राजा गोपालसिंह ने जब रामदीन को चिट्ठी और अंगूठी देकर जमानिया भेजा था तो यद्यपि चिट्ठी में लिख दिया था कि परसों रविवार को शाम तक हम लोग वहां (पिपलिया घाटी) पहुंच जायेंगे, मगर रामदीन को समझा दिया था कि रविवार को पिपलिया घाटी पहुंचना हमने यों ही लिख दिया है। वास्तव में हम वहां सोमवार को पहुंचेंगे अस्तु तुम भी सोमवार को पिपलिया घाटी पहुंचना, जिससे ज्यादे देर तक हमारे आदमियों को वहां ठहरकर तकलीफ न उठानी पड़े, और दो सौ सवारों की जगह केवल बीस सवार लाना। यह बात असली रामदीन को तो मालूम थी और वह मारा ना जाता तो बेशक रथ और सवारों को लेकर राजा साहब की आज्ञानुसार सोमवार को ही पिपलिया घाटी पहुंचता, मगर नकली रामदीन अर्थात् लीला तो उन्हीं बातों को जान सकती थी जो चिट्ठी में लिखी हुई थीं अस्तु वह रविवार को ही रथ और दो सौ फौज लेकर पिपलिया घाटी जा पहुंची और जब सोमवार को राजा साहब वहां पहुंचे तो बोली, “आश्चर्य है कि आपके आने में पूरे आठ पहर की देर हुई!” यह सुनते ही राजा साहब समझ गए कि यह असली रामदीन नहीं है। उसी समय से उन्होंने अपनी कार्रवाई का ढंग बदल दिया और लीला तथा मायारानी का सब बन्दोबस्त मिट्टी में मिल गया। वे उसी समय दो-चार बातें करके पीछे लौट गए और दूसरे दिन औरतों को अपने साथ न लाकर केवल भैरोसिंह और इन्द्रदेव को साथ लिये हुए पिपलिया घाटी में आए।
इस जगह यह भी लिख देना उचित जान पड़ता है कि दूसरे दिन पिपलिया घाटी में पहुंचकर लीला के लाये हुए सवारों के साथ रथ पर चढ़कर जमानिया पहुंचने वाले गोपालसिंह असली न थे बल्कि नकली थे और भैरोसिंह ने लीला के साथ जो सलूक किया वह असली राजा गोपालसिंह के इशारे से था। अब हमारे पाठक यह जानना चाहते होंगे कि यदि वह राजा गोपालसिंह नकली थे तो असली गोपालसिंह कहां गये, या वह किस सूरत में गये तो इसके जवाब में केवल इतना ही कह देना काफी होगा कि असली गोपालसिंह नकली गोपालसिंह के साथ इन्द्रदेव की सूरत बनकर रथ पर सवार हुए थे और जमानिया पहुंचने के पहिले ही नकली गोपालसिंह को समझा-बुझाकर रथ से उतर किसी तरफ चले गये थे। यह सब हाल यद्यपि पिछले बयानों से पाठकों को मालूम हो गया होगा परन्तु शक मिटाने के लिए यहां पुनः लिख दिया गया।
राजा गोपालसिंह के होशियार हो जाने के कारण मायारानी ने तिलिस्मी बाग में तरह-तरह के तमाशे देखे जिसका कुछ हाल तो लिखा जा चुका है और बाकी आगे चलकर लिखा जायेगा क्योंकि इस समय हम इन्द्रजीतसिंह आनन्दसिंह का हाल लिखना उचित समझते हैं।
कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने जब खिड़की में कमन्द लगा हुआ न पाया तो उन्हें ताज्जुब और रंज हुआ। थोड़ी देर तक खड़े उसी बाग की तरफ देखते रहे और तब इन्द्रजीत आनन्दसिंह से बोले, “क्या हम लोग यहां से कूद नहीं सकते?'
आनन्द - क्यों नहीं कूद सकते! अगर इस बात का खयाल हो कि नीचा बहुत है तो कमरबन्द खोलकर इस दरवाजे के सींकचे में बांध और उसके सहारे कुछ नीचे लटककर कूदने में मालूम भी न पड़ेगा।
इन्द्र - हां तुमने यह बहुत ठीक कहा, कमरबन्दों के सहारे हम लोग आधी दूर तक जो जरूर ही लटक सकते हैं मगर खराबी यह है कि दोनों कमरबन्दों से हाथ धोना पड़ेगा और इस तिलिस्म में नहाने-धोने का सुभीता इन्हीं की बदौलत है। खैर कोई चिन्ता नहीं लंगोटे से भी काम चल सकता है, अच्छा लाओ कमरबन्द खोलो।
दोनों भाइयों ने कमरबन्द खोलने के बाद दोनों को एक साथ जोड़ा और उसका एक सिरा दरवाजे में लगे हुए सींकचे के साथ बांधकर दोनों भाई बारी-बारी से नीचे लटक गये।
कमरबन्द ने आधी दूर तक दोनों भाइयों को पहुंचा दिया इसके बाद दोनों भाइयों को कूद जाना पड़ा। कूदने के साथ ही नीचे एक झाड़ी के अन्दर से आवाज आई, “शाबाश! इतनी ऊंचाई से कूद पड़ना आप ही लोगों का काम है। मगर अब किशोरी, कामिनी इत्यादि से मुलाकात नहीं हो सकती।”
जितने आदमी कमन्द के सहारे इस बाग में लटकाये गये थे और जिन सभों को यहां छोड़ आनन्दसिंह अपने भाई को बुलाने के लिए ऊपर गये थे उन सभों को मौजूद न पाकर और इस शाबाशी देने वाली आवाज को सुनकर दोनों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। दोनों भाई चारों तरफ घूम-घूमकर देखने लगे मगर किसी की सूरत नजर न पड़ी, हां एक पेड़ के नीचे सर्यू को बेहोश पड़े हुए जरूर देखा जिससे उन दोनों का ताज्जुब और भी ज्यादे हो गया।
इन्द्र - (आनन्दसिंह से) यह सब खराबी तुम्हारी जरा-सी भूल के सबब से हुई!
आनन्द - निःसन्देह ऐसा ही है।
इन्द्र - पहिले सर्यू को होश में लाने की फिक्र करो, शायद इसकी जुबानी कुछ मालूम हो।
आनन्द - जो आज्ञा।
इतना कहकर आनन्दसिंह सर्यू को होश में लाने का उद्योग करने लगे। थोड़ी देर में सर्यू की बेहोशी जाती रही और इतने ही में सुबह की सफेदी ने भी अपनी सूरत दिखाई।
इन्द्रजीत - (सर्यू से) तुम्हें किसने बेहोश किया?
सर्यू - एक नकाबपोश ने आकर एक चादर जबर्दस्ती मेरे ऊपर डाल दी जिससे मैं बेहोश हो गई। मैं दूर से सब तमाशा देख रही थी। जब आप कमन्द के सहारे ऊपर चढ़ गये और उसके कुछ देर बाद छोटे कुमार भी आपको कई दफे पुकारने के बाद उसी कमन्द के सहारे ऊपर चढ़ गये तब उन्हीं में से एक नकाबपोश ने उन सभों को सचेत किया जो (हाथ का इशारा करके) उस जगह बेहोश पड़े हुए थे या जो ऊपर से लटकाए गये थे। इसके बाद सब कोई मिलकर उस (हाथ से बताकर) दीवार की तरफ गए और कुछ देर तक आपस में बातें करते रहे। इसी बीच में छिपकर उनकी बातें सुनने की नीयत से मैं भी धीरे-धीरे अपने को छिपाती हुई उस तरफ बढ़ी मगर अफसोस वहां तक पहुंचने भी न पाई थी कि एक नकाबपोश मेरे सामने आ पहुंचा और उसने उसी ढंग से मुझे बेहोश कर दिया जैसा कि मैं अभी कह चुकी हूं। शायद उसी बेहोशी की अवस्था में मैं इस जगह पहुंचाई गई।
सर्यू की बातें सुनकर दोनों कुमार कुछ देर तक सोचते रहे, इसके बाद सर्यू को साथ लिए उसी दीवार की तरफ गये जिधर उन लोगों का जाना सर्यू ने बताया था जो कमन्द के सहारे इस बाग में उतरे या उतारे गये थे। जब वहां पहुंचे तो देखा कि दीवार की लम्बाई के बीचोंबीच में एक दरवाजे का निशाना बना हुआ है और उसके पास ही में नीचे की जमीन कुछ खुदी हुई है।
आनन्द - (इन्द्रजीतसिंह से) देखिए यहां की जमीन उन लोगों ने खोदी और तिलिस्म के अन्दर जाने का दरवाजा निकाला है क्योंकि दीवार में अब वह गुण तो रहा नहीं जो उन लोगों को ऐसा करने से रोकता।
इन्द्र - बेशक यह वही दरवाजा है जिस राह से हम लोग तिलिस्म के दूसरे दर्जे में जाने वाले थे! मगर इससे तो जाना जाता है कि वे लोग तिलिस्म के अन्दर घुस गये!
आनन्द - जरूर ऐसा ही है और यह काम सिवाय गोपाल भाई के दूसरा कोई नहीं कर सकता, अस्तु अब मैं जरूर यह कहने की हिम्मत करूंगा कि वह कोई दूसरा नहीं था जिसके कहे मुताबिक मैं आपको बुलाने के लिए मकान के ऊपर चला गया था।
इन्द्र - तुम्हारी बात मान लेने की इच्छा तो होती है मगर क्या तुम उस खास निशान को देखकर भी कह सकते हो कि वह चिट्ठी गोपाल भाई की नहीं थी जो मुझे मकान में कमरे के अन्दर मिली थी!
आनन्द - जी नहीं, यह तो मैं कदापि नहीं कह सकता कि वह चिट्ठी किसी दूसरे की लिखी हुई थी, मगर यह खयाल भी मेरे दिल से दूर नहीं हो सकता कि उन्हीं (गोपालसिंह) की आज्ञा से आपको बुलाने गया था।
इन्द्र - हो सकता है, तो क्या उन्होंने हम लोगों के साथ चालाकी की!
आनन्द - जो हो!
इन्द्र - यदि ऐसा ही है तो उनकी लिखावट पर भरोसा करके यही हम कैसे कह सकते हैं कि किशोरी, कामिनी इत्यादि इस बाग में पहुंच गई थीं।
आनन्द - क्या यह हो सकता है कि वह तिलिस्मी किताब जो गोपाल भाई के पास थी हमारे किसी दुश्मन के हाथ लग गई और वह उस किताब की मदद से अपने साथियों सहित यहां पहुंचकर हम लोगों को नुकसान पहुंचाने की नीयत से तिलिस्म के अन्दर चला गया है?
इन्द्र - यह तो हो सकता है कि उनकी किताब किसी दुश्मन ने चुरा ली हो मगर यह नहीं हो सकता कि उसका मतलब भी हर कोई समझ ले। खुद मैं ही 'रक्तग्रंथ' का मतलब ठीक-ठीक नहीं समझ सकता था, आखिर जब उन्होंने बताया तब कहीं तिलिस्म के अन्दर जाने लायक हुआ। (कुछ रुककर) आज के मामले तो कुछ अजब बेढंगे दिखाई दे रहे हैं... खैर कोई चिन्ता नहीं, आखिर हम लोगों को इस दरवाजे की राह तिलिस्म के अन्दर जाना ही है, चलो फिर जो कुछ होगा देखा जायेगा!
आनन्द - यद्यपि सूर्योदय हो जाने के कारण प्रातः कृत्य से छुट्टी पा लेना आवश्यक जान पड़ता है, यह सोचकर कि जाने कैसा मौका आ पड़े तथापि आज्ञानुसार तिलिस्म के अन्दर चलने के लिए मैं तैयार हूं, चलिए।
आनन्दसिंह की बात सुनकर इन्द्रजीतसिंह कुछ गौर में पड़ गए और कुछ सोचने के बाद बोले, “कोई चिन्ता नहीं, जो कुछ होगा देखा जायगा।”
दीवार के नीचे जो जमीन खुदी हुई थी उसकी लम्बाई-चौड़ाई पांच-पांच गज से ज्यादे न थी। मिट्टी हट जाने के कारण एक पत्थर की पटिया (ताज्जुब नहीं कि वह लोहे या पीतल की हो) दिखाई दे रही थी और उसे उठाने के लिए बीच में लोहे की कड़ी लगी हुई थी जिसका एक सिरा दीवार के साथ सटा हुआ था। इन्द्रजीतसिंह ने कड़ी में हाथ डालकर जोर किया और उस पटिया (छोटी चट्टान) को उठाकर किनारे पर रख दिया। नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां दिखाई दीं और दोनों भाई सर्यू को साथ लिए नीचे उतर गए।
लगभग बीस सीढ़ी के नीचे उतर जाने के बाद एक छोटी कोठरी मिली जिसकी जमीन किसी धातु की बनी हुई थी और खूब चमक रही थी। ऊपर दो-तीन सुराख (छेद) भी इस ढंग से बने हुए थे जिससे दिन भर उस कोठरी में कुछ - कुछ रोशनी रह सकती थी। आनन्दसिंह ने चारों तरफ गौर से देखकर इन्द्रजीतसिंह से कहा, 'भैया, रक्तग्रंथ में लिखा था कि यह कोठरी तुम्हें तिलिस्म के अन्दर पहुंचावेगी, मगर समझ में नहीं आता कि यह कोठरी किस तरह से हम लोगों को तिलिस्म के अन्दर पहुंचावेगी क्योंकि इसमें न तो कहीं दरवाजा दिखाई देता है और न कोई ऐसा निशान ही मालूम पड़ता है जिसे हम लोग दरवाजा बनाने के काम में लावें।”
इन्द्र - हम भी इसी सोच-विचार में पड़े हुए हैं मगर कुछ समझ में नहीं आता है।
इसी बीच में दोनों कुमार और सर्यू के पैरों में झुनझुनी और कमजोरी मालूम होने लगी और वह बात की बात में इतनी ज्यादे बढ़ी कि वे लोग वहां से हिलने लायक भी न रहे। देखते-देखते तमाम बदन में सनसनाहट और कमजोरी ऐसी बढ़ गई कि वे तीनों बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े और फिर तनोबदन की सुध न रही।
घण्टे भर के बाद कुंअर इन्द्रजीतसिंह की बेहोशी जाती रही और वह उठकर बैठ गए मगर चारों तरफ घोर अन्धकार छाया रहने के कारण यह नहीं जान सकते थे कि वे किस अवस्था में या कहां पड़े हुए हैं। सबसे पहिले उन्हें तिलिस्मी खंजर की फिक्र हुई, कमर में हाथ लगाने पर उसे मौजूद पाया अस्तु उसे निकालकर और उसका कब्जा दबाकर रोशनी पैदा की और ताज्जुब की निगाह से चारों तरफ देखने लगे।
जिस स्थान में इस समय कुमार थे वह सुर्ख पत्थर से बना हुआ था और यहां की दीवारों पर पत्थर के गुलबूटों का काम बहुत खूबी, खूबसूरती और कारीगरी का अनूठा नमूना दिखाने वाला बना हुआ था। चारों तरफ की दीवार में चार दरवाजे थे मगर उनमें किवाड़ के पल्ले लगे हुए न थे। पास ही कुंअर आनन्दसिंह भी पड़े हुए थे। परन्तु सर्यू का कहीं पता न था जिससे कुमार को बहुत ही ताज्जुब हुआ। उसी समय आनन्दसिंह की बेहोशी भी जाती रही और वे उठकर घबराहट के साथ चारों तरफ देखते हुए कुंअर इन्द्रजीत के पास आकर बोले –
आनन्द - हम लोग यहां क्योंकर आये?
इन्द्रजीत - मुझे मालूम नहीं तुमसे थोड़ी ही देर पहिले मैं होश में आया हूं और ताज्जुब के साथ चारों तरफ देख रहा हूं।
आनन्द - और सर्यू कहां चली गई?
इन्द्रजीत - यह भी नहीं मालूम, तुम चारों तरफ की दीवारों में चार दरवाजे देख रहे हो, शायद वह हमसे पहिले होश में आकर इन दरवाजों में से किसी एक के अन्दर चली गई हो।
आनन्द - शायद ऐसा ही हो, चलकर देखना चाहिए। रक्तग्रंथ का कहा बहुत ठीक निकला, आखिर उसी कोठरी ने हम लोगों को यहां पहुंचा दिया मगर किस ढंग से पहुंचाया सो मालूम नहीं होता! (छत की तरफ देखकर) शायद वह कोठरी इसके ऊपर हो और उसकी छत ने नीचे उतरकर हम लोगों को यहां लुढ़का दिया हो!
इन्द्रजीत - (कुछ मुस्कुराकर) शायद ऐसा ही हो, मगर निश्चय नहीं कह सकते, हां अब व्यर्थ न खड़े रहकर सर्यू और नकाबपोशों का पता लगाना चाहिए।
इन्द्रजीतसिंह ने इतना कहा ही था कि दीवार वाले एक दरवाजे के अन्दर से आवाज आई, “बेशक, बेशक!!”