श्रीः हीराबाई वा बेहयाई का बोरका
पहिला परिच्छेद।
अत्याचार।
"सर्पः क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात्क्रूरतरः खलः।
मन्त्रौषधिवशः सर्पः खलः केन निवार्यते ॥"
(हितोपदेशे)
दिल्ली का ज़ालिम बादशाह अलाउद्दीन ख़िलजी जो अपने बूढे़ और नेक चचा जलालुद्दीन फ़ीरोज़ ख़िलजी को धोखा दे और उसे अपनी आंखों के सामने मरवाकर [सन् १२९५ ईस्वी] आप दिल्ली का बादशाह बन बैठा था, बहुत ही संगदिल, खुदग़रज़, ऐय्याश, नफ़्सपरस्त और ज़ालिम था। उसने तख़्त पर बैठते ही जलालुद्दीन के दो नौजवान लड़कों को क़तल करडाला और गुजरात
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पर चढ़ाई करके उसे फ़तह कर दिल्ली में मिला-लिया था। इसके बाद [सन् १२९७ ईस्वी] जब फ़ौज से लूट का माल उसने मांगा तो फ़ौज ने बलवा किया, जिससे जलकर उस मलकुलमौत अ़लाउद्दीन ने सभों को, मय उनके लड़के-बाले और औरतों के, कटवाडाला था।
फिर अ़लाउद्दीन ने [सन् १३०० ईस्वी] साल भर के मुहासरे में रनथंभौर का क़िला जीता, उस के बाग़ी मीरमुहम्मदशाह को शरण देनेवाला वीरकेशरी हम्मीर वीरगति को पहुंचा और सारा रनिवांस इज्ज़त-आबरू बचाने के लिये आग में जलमरा था।
इसके बाद [सन् १३०३ ईस्वी] अ़लाउद्दीन ने पद्मिनी रानी के पाने के लिये तीन बरस तक खूब गहरी लड़ाई लड़कर चित्तौर का प्रसिद्ध किला जीता था। राना रतनसेन मारा गया, पद्मिनी रानी धर्म बचाने की इच्छा से अपनी सहेलियों के साथ महल के अन्दर चिता में जल गई और दुराचारी अ़लाउद्दीन यह देख अपना सा मुंह ले, कलेजा मसोसकर रह गया था।