योग शब्द जैसी तो नहीं, लेकिन सिद्धि और संसिद्धि शब्दों या इसी अर्थ में प्रयुक्त सिद्ध एवं संसिद्ध शब्दों को लेकर भी गीता के श्लोकों के अर्थों में और इसीलिए कभी-कभी सैद्धांतिक बातों तक में कुछ न कुछ गड़बड़ हो जाया करती है। आमतौर से ये शब्द जिस मानी में आया करते हैं वह न हो के गीता में इन शब्दों के कुछ खास मानी प्रसंगवश हो जाते हैं, खासकर संसिद्धि शब्द के। मगर लोग साधारणतया पुराने ढंग से ही अर्थ लगा के या तो खुद घपले में पड़ जाते हैं, या अपना मतलब निकालने में कामयाब हो जाते हैं। इसीलिए इनके अर्थ का भी थोड़ा-सा विचार कर लेना जरूरी है।

सिद्धि और सिद्ध शब्द अलौकिक चमत्कार और करिश्मों के ही संबंध में आमतौर से बोले जाते हैं। साधु-फकीरों को या मंत्र-तंत्र का अनुष्ठान करके जो लोग कामयाबी हासिल करते एवं चमत्कार की बातें करते हैं उन्हीं को सिद्ध और उनकी शक्ति को सिद्धि कहते हैं। इसी सिद्धि की अणिमा, महिमा आदि आठ किस्में पुराने ग्रंथों में पाई जाती हैं। अणिमा के मानी हैं छोटे-से-छोटा बन जाना और महिमा के मानी बड़े-से-बड़ा। लंकाप्रवेश के समय हनुमान की इन दोनों सिद्धियों का बयान मिलता है जब वे लंकाराक्षसी को चकमा दे के भीतर घुस रहे थे। पातंजल योग-सूत्रों के 'ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धय:' (3। 37) में इसी सिद्धि का जिक्र है। जिसके चलते योगी भूत भविष्य की बातें जान लेता, दूसरों के दिल की बातें समझ लेता और पक्षी-पशुओं के शब्दों का भी अर्थ जानता है। इसी तरह की और भी बातें हैं। इसी प्रकार 'अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:' (2। 35), 'सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्' (2। 36) आदि योगसूत्रों में जो लिखा गया है कि पूरे अहिंसक को साँप-बिच्छू और सिंह-बाघ आदि भी नहीं छूते और पूरा सत्यवादी जो भी कह देता है वह जरूर हो जाता है, उसे भी ऐसे आदमी की सिद्धि या शक्ति ही उन सूत्रों के व्यासभाष्य में यों कहा गया है, 'तदा तत्कृतमैश्वर्यं योगिन: सिद्धिसूचकं भवति।' इसी प्रकार किसी काम के पूरा हो जाने को भी सिद्धि बोलते हैं और कहते हैं कि हमारा कार्य सिद्ध हो गया। 'सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा' (2। 48) में गीता ने भी इसी मानी में सिद्धि शब्द का प्रयोग किया है। 'गंधर्वयक्षासुरसिद्धसंघा:' (11। 22) तथा 'सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघा:' (11। 36) में जो सिद्ध शब्द है वह पूर्वोक्त योगसिद्धि जैसे ही अर्थ में आए हैं। देवताओं के एक ऐसे ही दल को सिद्ध कहते हैं। गीता में इनका केवल नाम आ गया है, न कि गीता के प्रतिपादित विषय में ये आते हैं। क्योंकि गीता का विषय तो ऐसा है जिसका उपयोग हम दैनिक जीवन में कर सकते हैं और ये सिद्ध है अलौकिक दुनिया के पदार्थ। इसलिए ऐसे स्थानों में तो कोई गड़बड़ होती ही नहीं। यहाँ तो ठीक ही काम चलता है।

मगर दिक्कत होती है और-और श्लोकों में। 'न च संन्यसनादेवसिद्धिं समधिगच्छति' (3। 4), 'कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:' (3। 20), 'कांक्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता:। क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवतिकर्मजा' (4। 12), 'तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति' (4। 38), 'अप्राप्य योगसंसिद्धिं का गतिं कृष्ण गच्छति' (6। 37), 'यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनंदन' (6। 43), 'अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परांगतिम्' (6। 45), 'नाप्नुवन्ति महात्मान: संसिद्धिं परमांगता:' (8। 15), 'मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि' (12। 10), 'यज्ज्ञात्वामुनय: सर्वे परांसिद्धिमितो गता:' (14। 1), 'स्वेस्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:। स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथाविन्दति तच्छृणु' (18। 45), 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:' (18। 46), 'नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति' (18। 49) और 'सिद्धिंप्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे' (18। 50) श्लोकों में ही यह दिक्कत होती है।

इन पर कुछ भी विचार करने के पूर्व यह जान लेना होगा कि कर्मों के अनेक नतीजों में एक यह भी है कि उनसे हृदय, मन या अंत:करण की शुद्धि होती है। 'योगिन: कर्म कुर्वन्ति संगं त्यत्त्कात्मशुद्धये' (5। 11) में आत्मशुद्धि का मन की शुद्धि ही अर्थ है। इसीलिए वहाँ योगी शब्द का अर्थ है साधारण कर्मी, न कि गीता का योगी। क्योंकि उसका तो मन पहले ही शुद्ध हो जाता है। वह मन की शुद्धि के लिए कर्म क्यों करेगा? बिना मन:शुद्धि के वह योगी हो ही नहीं सकता। इसीलिए योगी हो जाने पर मन:शुद्धिका प्रश्न उठता ही नहीं। फलत: यदि पूर्व पर का विचार किया जाए तो 'मदर्थमपि' (12। 10) में भी सिद्धि का अर्थ है मन:शुद्धि ही। इसी प्रकार (18। 45-46) में भी सिद्धि और संसिद्धि का अर्थ मन की शुद्धि ही है और वह है उसकी चंचलता की निवृत्ति या रागद्वेष से छुटकारा 'तत्स्वयं योगसंसिद्ध:' (4। 38) में भी यही अर्थ है।

इसके सिवाय (8। 15), (14। 1) और (18। 49) इन तीन श्लोकों में सिद्धि तथा संसिद्ध शब्द में एक विशेषण लगा है जो दो जगह 'परमां' है और एक जगह 'परां'। मगर दोनों का अर्थ एक ही है और है वह 'ऊँचे दर्जे की या सर्वश्रेष्ठ' यही। इनमें जो (14। 1) का सिद्धि शब्द है उसी का विशेषण 'परां' है। फलत: परासिद्धि का अर्थ है परम कल्याण या मुक्ति ही। पर के साथ जुटने से सिद्धि शब्द उस प्रसंग में सिवाय मुक्ति या चरमलक्ष्य सिद्धि के अन्य अर्थ का वाचक हो ही नहीं सकता है। रह गए शेष दो श्लोकों वाले सिद्धि शब्द। सो यदि उनके भी इधर-उधर के श्लोकों के अर्थों पर पूरा गौर करें तो उनका अर्थ होता है पूर्ण रीति से कर्मत्याग। परम विशेषण कर्मत्याग की रही-सही भी त्रुटियों एवं कमियों को पूरा करके पूर्ण रीति से कर्मों से छुटकारे की बात ही कहता है। केवल संसिद्धि कहने से भी संभवत: सफलता अर्थ हो के कर्मों से छुटकारा अर्थ तो होता, मगर उसमें शायद खामी की गुंजाइश रह जाती। अठारहवें अध्याहय के उस श्लोक के बादवाले में जो सिद्धि शब्द है वह तो परमसंसिद्धि का ही अनुवाद मात्र है। इसलिए उसका भी वही अर्थ है।

यदि 'संन्यासस्तु' (5। 6), 'नियतस्य तु' (18। 7) तथा 'भवत्यत्यागिनांग्म्' (18। 12) में देखें कि ब्रह्म और संन्यास शब्दों के अर्थ किस तरह पूर्व और उत्तर के वाक्यों के मिलाने से निश्चित होते हैं और वही रीति (3। 4) श्लोक में लगाएँ तो वहाँ सिद्धि का अर्थ होगा नैष्कर्म्य, संन्यास की सिद्धि या उसकी पूर्णता। इसी प्रकार (4। 2) में भी सिद्धि का अर्थ है फलप्राप्ति या लक्ष्यसिद्धि। छठे अध्यासय में तो योग का प्रकरण है। इसलिए उसके 37, 43 और 45 श्लोकों में संसिद्धि का व्यापक अर्थ है, जिसमें मन की शुद्धिरूप योगसिद्धि और ज्ञान की प्राप्ति भी आ जाती है। इस प्रकार हमने देखा कि आँख मूँद के या बिना सोचे-विचारे अर्थ करने से इन शब्दों के अर्थों की जानकारी में गड़बड़ हो सकती है।

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