जो कुछ कहना था कहा जा चुका। गीतार्थ और गीताधर्म को समझने के लिए, हमारे जानते, इससे ज्यादा कहने की आवश्यकता नहीं है। इससे कम से भी शायद ही काम चलता। इसीलिए इच्छा रहते हुए भी हम इस विवेचन को संक्षिप्त कर न सके। उसमें हमें खतरा नजर आया। मगर अब हमें आशा है कि हमने जो कुछ लिखा है। उसी की कसौटी पर कसने पर गीताधर्म का हीरा शानदार और खरा निकलेगा। हम जानते हैं कि उसके लिए सैकड़ों तराजू और कसौटियाँ अब तक बन चुकी हैं जो एक से एक जबर्दस्त है। मगर हमारा अपना विश्वास है कि उनमें कहीं न कहीं कोई खामी है, त्रुटि है। जब सभी को अपने विश्वास की स्वतंत्रता है तो हमें भी अपने विचार के ही अनुसार कहने और लिखने में किसी को उज्र नहीं होना चाहिए। हम दूसरे के विचारों को उनसे छीनने तो जाते नहीं कि कलह हो। हम तो कही चुके हैं कि गीता तो इसी बात को मानती है कि हर आदमी ईमानदारी से अपने ही विचारों के अनुसार बोले और काम करे। इसीलिए हमने पुरानी कसौटियों की त्रुटियों का खयाल करके ही यह कसौटी तैयार की है। हमें इसमें सफलता मिली है या विफलता, यह तो कहना हमारे वश के बाहर की बात है। मगर 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' के अनुसार हम इसकी परवाह करते ही नहीं। हमारी इस कसौटी में भी त्रुटियाँ होंगी, इसे कौन इनकार कर सकता है? लेकिन गीतार्थ हृदयंगम करने में यदि इससे कुछ भी सहायता मिली तो यह व्यर्थ न होगी।
महाभारत की उस बड़ी पोथी में जनकपुर के धर्मव्याध का वर्णन मिलता है, जो कसाई का काम करके ही अपनी जीविका करता था। उसी के सिलसिले की एक सुंदर कहानी भी है जो गीताधर्म को आईने की तरह झलका देती है। कोई महात्मा किसी निर्जन प्रदेश में जा के घोर तप और योगाभ्यास करते थे। दीर्घकाल के निरंतर प्रयत्न से उन्हें सफलता मिली और योगसिद्धि प्राप्त हो गई। फिर क्या था? उनने वह काम बंद कर दिया और गाँव की ओर चल पड़े। लेकिन जानें क्यों योगसिद्धि की प्राप्ति के बाद भी उन्हें संतोष न था, भीतर से तुष्टि मालूम न होती थी। खैर, रास्ते में एक वृक्ष के नीचे विश्राम करी रहे थे कि ऊपर से किसी बगुले ने उनके ऊपर विष्ठा गिरा दिया। उन्हें बड़ा गुस्सा आया और आँखें लाल करके जो बगुले को देखा तो वह जल के खाक हो गया! अब महात्मा को विश्वास हो गया कि उन्हें अवश्य योगसिद्धि प्राप्त हो चुकी है।
फिर वह आगे चले। उनने भोजन का समय होने से गाँव में एक गृहस्थ के द्वार पर पहुँच के 'भिक्षां देहि' की आवाज लगाई। देखा कि एक स्त्रीे भीतर है, जिसने उन्हें देखा भी और उनकी आवाज भी सुनी। मगर वह अपने काम में मस्त थी। इधर महात्मा को द्वार पर खड़े घंटों हो गए! उस स्त्री की धृष्टतापूर्ण नादानी पर उन्हें क्रोध आया। ठीक भी था। सिद्ध पुरुष का यह घोर तिरस्कार एक मामूली गृहस्थ की स्त्री करे! मगर करते क्या? आँखों से खून उगलते खड़े रहे और दाँत पीसते रहे कि संहार ही कर दूँ। इतने में भोजन ले के जो स्त्री आई तो आते ही उसने बेलाग सुना दिया कि आँखें क्या लाल किए खड़े हैं? मैं वृक्षवाला बगुला थोड़े ही हूँ कि जला दीजिएगा ! अब तो उन्हें चीरो तो खून नहीं। सारी गरमी ठंडी हो गई यह देख के कि इसे यह बात कैसे मालूम हो गई जो यहाँ से बहुत दूर जंगल में हुई थी! फिर तो उन्हें अपनी तप:सिद्धि फीकी लगने लगी। खाना छोड़ के उनने उस माता से पूछा कि तुझे यह कैसे पता चला? उसने कहा कि लीजिए भोजन कीजिए और जनकपुर में धर्मव्याध के पास जाइए। वही सब कुछ बता देगा!
महात्मा वहाँ से सीधे जनकपुर रवाना हो गए। परेशान थे, हैरत में थे। जनकपुर पहुँच के धर्मव्याध को पूछना शुरू किया कि कहाँ रहता है। समझते थे, वह तो कहीं तपोभूमि में पड़ा महात्मा होगा। मगर पूछते-पूछते एक हाट में एक ओर एक आदमी को देखा कि मांस काटता और बेचता है और यही धर्मव्याध है! सोचने लगे, उफ, यह क्या? यही धर्मव्याध मुझे धर्म-कर्म का रहस्य बताएगा? मगर कौतुकवश खड़े रहे। धर्मव्याध ने एक बार उन्हें देख के मुस्करा दिया सही; मगर वह अपने काम में घंटों व्यस्त रहा। जब काम से छुट्टी हो गई और दुकान समेट चुका तो उसने उनसे पूछा कि महात्मन, कैसे चले? क्या आपको उस स्त्रीु ने भेजा है? सिद्ध महात्मा तो और भी हैरान थे कि यह क्या? स्त्रीस तो भला गृहस्थी का काम करती थी। मगर यह तो निरा कसाई है। फिर भी उसकी भी नाक काटता है! खैर, हाँ कह के उसके साथ उसके घर गए! उन्हें बैठा के पहले घंटों वह अपने वृद्ध माँ-बाप की सेवा करता रहा, जैसे वह स्त्री अपने पति की सेवा कर रही थी! माँ-बाप से फुरसत पा के उसने उन्हें भी खिलाया-पिलाया! पीछे उसने वार्त्तालाप शुरू करके कहा कि मैंने पहले हजार कोशिश की थी कि इस हिंसा से बचूँ और दूसरी जीविका करूँ। मगर विफल रहा। तब समझ लिया कि चलो जब यही भगवान की मर्जी है तो रहे। बस, केवल कर्तव्यबुद्धि से यह काम करता हूँ। सफलता-विफलता और हानि-लाभ की जरा भी परवाह नहीं करता। उसके बाद जो साग-सत्तूक मिलता है। उसी से पहले अपने प्रत्यक्ष भगवान - माँ-बाप - की सेवा-शुश्रूषा करके उन्हें तृप्त करता हूँ। फिर यदि कोई अतिथि हो तो उसका सत्कार करके खुद भी खाता-पीता हूँ। यही मेरी दिनचर्या है, यही मेरा योगाभ्यास है, यही मेरी तपश्चर्या और यही भगवान की पूजा है। वह स्त्री भी पति के सिवाय किसी और को जानती ही नहीं। उसके लिए भगवान और सब कुछ वही एक पति ही है। यही उसकी योगसाधाना है और यही न सिर्फ हम दोनों के बल्कि सारे संसार के कर्मों का रहस्य है, उनकी कुंजी है और वास्तविक सिद्धि का असली मार्ग है।
इस आख्यान में गीताधर्म का निचोड़ पाया जाता है। अब तक हम भगवान को, स्वर्ग, वैकुंठ, नरक और मुक्ति को अपने से अलग समझ उन्हें पाने के लिए कर्म-धर्म करेंगे और उनमें भी बुरे-भले का भेद करेंगे कि यह कर्म भला और यह बुरा है तब तक हम भटकते ही रहेंगे। तब तक कल्याण हमसे लाख कोस दूर रहेगा - दूर होता जाएगा। हमें तो अपनी आत्मा को ही, अपने आप को ही, सबमें वैसे ही देखना है जैसे नमक के टुकड़े में नीचे-ऊपर चारों ओर एक ही चीज होती है - नमक ही नमक होता है। यही बात गीता कहती है, यही उसका और उपनिषदों का अद्वैत-तत्व है। नमक का ही दृष्टांत देकर आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को यही बात छांदोग्योपनिषद् के छठे अध्यावय के तेरहवें खंड के तीसरे मंत्र में इस तरह कही है, 'स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा तत्वमसिश्वेतकेतो।' यह अत्यंत कठिन होते हुए भी निहायत आसान है, यदि हममें इसकी आग हो, लगन हो। यही बात सूफियों ने यों कही है कि 'दिल के आईने में है तस्वीरे यार। जब जरा गरदन झुकाई देख ली' और 'बहुत ढूँढ़ा उसे हमने न पाया। अगर पाया पता अपना न पाया।' इसी के हासिल होने पर यह उद्गार निकली है कि 'हासिल हुई तमन्ना जो दिल में थी मगर। दिल को आरजू है कोई आरजू न हो।' उपनिषदों में इसी उद्गार को 'येन त्यजसि तत्त्यज' कहा है।
यही गीताधर्म है और यही उसका योग है। यही वेदांत का रहस्य है, जिसके फलस्वरूप लोकसंग्रह और मानव-समाज के कल्याणों के लिए छोटे-बड़े सभी कामों के करने का रास्ता न सिर्फ साफ हो जाता है, बल्कि सुंदर, रमणीय और रुचिकर हो जाता है, अत्यंत आकर्षक बन जाता है। इसी के करते लोकसंग्रहार्थ कर्म करने से तबीअत ऊबने के बजाए उसमें और भी तेजी से लगती जाती है। कितना भी कीजिए, फिर भी संतोष होने के बजाए और करें, और करें यही इच्छा होती रहती है। साथ ही, यदि दृढ़ संकल्प एवं पूर्ण प्रयत्न के बाद भी किसी कारण से कोई काम पूरा न हो, छूट जाए या और कुछ हो जाए, तो जरा भी बेचैनी या परेशानी नहीं होती। मस्ती हमेशा बनी रहती है। यही स्थितप्रज्ञ, भक्त और गुणातीत की दशा है। इसके चलते ही यदि कर्म सोलहों आने छूट जाए, जैसे पेड़ से पका फल गिर जाए, तो भी मस्ती ज्यों की त्यों रहती है। इसी मस्ती को हासिल करने के लिए पहले धर्मों का संन्यास आवश्यक होता है, ऐसी गीता की मान्यता है।