नवीन कोमल किसलयों से लदे वृक्षों से हरा-भरा तपोवन वास्तव में शान्ति-निकेतन का मनोहर आकार धारण किये हुए है, चञ्चल पवन कुसुमसौरभ से दिगन्त को परिपूर्ण कर रहा है; किन्तु, आनन्दमय वशिष्ठ भगवान् अपने गम्भीर मुखमण्डल की गम्भीरमयी प्रभा से अग्निहोत्र-शाला को आलोकमय किये तथा ध्यान में नेत्र बन्द किये हुए बैठे हैं। प्रशान्त महासागर में सोते हुए मत्स्यराज के समान ही दोनों नेत्र अलौकिक आलोक से आलोकित हो रहे हैं।
रघुकुल-श्रेष्ठ महाराज त्रिशंकु सामने हाथ जोड़कर खड़े हैं, किन्तु सामथ्र्य किसकी जो उस आनन्द में बाधा डाले। ध्यान भग्न हुआ, वशिष्ठजी को त्रिशंकु ने साष्टांग दण्डवत् किया, उन्होंने आशीर्वाद दिया। सबको बैठने की आज्ञा हुई, सविनय सब बैठे।
महाराज को कुछ कहते देखकर ब्रह्मर्षि ने ध्यान से सुनना आरम्भ किया। त्रिशंकु ने पूछा-”भगवन्! यज्ञ का क्या फल है?”
फिर प्रश्न किया गया-”मनुष्य शरीर से स्वर्ग-प्राप्ति हो सकती है?”
उत्तर मिला-”नहीं।”
फिर प्रश्न किया गया-”आपकी कृपा से सब हो सकता है?”
उत्तर मिला-”राजन्, उसको तुम न तो पा सकते हो और न हम दिला सकते हैं।”
त्रिशंकु वहाँ से उठकर, प्रणामोपरान्त दूसरी ओर चले।
थोड़ी ही दूर पर भगवान वशिष्ठ के पुत्रगण आपस में शास्त्रवाद कर रहे थे। त्रिशंकु ने उन्हें प्रणाम किया, और कहा-”आप मानव-शरीर से स्वर्ग जाने का फल देनेवाला यज्ञ करा सकते हैं?”
पुत्र शिष्य ने कहा-”भगवान वशिष्ठ ने क्या कहा?”
त्रिशंकु ने उत्तर दिया-”भगवान वशिष्ठ ने तो असम्भव कहा है।”
यह सुनकर वशिष्ठ-पुत्रों को बड़ा क्रोध हुआ, और बड़ी उग्रता से वे बोल उठे-”मतिमन्द त्रिशंकु, तुझे क्या हो गया, गुरु पर अविश्वास! तुझे तो इस पाप के फल से चाण्डालत्व को प्राप्त होना चाहिए।”
इस श्राप से त्रिशंकु श्री-भ्रष्ट होकर चाण्डालत्व को प्राप्त हुआ; स्वर्ग के बदले चाण्डालत्व मिला-पुण्य करते पाप हुआ!
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श्री-भ्रष्ट होकर त्रिशंकु विलाप करता हुआ जा रहा है कि सहसा नारद का दर्शन हुआ। सार्वभौम महाराज की ऐसी अवस्था देखकर नारद ने पूछा-”राजन्! यह क्या?” बिलखते हुए त्रिशंकु ने सारी कथा सुनाई। नारद ने कहा-”आप क्यों हताश होते हैं, मैं आपको एक कथा सुनाता हूँ, सुनिए-
“बहुत दिन हुए विश्वामित्र नामक एक राजा अपनी चतुरंगिनी सेना को लिए हुए, आखेट करता हुआ, वशिष्ठाश्रम में पहुँचा। वहाँ शान्तिमयी प्राकृतिक शोभा देखकर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के दर्शन की अभिलाषा उसके चित्त में उत्पन्न हुई। वहाँ के आतिथ्य से वह बहुत ही प्रसन्न हुआ। अरण्यवासी ऋषिकल्पों की सरल अभ्यर्थना से वह आनन्दित हुआ; परन्तु जब उसे ससैन्य आमन्त्रण मिला, तब बहुत ही चकित हुआ। जब उसने वहाँ जाकर देखा कि कुछ नहीं है, तब और भी आश्चर्यान्वित हुआ। भगवान् वशिष्ठ ने ब्रह्मविद्या-स्वरूपिणी ‘कामधेनु’ से सब वस्तुएँ माँग लीं और कई दिन तक उन सैनिकों के सहित विश्वामित्र को रखा।
“जब वह विदा होने लगा, तब उनसे विदाई के स्वरूप में उस कामधेनु को माँगने लगा। जब उन्होंने न दिया, तब उन्हें दु:ख देने लगा। तपोवन को उसके सैनिकों ने चारों ओर से घेर लिया। किन्तु वशिष्ठ केवल शान्त होकर सहन करने लगे। अकस्मात् पल्लव-देशीय मनुष्यों की युद्ध-यात्रा हो रही थी, उन सबों ने देखा कि ब्रह्मर्षि, एक उन्मत्त क्षत्रिय से सताया जा रहा है, तो सभों ने लड़कर विश्वामित्र को ससैन्य भगा दिया, और वशिष्ठ आश्रम में शान्ति विराजने लगी; किन्तु विश्वामित्र को उस अपमान से परम दु:ख हुआ, और वह तपस्या से शंकर को प्रसन्न करने लगा।
“शंकर ने प्रसन्न होकर उसे सब धनुर्वेद का ज्ञान दिया। अब वह धनुर्विद्या से बली होकर फिर उसी वशिष्ठाश्रम पर पहुँचा, और महात्मा वशिष्ठ को पीड़ा देने लगा। जब वशिष्ठ को बहुत व्यथा हुई, तब वे उसके समीप पहुँचे और उसे समझाने लगे; किन्तु बलोन्मत्त क्षत्रिय उन पर शस्त्रों का प्रयोग करने लगा।
“वशिष्ठ ने केवल ब्रह्मतेजमय-सहिष्णुतारूपी दण्ड से सबको सहन किया। ब्रह्मर्षि के मुख पर उद्विग्नता की छाया नहीं, ताप भी नहीं, केवल शान्ति ही बिराज रही है। विश्वामित्र विचलित हुए। चित्त की चिन्ता-श्रोतस्विनी का प्रवाह दूसरी ओर फिरा, और वह कह उठा-
“धिग्बलं क्षत्रियबलं”
“वह अब ब्रह्म-बल पाने की आशा से घोर तपस्या कर रहा है, अब उसमें कुछ शान्ति की छाया पड़ी है।”
इतना कहकर नारद अन्तर्भूत हुए। त्रिशंकु घोर चिन्ता में पड़ा। एक-एक करके वशिष्ठ तथा उनके पुत्रों की सब बातें हृदय में बजने लगीं। विषाद तथा क्रोध ने उसे विवेक-हीन बना दिया, चित्त में प्रतिहिंसा जल उठी-बार-बार ‘प्रतिहिंसा’ की ध्वनि उसके कानों में गूँजने लगी। किंकर्तव्य-विमूढ़ होकर मन्त्र-मुग्ध की भाँति विश्वामित्र की तपोभूमि की ओर चल पड़ा।
विश्वामित्र त्रिशंकु से प्रसन्न हुए। तपस्या कर रहे हैं, किन्तु ईर्षा ने हृदय का अधिकार नहीं छोड़ा। वशिष्ठ के प्रतिकूल होकर कार्य करने में वह बहुत ही आनन्दित हुए, और यज्ञ कराना स्वीकार किया। ‘मधुच्छन्दा’ इत्यादि पुत्रों को आज्ञा दी कि वे यज्ञ का समारोह करें। और, ब्रह्मवादियों को भी निमन्त्रण दिया गया। सब होने लगा। किन्तु, वहाँ जाता ही कौन है?
वशिष्ठ-पुत्रों ने सब से कह दिया था कि-”चाण्डाल यजमान और क्षत्रिय आचार्य द्वारा सम्पादित यज्ञ में कौन भाग लेगा!”
आवाहन करने पर भी पुरोडाश ग्रहण करने के लिए देवगण नहीं आये। विश्वामित्र क्रोधान्वित हुए, श्रुवा पटककर कहा-”यज्ञ में विघ्न डालनेवाले वशिष्ठ-पुत्र भस्म हों, और त्रिशंकु विश्वामित्र के तपस्या-बल से सदेह स्वर्ग जाय।”
त्रिशंकु स्वर्ग की ओर चला, किन्तु, देवराज ने कहा-”तिष्ठ तिष्ठ”-त्रिशंकु अध:पतित हुआ। विश्वामित्र ने कहा-”अब हम नई सृष्टि करेंगे, और बर्बरों को सभ्य बनावेंगे।” देवगण चकित हुए, और उनके अनुरोध से त्रिशंकु पुन: नक्षत्र रूप में स्थित हुए। विश्वामित्र के नव-कल्पित एक नक्षत्र-गोलक में नव-सृष्टि से त्रिशंकु रहने लगे। उधर अग्न्यास्त्र-रूपी श्राप से वशिष्ठ-पुत्र भस्मीभूत हुए।
विश्वामित्र ऐसा उग्र कार्य करके कुछ शान्त हुए, और तपस्या करने लगे। लोग उन्हें ‘ऋषि’ कहने लगे। वह भी निरन्तर तपस्या से त्रैलोक्य को कम्पित करने लगे।
एक दिवस शुन:शेफ दौड़ विश्वामित्र के चरण में लिपट गया। जिज्ञासा करने पर ज्ञात हुआ कि वह महाराज हरिश्चन्द्र के यज्ञ का यज्ञ-पशु बनाकर बलि दिया जायगा। उद्दण्ड राजर्षि को कुछ दया आई, और वह अपने शत पुत्रों में से एक को उसके प्रत्यावर्तन में देने के हेतु सन्नद्ध हुए। पुत्रगण ने आज्ञा न मानी। वे भी शापित तथा निर्वासित हुए। भगवान् इन्द्र प्रसन्न हुए। महाराज हरिश्चन्द्र को बिना नरबलि किये ही यज्ञ-फल मिला, और विश्वामित्र ‘राजर्षि’ कहलाने लगे। किन्तु, वे ब्रह्मबल-लाभ की आशा में फिर तपस्या और निराहार-भूखों को अन्नदान करने लगे।
बहुत दिनों तक स्वयं निराहार रहकर वे भूखों को अन्नदान करते रहे। जिस दिन उनका वक्त पूर्ण हुआ और उन्होंने पाक बनाया, भोजन के समय में एक भूखा ब्राह्मण आया। विश्वामित्र ने अपने व्रत का कुछ भी ध्यान न किया, और सिद्धान्न ब्राह्मण को खिला दिया।
ब्राह्मण ने प्रसन्न होकर कहा-”महर्षि, तुम बड़े दयामय हो।”
सौ पुत्रों को खोकर, और निराहार पर भी निराहार कर के विश्वामित्र ने ‘महर्षि’ पद को प्राप्त किया। किन्तु, उन्हें शान्ति न मिली। वशिष्ठ की ईष्र्या से वे सदा ईर्षित रहते थे, और उसी ईर्षाग्नि में जलित उस ब्रह्मबल की आशा ने अभी उनकी एक परीक्षा और ली।
शर्वरीनाथ रमणी से पूर्ण कलायुक्त क्रीड़ा कर रहे हैं। राका प्रकाशमयी, प्रभामयी तथा आनन्दमयी प्रकृति का रूप धारण किये हुए है। बहुत दूर पर से कोकिल की मनोहर वाणी कभी शान्तिमयी राका की निस्तब्धता को भंग कर देती है। समीरण भी अपना सरल रूप धारण किये है। पत्रों का मर्मर रव कभी-कभी सुनाई पड़ता है। भगवान् वशिष्ठ के आश्रम में शान्ति, रूपमयी होकर खेल रही है।
देवकल्प वशिष्ठजी और उनकी पत्नी अरुधन्ती कुटीर-समीपस्थ एक शुभ शिला-तल पर बैठ, कथनोपकथन कर रहे हैं।
अरुन्धती-भगवन्! आज कैसी स्वच्छ राका है!
वशिष्ठ-जैसा तुम्हारा चरित्र।
अरुन्धती-चन्द्रोदय कैसा उज्ज्वल है?
वशिष्ठ-जैसे विश्वामित्र का तप-पुंज।
अरुन्धती-भगवन्! उसने तो आपके पुत्रों को मार डाला था?
वशिष्ठ-चन्द्र क्या निष्कलंक है.......
अभी भगवान् वशिष्ठजी के वचन पूर्ण भी नहीं हुए थे कि सहसा दौड़ता हुआ एक मनुष्य आकर उनके चरणों पर गिर पड़ा, और कहने लगा-”भगवन्! आप ही इस संसार में ‘ब्रह्मर्षि’ कहलाने के योग्य हैं, लोग मुझे वृथा ही महर्षि कहते हैं। मैं तो आपको मारने के वास्ते व्याध की नाईं छिपा हुआ था, आपकी अमृत-वाणी से मेरे हृदय का अन्धकार दूर हुआ। आज ज्ञात हुआ कि, ब्राह्मण होने के हेतु कितनी सहनशीलता चाहिए! प्रभो! मैं घोर भ्रम में था, मैंने कितने पाप-कर्म आपको नीचा दिखाने के हेतु किए, और ब्रह्मर्षि बनने के हेतु कितनी हिंसा की, आज पर्याप्त हुआ। आज मैंने सब पाया। प्रभो, इस पापी को क्या आप क्षमा कीजिएगा?
वशिष्ठजी ने पुलकित होकर विश्वामित्र को प्रियमित्र बनाया, और पुन: कण्ठ से लगाकर सुधा-प्लाविता वाणी से कहा-”ब्रह्मर्षि, शान्त होवो। परम शिव तुम्हें क्षमा करेंगे।”
दोनों ब्रह्मर्षियों का महासम्मेलन गंगा-जमुना के समान पवित्र-पुण्यमय था, ब्राह्मण और क्षत्रियों के हेतु वह एक चिरस्मरणीय शर्वरी थी।