आदि के नाम से इशारा भी किया है और कहा है कि वही चीज कर्म के बाहरी रूप को सोलहों आना पलट देती है - उसे एक निराले और अपने मन के ही साँचे में ढाल देती है। बात यह है कि सोलहवें अध्याहय के आखिरी दो - 23 और 24 - श्लोकों में 'य: शास्त्रविधि मुत्सृज्य' आदि शब्दों के द्वारा ऐसा कहा गया है कि कोई भी काम - क्रिया या अमल - उसके संबंध में बने अनुशासन और पद्धतिविधान - शास्त्र - के ही अनुसार किया जाना चाहिए। इसीलिए जो ऐसा नहीं करता है उसका न तो वह काम पूरा होता है, न उसे चैन मिलता है और न मरने के बाद या पीछे उसका कल्याण ही होता है। बात भी ठीक ही है। हरेक काम की निराली तरकीबें और प्रक्रियाएँ होती हैं, उसे करने के नियम-कायदे होते हैं और बनने-बिगड़ने की हालत में पुरस्कार और दंड - अनुशासन - भी होते हैं। फिर चाहे वह काम लौकिक हो या पारलौकिक, बहुत बड़ा तथा अहम हो या मामूली। इसलिए उसके विधि-विधान को जानना और तदनुसार ही अमल करना जरूरी हो जाता है। जो लोग ऐसा नहीं करते उन्हें परेशानी तो होती ही है, उनका काम भी ठीक-ठीक हो नहीं पाता और पीछे जाने क्या-क्या नतीजे भुगतने पड़ते हैं। इसलिए गीता का यह आदेश - उसकी यह चेतावनी - बहुत ही मौजूँ है।
मगर दरअसल यह बात उतनी आसान और सीधी नहीं है जितनी एकाएक मालूम पड़ती है। गीता के ही अनुसार, 'कर्मों की जानकारी, उनकी माया, गहन है, बहुत ही कठिन है' - "गहना कर्मणो गति:" (4। 17)। फलत: जब हम कर्मों के घोर और दुष्प्रवेश जंगल में घुसते हैं तो यही नहीं कि रास्ता नहीं मिल पाता और भटक जाते हैं, बल्कि काँटों में बिंधा जाते, खूँखार जानवरों के शिकार बन जाते और चोर-बदमाशों के शिकंजे में भी फँस जाते हैं! एक तो कर्म यों ही ठहरे अनंत। फिर उनकी जानकारी ठहरी उनसे भी अनंत। तिस पर भी हरेक के ब्योरे होते ही हैं। उन्हें जानने का अवसर सबको मिलता भी नहीं। ऐसी दशा में हो क्या? क्या लोग कर्मों से विमुख रहें? क्योंकि अधिकांश लोग तो ऐसे ही होंगे। मगर तब तो संसार का काम ही रुक जाएगा। आखिर यह कैसे और क्यों कहा जाए कि किस काम के विधि-विधान को - शास्त्रविधान को - बखूबी जानने की जरूरत है और किसकी नहीं? सभी तो काम ही - कर्म ही - ठहरे और 'गहना कर्मणो गति:' तो सभी पर समान रूप से लागू है। यदि भीतर घुस के देखें तो बात भी ऐसी ही है। अत: 'को बड़ छोट कहत अपराध!' इसीलिए यही मानना होगा कि 'ऊपर चढ़के देखा, घर-घर एकै लेखा!' और अगर इस दिक्कत से बचने और दुनिया का काम चलाने के लिए लोग यों ही कर्मों में लग जाएँ, तो उनकी हालत क्या होगी? उनकी गति तो अभी-अभी कह चुके हैं। यही खयाल करके अर्जुन जैसे सूक्ष्मदर्शी ने सत्रहवें अध्या य के पहले ही श्लोक में चटपट यही बात पूछ ही तो दी। कृष्ण ने आगे के दो और तीन श्लोकों में उसका उत्तर दे के उसी का विवरण समूचे अध्याीय में किया है।
इस बात पर जरा हम और गौर करें। किसी भी काम के करने के लिए रास्ते बताने वाले, दोई तरह के हो सकते हैं। एक तो जीवित मनुष्य और दूसरे उसके बारे में लिखी-लिखाई पुस्तकें जिन्हें शास्त्र कहते हैं। अब अगर जिंदा आदमियों को लेते हैं तो इतनी लंबी दुनिया में वे खामख्वाह होंगे बहुत ज्यादा। एक-दो या दस-बीस से तो काम चलने का नहीं। और जब दो आदमियों के भी सभी खयाल और विचार नहीं मिलते, तो फिर हजारों का क्या कहना? ऐसा भी होता है कि एक ही आदमी के विचार समय पाके एक ही बात के संबंध में बदलते रहते हैं और कभी-कभी तो तीन-तीन, चार-चार पलटे खा जाते हें। तब अनेक की बात ही क्या? इसी को कहते हैं 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना' या 'अपनी-अपनी डफली, अपनी-अपनी गीत।' महाभारत के वनपर्व के युधिष्ठिर-यज्ञ संवाद में यही बात स्वीकार की गई है कि एक मुनि ऋषि हों तो उनकी बात मान के काम चले। यहाँ तो अनंत हैं - अनेक हैं - 'नैकोऋषिर्यस्यवच: प्रमाणम्' (312+115)। आदमी की यह भी हालत होती है कि उसका दिमाग हमेशा स्वस्थ और एक हालत में रहता ही नहीं। तो कब उससे बात जानी जाए, कब नहीं? फिर दूरवर्ती को क्या मालूम कि कब उसका दिल-दिमाग ठीक है और उसने जब कहा था तब ठीक था या नहीं? और अगर कहीं देर तक उसके दिमाग में गड़बड़ी रही तो क्या हो? दुनिया के काम तो उसकी गड़बड़ी के लिए रुके रहेंगे नहीं।
और अगर इस दिक्कत से बचने के लिए लिखित वचनों तथा आदेशों की शरण लें, तो दूसरी पहेली खड़ी हो जाती है। जिंदा आदमी तो साफ कह-सुन देता है और अगर कोई बात समझ में न आए तो उससे पूछ के सफाई भी कर ले सकते हैं। मगर मरे का क्या हो? आखिर पुस्तकों और शास्त्रों के वचन तो मरों के ही हैं न? वे खुद तो बोल नहीं सकते। अगर किसी वचन का मतलब समझ में न आए या उलटा ही समझ में आए तो क्या करें? किससे पूछें? यदि उसकी टीका-टिप्पणी देखें तो और भी गजब हो। टीकाकार तो आखिर दूसरे ही होंगे न? फिर क्या मालूम कि उनने लेखक का अभिप्राय ठीक समझा या गलत? यदि खुद लेखक ने ही टीका की हो तो बात दूसरी है। मगर ऐसा होता तो शायद ही है। और अगर टीका में भी कहीं शक हो या वही कहीं समझ में न आए तो? आखिर वचन ही तो वह भी ठहरी और जब पहले या मूल के वचनों में ही संदेह की गुंजाइश है तो बाद वाले (तूल या टीका के) वचनों में भी क्यों न होगी? यदि लेखक की ही बातें सुन के ही किसी ने टीका लिखी और मौके-मौके से उनसे पूछ भी लिया था, तो भी इसका क्या सबूत है कि प्रश्नों का उत्तर ठीक ही मिला या उसने उसे ठीक ही समझा? पूछने और उत्तर देने वालों का दिमाग बराबर ही ठीक रहा और उसमें गड़बड़ी न रही, यह भी कौन कहे ?
कहते हैं कि पाणिनीय व्याकरण के सूत्रों पर जो पतंजलि का महाभाष्य है उसकी टीका सबसे पहले कैयट ने लिखी। उनके बारे में कहा जाता है कि बरसों यह हालत रही कि कोई बात वह एक दिन लिखते थे उसी को अगले दिन गलत बता के काट देते और फिर नए सिरे से लिखते थे। तीसरे दिन उसे भी काट के कुछ और ही लिखते! यही हालत बराबर रही! नतीजा यह हुआ कि हाथी के नहाने की-सी इस हालत से उन्हें सख्त अफसोस हुआ। वे खिन्न हो गए। नौबत यहाँ तक पहुँची कि मरणासन्न दीखने लगे। उस पर उनकी माँ ने सारी बातें जानके किसी अपने मित्र को बुलाया और उपाय पूछा। उसने रास्ता सुझाया कि कैयट को रात में दही और उड़द खिलाया जाए, तो इनकी बुद्धि मंद हो जाएगी। फिर तो जो भी एक बार लिखेंगे उसकी भूल शायद ही सूझे और इस प्रकार जिस काम के पूरे न होने की चिंता से वे मर रहे हैं वह पूर्ण हो जाएगा। यही किया गया और धीरे-धीरे वे स्वस्थ होने लगे। उधर टीका लिखने में प्रगति भी काफी हुई। जब कुछ दिनों बाद किसी मित्र ने उनसे खुद उनकी हालत पूछी तो उनने उत्तर दिया कि 'अब क्या पूछना है? अब तो बुद्धि को ही चुरा लेने वाले उड़द खा रहा हूँ' - “अधुना शेमुषीमोषान्माषानश्नामि नित्यश:”! यही बात औरों की भी क्यों न होगी? फिर तो यदि रोज ही शास्त्र बदले तो ?
शास्त्रों और पुस्तकों की क्या बात कही जाए? एक-दो या दस-बीस हों तब न? यहाँ तो जितने मुनि उतने मत हैं - जितने लेखक उनसे कई गुना किताबें हैं। हिंदुओं के ही घर में एक व्यास के नाम से जानें सैकड़ों पोथियाँ हैं। खूबी तो यह कि वह भी एक दूसरे से नहीं मिलती हैं! उनमें भी परस्पर विरोधी बातें सैकड़ों हैं, हजारों हैं। तब किसे मानें किसे न मानें? और जब एक की ही लिखी बातों की यह हालत है, तो विभिन्न लेखकों का खुदा ही हाफिज! उनके वचनों में परस्पर विरोध होना तो अनिवार्य है! भिन्न-भिन्न दिमागों से निकले विचार एक हों तो कैसे? सभी दिमाग एक हों तो काम चले। मगर यह तो अनहोनी बात ठहरी। फलत: शास्त्रों के द्वारा किसी काम के भले-बुरेपन का निर्णय भी वैसा ही समझिए।
यदि चुनाव के जरिए राय लेके जो बहुमत से तय पाए वही ठीक माना जाए तब तो और भी गड़बड़ी होगी। समूचे संसार का मत तो मिली नहीं सकता। एक देश या प्रांत की भी यही हालत है। उलटा-सीधा समझाने वाले तो होते ही हैं। उसी से गड़बड़ होती है। जोई लोग एक बार एक तरह की राय देते हैं वही औरों के समझाने पर दूसरी बार बदल दे सकते हैं। उन बेचारों का इसमें कसूर भी क्या? उन्हें समझ हो तब न? और अगर यही समझ हो जाए तो फिर शास्त्र की जरूरत ही क्यों हो? समझदारों के लिए तो वह चाहिए नहीं। सबों को समझदार बना देना तो असंभव भी है। समझ की कोई नाप-जोख भी तो नहीं है कि वह कितनी चाहिए, कैसी चाहिए। इसका पता भी कैसे लगेगा? और अगर यही बात हो जाए तो गलत प्रचार की महिमा ही चली जाए। एक ही मुकदमे में ऐसा देखा जाता है कि वह जितने न्यातयधीशों के सामने जाता है उसका उतने ही ढंग का मतलब लगता है। इसीलिए महाभारत वाले उक्त वनपर्व के वचन में साफ लिख दिया है कि 'तर्क-दलील का तो ठिकाना ही नहीं, वह तो दिमाग के ही मुताबिक बदलता है। वेदशास्त्र के वचन तो अनेक तरह के हैं - एक ही बात के लिए परस्पर विरोधी वचन मिलते हैं। ऋषिमुनि तो एक ठहरे नहीं कि उनकी बात से काम चल जाए। नतीजा यह है कि धर्म की हकीकत अँधेरी गुफा के भीतर बंद चीज जैसी हो गई है! तो फिर उपाय क्या? बड़े-बूढ़े जिस रास्ते गए हों या पंचों ने जो तय किया हो वैसी ही बात करके काम निकालना चाहिए' - “तर्कोऽप्रतिष्ठ: श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य वच: प्रमाणम्। धर्मस्य तत्तवं निहितं गुहायां महाजनो येन गत: स पन्था:।”