नकाबपोशों के चले जाने के बाद जब केवल घर वाले ही वहां रह गये तब राजा वीरेन्द्रसिंह ने अपने पिता से तारासिंह की बाबत जो कुछ हाल हम ऊपर लिख आये हैं कुछ घटा-बढ़ाकर बयान किया और इसके बाद कहा, “तारासिंह नकाबपोशों के सामने ही लौटकर आ गया था जिससे अभी तक यह पूछने का मौका न मिला कि वह कहां गया था और वह तस्वीर उसे कहां से मिली थी जो उसने अपनी मां को दी थी।”
इतना कहकर वीरेन्द्रसिंह चुप हो गये और देवीसिंह ने वह कपड़े वाली तस्वीर (जो चम्पा ने दी थी) महाराज सुरेन्द्रसिंह के सामने रख दी। सुरेन्द्रसिंह ने बड़े गौर से उस तस्वीर को देखा और इसके बाद तारासिंह से पूछा –
सुरेन्द्र - निःसन्देह यह तस्वीर किसी अच्छे कारीगर के हाथ की बनी हुई है, यह तुम्हें कहां से मिली?
तारा - मैं स्वयं इस तस्वीर का हाल अर्ज करने वाला था, परन्तु इसके सम्बन्ध की कई ऐसी बातों को जानना आवश्यक था जिनके बिना इसका पूरा भेद मालूम नहीं हो सकता, अतएव मैं उन्हीं बातों के जानने की फिक्र में पड़ा हुआ था और इसी सबब से अभी तक कुछ अर्ज करने की नौबत नहीं आई।
तेज - तो क्या तुम्हें इसका पूरा-पूरा भेद मालूम हो गया।
तारा - जी नहीं, मगर कुछ-कुछ जरूर मालूम हुआ है?
तेज - तो इस काम में तुमने अपने साथियों से मदद क्यों नहीं ली?
तारा - अभी तक मदद की जरूरत नहीं पड़ी थी, मगर, हां अब मदद लेनी पड़ेगी!
वीरेन्द्र - खैर, बताओ कि इस तस्वीर को तुमने क्योंकर पाया?
तारा - (इधर-उधर देखकर) भूतनाथ की स्त्री से।
तारासिंह की इस बात को सुनकर सब कोई चौंक पड़े खासकर देवीसिंह को तो बड़ा ही ताज्जुब हुआ और उसने हैरत की निगाह से अपने लड़के तारासिंह की तरफ देखकर पूछा –
देवी - भूतनाथ की स्त्री तुम्हें कहां मिली?
तारा - उसी जंगल में जिसमें आपने और भूतनाथ ने उसे देखा था, बल्कि उसी झोंपड़ी में जिसमें भूतनाथ और आप उसके साथ गये थे और लाचार होकर लौट आये थे। आपको यह सुनकर ताज्जुब होगा कि वह वास्तव में भूतनाथ की स्त्री ही थी।
देवी - (आश्चर्य से) हैं, क्या वह वास्तव में भूतनाथ की स्त्री थी।
तारा - जी हां, आप और भूतनाथ नकाबपोशों के फेर में यद्यपि कई दिनों तक परेशान हुए परन्तु उतना हाल मालूम न कर सके जितना मैं जान आया हूं।
इस समय दरबार में आपस वालों के सिवाय कोई गैर आदमी ऐसा न था जिसके सामने इस तरह की बातों के कहने-सुनने में किसी तरह का खयाल होता अतएव बड़ी उत्कण्ठा के साथ सब कोई तारासिंह की बातें सुनने के लिए तैयार हो गये और देवीसिंह का तो कहना ही क्या जिनका दिल तूफान में पड़े हुए जहाज की तरह हिंडोले खा रहा था। उन्हें यकायक यह खयाल पैदा हुआ कि अगर वह वास्तव में भूतनाथ की स्त्री थी तो दूसरी औरत भी जरूर चम्पा ही रही होगी जिसे नकाबपोशों के मकान में देखा गया था। अस्तु बड़े ताज्जुब के साथ अपने लड़के तारासिंह से पूछा, “क्या तुम बता सकते हो कि जिन दो औरतों को हमने नकाबपोशों के मकान में देखा था, वे कौन थीं'
तारा - उनमें से एक तो जरूर भूतनाथ की स्त्री थी मगर दूसरी के बारे में अभी तक कुछ पता नहीं लगा।
देवी - (कुछ सोचकर) दूसरी भी तुम्हारी मां होगी?
तारा - शायद ऐसा हो मगर विश्वास नहीं होता।
तेज - तुम्हें यह कैसे निश्चय हुआ कि वास्तव में वह भूतनाथ की स्त्री थी?
तारा - उसने स्वयं भूतनाथ की स्त्री होना स्वीकार किया बल्कि और भी बहुत-सी बातें ऐसी कहीं जिससे किसी तरह का शक नहीं रहा।
देवी - और तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि नकाबपोशों के घर जाकर हम लोगों ने किसे देखा या जंगल में भूतनाथ की स्त्री हम लोगों को मिली थी और हम लोग उसके पीछे-पीछे एक झोंपड़ी में जाकर सूखे हाथ लौट आये थे?
तारा - यह सब हाल मुझे बखूबी मालूम है और उस समय मैं भी उसी जंगल में था जिस समय आपने भूतनाथ की स्त्री को देखा था और उसके पीछे-पीछे गये थे। इस समय आप यह सुनकर और ताज्जुब करेंगे कि आपसे अलग होकर भूतनाथ ने उसी दिन अर्थात् कल संध्या के समय उन दोनों नकाबपोशों को गिरफ्तार कर लिया जिनकी सूरत यहां दरबार में देखकर दारोगा और जैपाल बदहवास हो गये थे।
वीरेन्द्र - (ताज्जुब से) हैं! मगर वे दोनों नकाबपोश तो आज भी यहां आये थे जिनका जिक्र तुम कर रहे हो।
तारा - जी हां, उन्हें तो मैं अपनी आंखों ही से देख चुका हूं, मगर मेरे कहने का मतलब यह है कि भूतनाथ ने कल जिन दोनों नकाबपोशों को गिरफ्तार किया है उनकी सूरतें ठीक वैसी ही हैं जैसी दारोगा और जैपाल ने यहां देखी थीं चाहे ये लोग हों कोई भी।
तेज - और भूतनाथ ने उन्हें गिरफ्तार कहां किया?
तारा - उसी खोह के मुहाने पर उसने उन्हें धोखा दिया जिसमें नकाबपोश लोग रहते थे।
देवी - मालूम होता है कि हम लोगों की तरह तुम भी कई दिनों से नकाबपोशों की खोज में पड़े हो?
तारा - खोज में नहीं बल्कि फेर में।
वीरेन्द्र - खैर तुम खुलासे तौर पर सब हाल बयान कर जाओ, इस तरह पूछने और कहने से काम नहीं चलेगा।
तारा - जो आज्ञा, मगर मेरा हाल कुछ बहुत लम्बा-चौड़ा नहीं, केवल इतना ही कहना है कि मैं भी पांच-सात दिन से उन नकाबपोशों के फेर में पड़ा हूं और इत्तिफाक से मैं भी उसी खोह के अन्दर जा पहुंचा जिसमें वे लोग रहते हैं। (कुछ सोचकर जीतसिंह की तरफ देखकर) अगर कोई हर्ज न हो तो दो घंटे के बाद मुझसे मेरा हाल पूछा जाय।
जीत - (महाराज की तरफ देखकर और कुछ इशारा पाकर) खैर कोई चिन्ता नहीं, मगर यह बताओ कि इन दो घण्टे के अन्दर तुम क्या काम करोगे?
तारा - कुछ भी नहीं, मैं केवल अपनी मां से मिलूंगा और स्नान-ध्यान से छुट्टी पा लूंगा।
देवी - (धीरे से) आजकल के लड़के भी कुछ विचित्र ही पैदा होते हैं, खास करके ऐयारों के।
इसके जवाब में तारासिंह ने अपने पिता की तरफ देखा और मुस्कुराकर सिर झुका लिया। यह बात देवीसिंह को कुछ बुरी मालूम हुई मगर बोलने का मौका न देखकर चुप रह गये।
तेज - (तारा से) आज जब हम लोग तुम्हारे न मिलने से परेशान थे तो हमारी परेशानी को देखकर नकाबपोशों ने कहा था कि तारासिंह के लिए आपको तरद्दुद न करना चाहिए, आशा है कि वह घंटे भर के अन्दर ही यहां आ पहुंचेगा, और वास्तव में हुआ भी ऐसा ही, तो क्या नकाबपोशों को तुम्हारा हाल मालूम था यह बात नकाबपोशों से भी पूछी गई थी मगर उन्होंने कुछ जवाब न दिया और कहा कि 'इसका जवाब तारा ही देगा।'
तारा - नकाबपोशों की सभी बातें ताज्जुब की होती हैं, मैं नहीं जानता कि उन्हें मेरा हाल क्योंकर मालूम हुआ।
तेज - क्या तुम्हें इस बात की खबर है कि इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने तुम्हें और भैरोसिंह को बुलाया है?
तारा - जी नहीं।
तेज - (कुमार की चिट्ठी तारा को दिखाकर) लो इसे पढ़ो।
तारा - (चिट्ठी पढ़कर) नकाबपोशों ही के हाथ यह चिट्ठी आई होगी?
तेज - हां और उन्हीं नकाबपोशों के साथ तुम दोनों को जाना भी पड़ेगा?
तारा - जब मर्जी होगी हम दोनों चले जायंगे।
इसके बाद महाराज की आज्ञानुसार दरबार बर्खास्त हुआ और सब कोई अपने-अपने ठिकाने चले गये। तारासिंह भी महल में अपनी मां से मिलने के लिए चला गया और घंटे भर से ज्यादे देर तक उसके पास बैठा बातचीत करता रहा। इसके बाद जब महल से बाहर आया तो सीधे जीतसिंह के डेरे में चला गया और जब मालूम हुआ कि वे महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास गये हुए हैं तो खुद भी महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास चला गया।
हम नहीं कह सकते कि महाराज सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह और तारासिंह में देर तक क्या-क्या बातें होती रहीं, हां इसका नतीजा यह जरूर निकला कि तारासिंह को पुनः अपना हाल किसी से कहना न पड़ा अर्थात् महाराज ने उसे अपना हाल बयान करने से माफी दे दी और तारासिंह को भी जो कुछ कहना-सुनना था महाराज से ही कह-सुनकर छुट्टी पा ली। औरों को तो इस बात का ऐसा खयाल न हुआ मगर देवीसिंह को यह चालाकी बुरी मालूम हुई और उन्हें निश्चय हो गया कि तारासिंह और चम्पा दोनों मां-बेटे मिले हुए हैं और साथ ही इसके बड़े महाराज भी इस भेद को जानते हैं मगर ताज्जुब है कि ऐयारों पर प्रकट नहीं करते, इसका कोई-न-कोई सबब जरूर है, और तब देवीसिंह की हिम्मत न पड़ी कि अपने लड़के को कुछ कहें या डांटें।
दो घण्टे रात जा चुकी थी जब महाराज सुरेन्द्रसिंह ने वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह को अपने पास बुलाया। उस समय जीतसिंह पहिले ही से महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास बैठे हुए थे, अस्तु जब दोनों आदमी वहां आ गये तो दो घण्टे तक तारासिंह के बारे में बातचीत होती रही और इसके बाद महाराज आराम करने के लिए पलंग पर चले गये। वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह अपने-अपने कमरे में चले आये।
दूसरे दिन अपने मालूमी समय पर पुनः दोनों नकाबपोशों के आने की इत्तिला मिली। उस समय जीतसिंह, वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह, राजा गोपालसिंह, बलभद्रसिंह, इन्द्रदेव और बद्रीनाथ वगैरह अपने यहां के ऐयार लोग भी महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास बैठे हुए थे और उन्हीं नकाबपोशों के बारे में तरह-तरह की बातें हो रही थीं। आज्ञानुसार दोनों नकाबपोश हाजिर किये गये और फिर इस तरह बातचीत होने लगी –
तेज - (नकाबपोशों की तरफ देखकर) तारासिंह की जुबानी सुनने में आया कि भूतनाथ ने आपके दो आदमियों को ऐयारी करके गिरफ्तार कर लिया है।
एक नकाब - जी हां, हम लोगों को भी इस बात की खबर लग चुकी है मगर कोई चिन्ता की बात नहीं है। गिरफ्तार होने और बेइज्जती उठाने पर भी वे दोनों भूतनाथ को किसी तरह की तकलीफ न देंगे और न भूतनाथ ही किसी तरह की तकलीफ उन्हें दे सकेगा। यद्यपि उस समय भूतनाथ ने उन दोनों को नहीं पहिचाना मगर जब उनका परिचय पायेगा और पहिचानेगा तो उसे बड़ा ही ताज्जुब होगा। जो हो मगर भूतनाथ को ऐसा करने की जरूरत न थी। ताज्जुब है कि ऐसे फजूल के कामों में भूतनाथ का जी क्योंकर लगता है। ऐयारी करके जिस समय भूतनाथ ने दोनों को गिरफ्तार किया था उस समय उन दोनों की सूरत देखने के साथ ही छोड़ देना चाहिए था क्योंकि एक दफे भूतनाथ इस दरबार में उन दोनों सूरतों को देख चुका था और जानता था कि आखिर इन दोनों का हाल मालूम होगा ही। अब दोनों को गिरफ्तार करके ले जाने से भूतनाथ की बेचैनी कम न होगी बल्कि और ज्यादे बढ़ जायगी।
तेज - हां, हम लोगों ने भी यही सुना था कि जिन सूरतों को देखकर मायारानी का दारोगा और जैपाल बदहवास हो गये थे उन्हीं दोनों को भूतनाथ ने गिरफ्तार किया है।
नकाब - जी हां, ऐसा ही है।
तेज - तो क्या वे दोनों स्वयं इस दरबार में आये थे या आप लोगों ने उन दोनों के जैसी सूरत बनाई थी?
नकाब - जी वे लोग स्वयं यहां नहीं आये थे बल्कि हम ही दोनों उन दोनों की तरह की सूरत बनाए हुए थे। दारोगा और जैपाल इस बात को समझ न सके।
तेज - असल में दोनों कौन हैं जिन्हें भूतनाथ ने गिरफ्तार किया है?
नकाब - (कुछ सोचकर) आज नहीं, अगर हो सकेगा तो दो-एक दिन में मैं आपको इस बात का जवाब दूंगा क्योंकि इस समय हम लोग ज्यादा देर तक यहां ठहरना नहीं चाहते। इसके अतिरिक्त सम्भव है कि कल तक भूतनाथ भी उन दोनों को लिये हुए यहीं आ जाय। अगर वह अकेला ही आवे तो हुक्म दीजियेगा कि उन दोनों को भी यहां ले आये। उस समय कम्बख्त दारोगा और जैपाल के सामने उन दोनों का हाल सुनने से आप लोगों को विशेष आनन्द मिलेगा। मैं भी... (कुछ रुककर) मौजूद ही रहूंगा, जो बात समझ में न आवेगी समझा दूंगा। (कुछ रुककर) हां, भैरोसिंह और तारासिंह के विषय में क्या आज्ञा होती है क्या आज वे दोनों हमारे साथ भेजे जायंगे क्योंकि इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को उन दोनों के बिना सख्त तकलीफ है।
सुरेन्द्र - हां, भैरो और तारा तुम दोनों के साथ जाने के लिए तैयार हैं।
इतना कहकर महाराज ने भैरोसिंह और तारासिंह की तरफ देखा जो उसी दरबार में बैठे हुए नकाबपोशों की बातें सुन रहे थे। महाराज को अपनी तरफ देखते देख दोनों भाई उठ खड़े हुए और महाराज को सलाम करने के बाद दोनों नकाबपोशों के पास आकर बैठ गए।
नकाब - (महाराज से) तो अब हम लोगों को आज्ञा मिलनी चाहिए।
सुरेन्द्र - क्या आज दोनों लड़कों का हाल हम लोगों को न सुनाओगे?
नकाब - (हाथ जोड़कर) जी नहीं, क्योंकि देर हो जाने से आज भैरोसिंह और तारासिंह को इन्द्रजीतसिंह के पास हम लोग पहुंचा न सकेंगे।
सुरेन्द्र - खैर क्या हर्ज है, कल तो तुम लोगों का आना होगा ही।
नकाब - अवश्य।
इतना कहकर दोनों नकाबपोश उठ खड़े हुए और सलाम करके बिदा हुए। भैरोसिंह और तारासिंह भी उनके साथ रवाना हुए।
रात घण्टे भर से कुछ ज्यादे जा चुकी है। पहाड़ के एक सुनसान दर्रे में जहां किसी आदमी का जाना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव जान पड़ता है, सात आदमी बैठे हुए किसी के आने का इन्तजार कर रहे हैं और उन लोगों के पास ही एक लालटेन जल रही है। यह स्थान चुनारगढ़ के तिलिस्मी मकान से लगभग छः-सात कोस की दूरी पर होगा। यह दो पहाड़ों के बीच वाला दर्रा बहुत बड़ा, पेचीला, ऊंचा-नीचा और ऐसा भयानक था कि साधारण मनुष्य एक सायत के लिए भी यहां खड़ा रहकर अपने उछलते और कांपते हुए कलेजे को सम्हाल नहीं सकता था। इस दर्रे में बहुत-सी गुफाएं ऐसी हैं जिनमें सैकड़ों आदमी आराम से रहकर दुनियादारी की आंखों से बल्कि वहम और गुमान से भी अपने को छिपा सकते हैं। और इसी से समझ लेना चाहिए कि यहां ठहरने या बैठने वाला आदमी साधारण नहीं बल्कि बड़े जीवट और कड़े दिल का होगा।
ये सातों आदमी जिन्हें हम बेफिक्री के साथ बैठे देखते हैं भूतनाथ के साथी हैं और उसी की आज्ञानुसार ऐसे स्थान में अपना घर बनाये पड़े हुए हैं। इस समय भूतनाथ यहां आने वाला है, अस्तु ये लोग भी उसी का इन्तजार कर रहे हैं।
इसी समय भूतनाथ भी उन दोनों नकाबपोशों को जिन्हें आज ही धोखा देकर गिरफ्तार किया था लिए हुए आ पहुंचा। भूतनाथ को देखते ही वे लोग उठ खड़े हुए और बेहोश नकाबपोशों की गठरी उतारने में सहायता दी।
दोनों बेहोश जमीन पर सुला दिये गए और इसके बाद भूतनाथ ने अपने एक साथी की तरफ देखकर कहा, “थोड़ा पानी ले आओ, मैं इन दोनों के चेहरे धोकर देखना चाहता हूं।”
इतना सुनते ही एक आदमी दौड़ता हुआ चला गया और थोड़ी ही दूर पर एक गुफा के अन्दर घुसकर पानी का भरा हुआ लोटा लेकर चला आया। भूतनाथ ने बड़ी होशियारी से (जिसमें उनका कपड़ा भीगने न पावे) दोनों नकाबपोशों का चेहरा धोकर लालटेन की रोशनी में गौर से देखा मगर किसी तरह का फर्क न पाकर धीरे से कहा, “इन लोगों का चेहरा रंगा हुआ नहीं है।”
इसके बाद भूतनाथ ने उन दोनों को लखलखा सुंघाया जिससे वे तुरत ही होश में आकर उठ बैठे और घबराहट के साथ चारों तरफ देखने लगे। लालटेन की रोशनी में भूतनाथ के चेहरे पर निगाह पड़ते ही उन दोनों ने भूतनाथ को पहिचान लिया और हंसकर उससे कहा, “बहुत खासे! तो ये सब जाल आप ही के रचे हुए थे'
भूत - जी हां, मगर आप इस बात का खयाल भी अपने दिल में न लाइयेगा कि मैं आपको दुश्मनी की नीयत से पकड़ लाया हूं।
एक नकाबपोश - (हंसकर) नहीं-नहीं, यह बात हम लोगों के दिल में नहीं आ सकती और न तुम हमें किसी तरह का नुकसान पहुंचा ही सकते हो, मगर मैं यह पूछता हूं कि तुम्हें इस कार्रवाई के करने से फायदा क्या होगा?
भूत - आप लोगों से किसी तरह का फायदा उठाने की भी मेरी नीयत नहीं है। मैं तो केवल दो-चार बातों का जवाब पाकर ही अपनी दिलजमई कर लूंगा और इसके बाद आप लोगों को उसी ठिकाने पहुंचा दूंगा जहां से ले आया हूं।
नकाब - मगर तुम्हारा यह खयाल भी ठीक नहीं है क्योंकि तुम खुद समझ गये होगे कि हम लोग थोड़े ही दिनों के लिए अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए हैं और अपना भेद प्रकट होने नहीं देते। इसके बाद हम लोगों का भेद छिपा नहीं रहेगा, अस्तु इस बात को जानकर भी तुम्हें इतनी जल्दी क्यों पड़ी है और क्यों तुम्हारे पेट में चूहे कूद रहे हैं क्या तुम नहीं जानते कि स्वयं महाराज सुरेन्द्रसिंह और राजा वीरेन्द्रसिंह हम लोगों का भेद जानने के लिए बेताब हो रहे थे मगर कई बातों पर ध्यान देकर हम लोगों ने अपना भेद खोलने से इनकार कर दिया और कह दिया कि कुछ दिन सब्र कीजिए फिर आपसे आप हम लोग अपना भेद खोल देंगे।
नकाबपोश की कुरुखी मिली हुई बातें सुनकर यद्यपि भूतनाथ को क्रोध चढ़ आया मगर क्रोध करने का मौका न देख वह चुप रह गया और नरमी के साथ फिर बातचीत करने लगा।
भूत - आपका कहना ठीक है, मैं इस बात को खूब जानता हूं, मगर मैं उन भेदों को खुलवाना नहीं चाहता जिन्हें हमारे महाराज जानना चाहते हैं, मैं तो केवल दो-चार मामूली बातें आप लोगों से पूछना चाहता हूं जिनका उत्तर देने में न तो आप लोगों का भेद ही खुलता है और न आप लोगों का कोई हर्ज ही होगा। इसके अतिरिक्त मैं वादा करता हूं कि मेरी बातों का जो कुछ आप जवाब देंगे उसे मैं किसी दूसरे पर तब तक प्रकट न करूंगा जब तक आप लोग अपना भेद न खोलेंगे।
नकाब - (कुछ सोचकर) अच्छा पूछो क्या पूछते हो?
भूत - पहिली बात तो यह पूछता हूं कि देवीसिंह के साथ मैं आप लोगों के मकान में गया था, यह बात आपको मालूम है या नहीं?
नकाब - हां मालूम है।
भूत - खैर और दूसरी बात यह है कि यहां मैंने अपने लड़के हरनामसिंह को देखा, क्या वह वास्तव में हरनामसिंह ही था?
नकाब - (कुछ क्रोध की निगाह से भूतनाथ को देखकर) हां था तो सही, फिर?
भूत - (लापरवाही के साथ) कुछ नहीं, मैं केवल अपना शक मिटाना चाहता था। अच्छा अब तीसरी बात ये जानना चाहता हूं कि वहां देवीसिंह ने अपनी स्त्री को और मैंने अपनी स्त्री को देखा था, क्या वे दोनों वास्तव में हम दोनों की स्त्रियां थीं या कोई और?
नकाब - चम्पा के बारे में पूछने वाले तुम कौन हो हां, अपनी स्त्री के बारे में पूछ सकते हो, सो मैं साफ कह देता हूं कि वह बेशक तुम्हारी स्त्री 'रामदेई' थी।
यह जवाब सुनते ही भूतनाथ चौंका और उसके चेहरे पर क्रोध और ताज्जुब की निशानी दिखाई देने लगी। भूतनाथ को निश्चय था कि उसकी स्त्री का असली नाम 'रामदेई' किसी को मालूम नहीं है मगर इस समय एक अनजान आदमी के मुंह से उसका नाम सुनकर भूतनाथ को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और इस बात पर उसे क्रोध भी चढ़ आया कि मेरी स्त्री इन लोगों के पास क्यों आई, क्योंकि वह एक ऐसे स्थान पर थी जहां उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई जा नहीं सकता था, ऐसी अवस्था में निश्चय है कि वह अपनी खुशी से बाहर निकली और इन लोगों के पास आई। केवल इतना ही नहीं उसे इस बात के खयाल से और भी रंज हुआ कि मुलाकात होने पर भी उसकी स्त्री ने उससे अपने को छिपाया बल्कि एक तौर पर धोखा देकर बेवकूफ बनाया - आदि इसी तरह की बातों को परेशानी और रंज के साथ भूतनाथ सोचने लगा।
नकाब - अब जो कुछ पूछना था पूछ चुके या अभी कुछ बाकी है?
भूत - हां अभी कुछ और पूछना है।
नकाब - तो जल्दी से पूछते क्यों नहीं, सोचने क्या लग गये?
भूत - अब यह पूछना है कि मेरी स्त्री आप लोगों के पास कैसे आई और वह खुद आप लोगों के पास आई या उसके साथ जबर्दस्ती की गई?
नकाब - अब तुम दूसरी राह चले, इस बात का जवाब हम लोग नहीं दे सकते।
भूत - आखिर इसका जवाब देने में हर्ज ही क्या है?
नकाब - हो या न हो मगर हमारी खुशी भी तो कोई चीज है।
भूत - (क्रोध में आकर) ऐसी खुशी से काम नहीं चलेगा, आपको मेरी बातों का जवाब देना ही पड़ेगा।
नकाब - (हंसकर) मानो आप हम लोगों पर हुकूमत कर रहे हैं और जबर्दस्ती पूछ लेने का दावा रखते हैं?
भूत - क्यों नहीं, आखिर आप लोग इस समय मेरे कब्जे में हैं।
इतना सुनते ही नकाबपोश को भी क्रोध चढ़ आया और उसने तीखी आवाज में कहा, “इस भरोसे न रहना कि हम लोग तुम्हारे कब्जे में हैं, अगर अब तक नहीं समझते थे तो अब समझ रक्खो कि उस आदमी का तुम कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते जो अपने हाथों से तुम्हारे छिपे हुए ऐबों की तस्वीर बनाने वाला है। हां-हां, बेशक तुमने वह तस्वीर भी हमारे मकान में देखी होगी अगर सचमुच अपने लड़के हरनामसिंह को उस दिन देख लिया है तो।”
यह एक ऐसी बात थी जिसने भूतनाथ के होशहवास दुरुस्त कर दिये। अब तक जिस जोश और दिमाग के साथ वह बैठा बातें कर रहा था वह बिल्कुल जाता रहा और घबराहट तथा परेशानी ने उसे अपना शिकार बना लिया। वह उठकर खड़ा हो गया और बेचैनी के साथ इधर-उधर टहलने लगा। बड़ी मुश्किल से कुछ देर में उसने अपने को सम्हाला और तब नकाबपोश की तरफ देखकर पूछा, “क्या वह तस्वीर आपके हाथ की बनाई हुई थी?'
नकाब - बेशक!
भूत - तो आप ही ने उस आदमी को वह तस्वीर दी भी होगी जो मुझ पर उस तस्वीर की बाबत दावा करने के लिये कहता था।
नकाब - इस बात का जवाब नहीं दिया जायगा।
भूत - तो क्या आप मेरे उन भेदों को दरबार में खोला चाहते हैं?
नकाब - अभी तक तो ऐसा करने का इरादा नहीं था मगर अब जैसा मुनासिब समझा जायगा वैसा किया जायगा।
भूत - उन भेदों को आपके अतिरिक्त आपकी मण्डली में और भी कोई जानता है?
नकाब - इसका जवाब देना भी उचित नहीं जान पड़ता।
भूत - आप बड़ी जबर्दस्ती करते हैं!
नकाब - जबर्दस्ती करने वाले तो तुम थे मगर अब क्या हो गया?
भूत - (तेजी के साथ) मुमकिन है कि मैं अब भी जबर्दस्ती का बर्ताव करूं। कोई क्या जान सकता है कि तुम लोगों को कौन उठा ले गया?
नकाब - (हंसकर) ठीक है, तुम समझते हो कि यह बात किसी को मालूम न होगी कि हम लोगों को भूतनाथ उठा ले गया है।
भूत - (जोर देकर) ऐसा ही है, इसके विपरीत भी क्या कोई समझा सकता है?
इतने ही में थोड़ी दूर पर से यह आवाज आई, “हां समझा सकता है और विश्वास दिला सकता है कि यह बात छिपी हुई नहीं है।” अब तो भूतनाथ की कुछ विचित्र ही हालत हो गई। वह घबड़ाकर उस तरफ देखने लगा जिधर से आवाज आई थी और फुर्ती के साथ अपने आदमियों से बोला, “पकड़ो, जाने न पाये!”
भूतनाथ के आदमी तेजी के साथ उस बोलने वाले की खोज में दौड़ गये मगर नतीजा कुछ भी न निकला अर्थात् वह आदमी गिरफ्तार न हुआ और भागकर निकल गया। यह हाल देख दोनों नकाबपोशों ने खिलखिलाकर हंस दिया और कहा, “क्यों अब तुम अपनी क्या राय कायम करते हो?'
भूत - हां मुझे विश्वास हो गया कि आपका यहां रहना छिपा नहीं रहा अथवा हमारे पीछे आपका कोई आदमी यहां तक जरूर आया है। इसमें कोई शक नहीं कि आप लोग अपने काम में पक्के हैं, कच्चे नहीं मगर ऐयारी के फन में मैंने आपको दबा लिया।
नकाब - यह दूसरी बात है, तुम ऐयार हो और हम लोग ऐयारी नहीं जानते, इतना होने पर भी तुम हमारे लिए दिन-रात परेशान रहते हो और कुछ करते-धरते नहीं बन पड़ता। मगर भूतनाथ, हम तुमसे फिर भी यही कहते हैं कि हम लोगों के फेर में न पड़ो और कुछ दिन सब्र करो, फिर आपसे आप हम लोगों का हाल मालूम हो जायगा। ताज्जुब है कि तुम इतने बड़े ऐयार होकर जल्दबाजी के साथ ऐसी ओछी कार्रवाई करके खुदबखुद अपना काम बिगाड़ने की कोशिश करते हो! उस दिन दरबार में तुम देख चुके हो और जान भी चुके हो कि हम लोग तुम्हारी तरफदारी करते हैं, तुम्हारे ऐबों को छिपाते हैं, और तुम्हें एक विचित्र ढंग से माफी दिलाकर खास महाराज का कृपापात्र बनाया चाहते हैं, फिर क्या सबब है कि तुम हम लोगों का पीछा करके खामखाह हमारा क्रोध बढ़ा रहे हो?
भूत - (गुस्से को दबाकर नर्मी के साथ) नहीं-नहीं, आप इस बात का गुमान भी न कीजिये कि मैं आप लोगों को दुःख दिया चाहता हूं औ...।
नकाब - (बात काटके लापरवाही के साथ) दुःख देने की बात मैं नहीं कहता, क्योंकि तुम हम लोगों को दुःख दे ही नहीं सकते।
भूत - खैर न सही मगर मैं अपने दिल की बात कहता हूं कि किसी बुरे इरादे से मैं आप लोगों का पीछा नहीं करता क्योंकि मुझे इस बात का निश्चय हो चुका है कि आप लोग मेरे सहायक हैं। मगर क्या करूं अपनी स्त्री को आपके मकान में देखकर हैरान हूं और मेरे दिल के अन्दर तरह-तरह की बातें पैदा हो रही हैं। आज मैं इसी इरादे से आप लोगों को यहां ले आया था कि जिस तरह हो सके अपनी स्त्री का असल भेद मालूम कर लूं।
नकाब - जिस तरह हो सके के क्या मानी हम कह चुके हैं कि तुम हमें किसी तरह की तकलीफ नहीं पहुंचा सकते और न डरा-धमकाकर ही कुछ पूछ सकते हो क्योंकि हम लोग बड़े ही जबर्दस्त हैं।
भूत - अब इतनी ज्यादे शेखी न बघारिये, क्या आप ऐसे मजबूत हो गये कि हमारा हाथ कोई काम कर ही नहीं सकता!
नकाब - हमारे कहने का मतलब यह नहीं है बल्कि यह है कि ऐसा करने से तुम्हें कोई फायदा नहीं हो सकता, क्योंकि हमारे संगी-साथी सभी कोई तुम्हारे भेदों को जानते हैं मगर तुम्हें नुकसान पहुंचाना नहीं चाहते। हमारी ही तरफ ध्यान देकर देख लो कि तुम्हारे हाथों दुःखी होकर भी तुम्हें दुःख देना नहीं चाहते और जो कुछ तुम कर चुके हो उसे सहकर बैठे हैं।
भूत - हमने आपको क्या दुःख दिया है?
नकाब - अगर हम इस बात का जवाब देंगे तो तुम औरों को तो नहीं मगर हमें पहिचान जाओगे।
भूत - अगर आपको पहिचान भी जाऊंगा तो क्या हर्ज है मैं फिर प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूं कि जब तक आप स्वयं अपना भेद न खोलेंगे तब तक मैं अपने मुंह से कुछ भी किसी के सामने न कहूंगा, आप इसका निश्चय रखिये।
नकाब - (कुछ सोचकर) मगर हमारा जवाब सुनकर तुम्हें गुस्सा चढ़ आवेगा और ताज्जुब नहीं कि खंजर का वार कर बैठो।
भूत - नहीं-नहीं, कदापि नहीं, क्योंकि मुझे अब निश्चय हो गया कि आपका यहां आना छिपा नहीं है, अगर मैं आपके साथ कोई बुरा बर्ताव करूंगा तो किसी लायक न रहूंगा।
नकाब - हां ठीक है और बेशक बात भी ऐसी ही है। (फिर कुछ सोचकर) अच्छा तो अब तुम्हारी उस बात का जवाब देते हैं, सुनो और अपने कलेजे को अच्छी तरह सम्हालो।
भूत - कहिये मैं हर तरह से सुनने के लिये तैयार हूं।
नकाब - उस पीतल वाली सन्दूकड़ी में जिसके खुलने से तुम डरते हो, जो कुछ है वह हमारे ही शरीर का खून है, उसे तुम हमारे ही सामने से उठा ले गये थे और हमारा ही नाम 'दलीपशाह' है।
यह एक ऐसी बात थी कि जिसके सुनने की उम्मीद भूतनाथ को नहीं हो सकती थी और न भूतनाथ में इतनी ताकत थी कि ये बातें सुनकर भी अपने को सम्हाले रहता। उसका चेहरा एकदम जर्द पड़ गया, कलेजा भड़कने लगा, हाथ-पैर में कंपकंपी होने लगी, और वह सकते की-सी हालत में ताज्जुब के साथ नकाबपोश के चेहरे पर गौर करने लगा।
नकाब - तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास हुआ या नहीं?
भूत - नहीं तुम दलीपशाह कदापि नहीं हो सकते, यद्यपि मैंने दलीपशाह की सूरत नहीं देखी है मगर मैं उसके पहिचानने में गलती नहीं कर सकता और न इसी बात की उम्मीद हो सकती है कि दलीपशाह मुझे माफ कर देगा या मेरे साथ दोस्ती का बर्ताव करेगा।
नकाब - तो मुझे दलीपशाह होने के लिए कुछ और भी सबूत देना पड़ेगा। और उस भयानक रात की ओर इशारा करना पड़ेगा जिस रात को तुमने वह कार्रवाई की थी, जिस रात को घटाटोप अंधेरी छाई हुई थी, बादल गरज रहे थे, बार-बार बिजली चमककर औरतों के कलेजों को दहला रही थी, बल्कि उसी समय एक दफे बिजली तेजी के साथ चमककर पास ही वाले खजूर के पेड़ पर गिरी थी, और तुम स्याह कम्बल की धोंधी लगाये आम की बारी में घुसकर यकायक गायब हो गये थे! कहो कुछ और भी परिचय दूं या बस!
भूत - (कांपती हुई आवाज में) बस-बस, मैं ऐसी बातें सुना नहीं चाहता। (कुछ रुककर) मगर मेरा दिल यही कह रहा है कि तुम दलीपशाह नहीं हो।
नकाब - हां! तब तो मुझे कुछ और भी कहना पड़ेगा। जिस समय तुम घर के अन्दर घुसे थे तुम्हारे हाथ में स्याह कपड़े का एक बहुत बड़ा लिफाफा था। जब मैंने तुम पर खंजर का वार किया तब वह लिफाफा तुम्हारे हाथ से गिर पड़ा और मैंने उठा लिया जो अभी तक मेरे पास मौजूद है, अगर तुम चाहो तो मैं दिखा सकता हूं।
भूत - (जिसका बदन डर के मारे कांप रहा था) बस-बस-बस, मैं तुम्हें कह चुका हूं और फिर कहता हूं कि ऐसी बातें सुना नहीं चाहता और न इसके सुनने से मुझे विश्वास ही हो सकता है कि तुम दलीपशाह हो। मुझ पर दया करो और अपनी चलती-फिरती जुबान रोको!
नकाब - अगर विश्वास नहीं हो सकता तो मैं कुछ और भी कहूंगा और अगर तुम न सुनोगे तो अपने साथी को सुनाऊंगा। (अपने साथी नकाबपोश की तरफ देख के) मैं उस समय अपनी चारपाई के पास बैठा कुछ लिख रहा था जब यह भूतनाथ मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। कम्बल की धोंधी एक क्षण के लिए इसके आगे की तरफ से हट गई थी और इसके कपड़े पर पड़े खून के छींटे दिखाई दे रहे थे। यद्यपि मेरी तरह इसके चेहरे पर भी नकाब पड़ी हुई थी मगर मैं खूब समझता था कि यह भूतनाथ है। मैं उठ खड़ा हुआ और फुरती के साथ इसके चेहरे पर से नकाब हटाकर इसकी सूरत देख ली। उस समय इसके चेहरे पर भी खून के छींटे पड़े हुए दिखाई दिये। भूतनाथ ने मुझे डांटकर कहा कि 'तुम हट जाओ और मुझे अपना काम करने दो।' तब मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी कि यह मेरे पास क्यों आया है और क्या चाहता है। जब मैंने पूछा कि 'तुम क्या किया चाहते हो और मैं यहां से क्यों हट जाऊं' तब इसने मुझ पर खंजर का वार किया क्योंकि यह उस समय बिल्कुल पागल हो रहा था और मालूम होता था कि उस समय अपने-पराये को पहिचान नहीं सकता...।
भूत - (बात काटकर) ओफ, बस करो, वास्तव में उस समय मुझमें अपने-पराये को पहिचानने की ताकत न थी, मैं अपनी गरज में मतवाला और साथ ही इसके अन्धा भी हो रहा था!
नकाब - हां-हां, सो तो मैं खुद ही कह रहा हूं क्योंकि तुमने उस समय अपने प्यारे लड़के को कुछ भी नहीं पहिचाना और रुपये की लालच ने तुम्हें मायारानी के तिलिस्मी दारोगा का हुक्म मानने पर मजबूर किया। (अपने साथी नकाबपोश की तरफ देखकर) उस समय इसकी स्त्री अर्थात् कमला की मां इससे रंज होकर मेरे घर में आई और छिपी हुई थी और जिस चारपाई के पास मैं बैठा हुआ लिख रहा था उसी पर उसका छोटा बच्चा अर्थात् कमला का छोटा भाई सो रहा था। उसकी मां अन्दर के दालान में भोजन कर रही थी और उसके पास उसकी बहिन अर्थात् भूतनाथ की साली भी बैठी हुई अपने दुःख-दर्द की कहानी के साथ ही इसकी शिकायत भी कर रही थी, उसका छोटा बच्चा उसकी गोद में था, मगर भूतनाथ...।
भूत - (बात काटता हुआ) ओफ-ओफ! बस करो, मैं सुनना नहीं चाहता, तु तु तु तुम में...।
इतना कहता हुआ भूतनाथ पागलों की तरह इधर-उधर घूमने लगा और फिर एक चक्कर खाकर जमीन पर गिरने के साथ ही बेहोश हो गया।
भूतनाथ के बेहोश हो जाने पर दोनों नकाबपोशों ने भूतनाथ के साथियों में से एक को पानी लाने के लिए कहा और जब वह पानी ले आया तो उस नकाबपोश ने जिसने अपने को दलीपशाह बताया था अपने हाथ से भूतनाथ को होश में लाने का उद्योग किया। थोड़ी ही देर में भूतनाथ चैतन्य हो गया और नकाबपोश की तरफ देखकर बोला, “मुझसे बड़ी भारी भूल हुई जो आप दोनों को फंसाकर यहां ले आया! आज मेरी हिम्मत बिल्कुट टूट गई और मुझे निश्चय हो गया कि अब मेरी मुराद पूरी नहीं हो सकती और मुझे लाचार होकर अपनी जान दे देनी पड़ेगी।”
नकाब - नहीं-नहीं, भूतनाथ, तुम ऐसा मत सोचो, देखो हम कह चुके हैं और तुम्हें मालूम भी हो चुका है कि हम लोग तुम्हारे ऐबों को खोला नहीं चाहते बल्कि राजा वीरेन्द्रसिंह से तुम्हें माफी दिलाने का बन्दोबस्त कर रहे हैं। फिर तुम इस तरह हताश क्यों होते हो होश करो और अपने को सम्हालो।
भूत - ठीक है, मुझे इस बात की आशा हो चली थी कि मेरे ऐब छिपे रह जायेंगे और मैं इसका बन्दोबस्त भी कर चुका था कि वह पीतल वाली सन्दूकड़ी खोली न जाय मगर अब वह उम्मीद कायम नहीं रह सकती क्योंकि मैं अपने दुश्मन को अपने सामने मौजूद पाता हूं।
नकाब - बड़े ताज्जुब की बात है कि दरबार में हम लोगों की कैफियत देख-सुनकर भी तुम हमें अपना दुश्मन समझते हो! यदि तुम्हें मेरी बातों का विश्वास न हो तो मैं तुम्हें इजाजत देता हूं कि खुशी से मेरा सिर काटकर पूरी दिलजमई कर लो और अपना शक भी मिटा लो। तब तो तुम्हें अपने भेदों के खुलने का भय न रहेगा?
भूत - (ताज्जुब से नकाबपोश की सूरत देखकर) दलीपशाह, वास्तव में तुम बड़े ही दिलावर शेर-मर्द, रहमदिल और नेक आदमी हो। क्या सचमुच तुम मेरे कसूरों को माफ करते हो?
नकाब - हां-हां, मैं सच कहता हूं कि मैंने तुम्हारे कसूरों को माफ कर दिया बल्कि दो रईसों के सामने इस बात की कसम खा चुका हूं।
भूत - वे दोनों रईस कौन हैं?
नकाब - जिनके कब्जे में इस समय हम लोग हैं और जो नित्य महाराज साहब के दरबार में आया करते हैं।
भूत - क्या राजा साहब के दरबार में जाने वाले नकाबपोश कोई दूसरे हैं, आप नहीं, या उस दिन दरबार में आप नहीं थे जिस दिन आपकी सूरत देखकर जैपाल घबड़ाया था?
नकाब - हां बेशक वे नकाबपोश दूसरे हैं और समय-समय पर नकाब डालने के अतिरिक्त सूरतें भी बदलकर जाया करते हैं। उस दिन वे हमारी सूरत बनकर दरबार में गए थे।
भूत - वे दोनों कौन हैं?
नकाब - यही तो एक बात है जिसे हम लोग खोल नहीं सकते, मगर तुम घबड़ाते क्यों हो जिस दिन उनकी असली सूरत देखोगे खुश हो जाओगे, तुम ही नहीं बल्कि कुल दरबारियों को और महाराज साहब को भी खुशी होगी क्योंकि वे दोनों नकाबपोश कोई साधारण व्यक्ति नहीं।
भूत - मेरे इस भेद को वे दोनों जानते हैं या नहीं?
नकाब - फिर तुम उसी तरह की बातें पूछने लगे।
भूत - अच्छा अब न पूछूंगा मगर अंदाज से मालूम होता है कि जब आप उनके सामने भेद छिपाने की कसम खा चुके हैं तो वे इस भेद को जानते जरूर होंगे। खैर जब आप कहते ही हैं कि मेरा भेद छिपा रह जायगा तो मुझे घबड़ाना न चाहिए। मगर मैं फिर यही कहूंगा कि आप दलीपशाह नहीं हैं।
नकाब - (खिलखिलाकर हंसने के बाद) तब तो फिर मुझे कुछ और कहना पड़ेगा। वाह, तुम्हारी स्त्री बड़ी नेक थी, जो कुछ तुमने उसके सामने किया...?
भूत - (नकाबपोश के मुंह पर हाथ रखकर) बस-बस-बस, मैं कुछ भी सुना नहीं चाहता, यह कैसी माफी है कि आप अपनी जुबान नहीं रोकते!
इतने ही में पत्थरों की आड़ में से एक आदमी निकलकर बाहर आया और यह कहता हुआ भूतनाथ के सामने खड़ा हो गया, “तुम उन्हें भले ही रोक दो मगर मैं उन बातों की याद दिलाए बिना नहीं रह सकता!”
हम नहीं कह सकते कि इस नए आदमी को यहां आए कितनी देर हुई या यह कब से पत्थरों की आड़ में छिपा हुआ इन दोनों की बातें सुन रहा था, मगर भूतनाथ उसे यकायक अपने सामने देखकर चौंक पड़ा और घबड़ाहट तथा परेशानी के साथ उसकी सूरत देखने लगा। यह देख उस आदमी ने जान-बूझकर रोशनी के सामने अपनी सूरत कर दी जिससे पहिचानने के लिए भूतनाथ को तकलीफ न करनी पड़े। यह वही आदमी था जिसे भूतनाथ ने नकाबपोशों के मकान में सूराख के अंदर से झांककर देखा था और जिसने नकाबपोशों के सामने एक बड़ी-सी तस्वीर पेश करके कहा था कि 'कृपानाथ, बस मैं इसी का दावा भूतनाथ पर करूंगा।'
इस आदमी को देखकर भूतनाथ पहिले से भी ज्यादे घबड़ा गया। उसके बदन का खून बर्फ की तरह जम गया और उसमें हाथ-पैर हिलाने की ताकत बिल्कुल न रही। उस आदमी ने पुनः कड़ककर भूतनाथ से कहा, “ये नकाबपोश साहब तुम्हारी बात मानकर चाहे चुप रह जायं मगर मैं उन बातों को अच्छी तरह याद दिलाए बिना न रहूंगा जिन्हें सुनने की ताकत तुममें नहीं है। अगर तुम इनको दलीपशाह नहीं मानते तो मुझे दलीपशाह मानने में तुम्हें कोई उज्र भी न होगा।”
भूतनाथ यद्यपि आश्चर्यमय घटनाओं का शिकार हो रहा था और एक तौर पर खौफ, तरद्दुद, परेशानी और नाउम्मीदी ने उसे चारों तरफ से आकर घेर लिया था मगर फिर भी उसने कोशिश करके अपने होश-हवास दुरुस्त किये और उस नए आये दलीपशाह की तरफ देखकर कहा, “बहुत खासे! एक दलीपशाह ने तो परेशन ही कर रक्खा था अब आप दूसरे दलीपशाह भी आ पहुंचे! थोड़ी देर में कोई तीसरे दलीपशाह भी आ जायेंगे, फिर मैं काहे को किसी से दो बातें कर सकूंगा। (पुराने दलीपशाह की तरफ देखकर) अब बताइये दलीपशाह आप हैं या ये?'
पुराना दलीप - तुम इतने ही में घबड़ा गये! हमारे यहां जितने नकाबपोश हैं सभी अपना नाम दलीपशाह बताने के लिए तैयार होंगे, मगर तुम्हें अपनी अक्ल से पहिचानना चाहिए कि वास्तव में दलीपशाह कौन है।
भूत - इस कहने का मतलब तो यही है कि आप लोग सच नहीं बोलते?
पुराना दलीप - जो बातें हमने तुमसे कहीं क्या वे झूठ हैं?
नया दलीप - या मैं जो कुछ कहूंगा वह झूठ होगा! अच्छा सुनो मैं एक दिन का जिक्र करता हूं जब तुम ठीक दोपहर के समय उसी पीतल वाली सन्दूकड़ी को बगल में छिपाये रोहतासगढ़ की तरफ भागे जा रहे थे। जब तुम्हें प्यास लगी तब तुम एक ऊंचे जगत वाले कुएं पर पानी पीने के लिए ठहर गये जिस पर एक पुराने नीम के पेड़ की सुन्दर छाया पड़ रही थी। कुएं की जगत में नीचे की तरफ एक खुली कोठरी थी और उसमें एक मुसाफिर गर्मी की तकलीफ मिटाने की नीयत से लेटा हुआ तुम्हारे ही बारे में तरह-तरह की बातें सोच रहा था। तुम्हें उस आदमी के वहां मौजूद रहने का गुमान भी न था मगर उसने तुम्हें कुएं पर जाते हुए देख लिया, अस्तु वह इस फिक्र में पड़ गया कि तुम्हारी छोटी-सी गठरी में क्या चीज है, इसे मालूम करे और अगर उसमें कोई चीज उसके मतलब की हो तो उसे निकाल ले। उस समय उस आदमी की सूरत ऐसी न थी कि तुम उसे पहिचान सकते बल्कि वह ठीक एक देहाती पंडित की सूरत में था क्योंकि वह वास्तव में एक ऐयार था, अस्तु वह हाथ में लोटा लिये हुए कोठरी के बाहर निकला और उस ठिकाने गया जहां तुम कुएं में झुककर पानी खींच रहे थे। तुम्हें इस बात का गुमान भी न था कि वह तुम्हारे साथ दगा करेगा मगर उसने पीछे से तुम्हें ऐसा धक्का दिया कि तुम कुएं के अन्दर जा रहे और उसने तुम्हारे ऐयारी के बटुए पर कब्जा करके जो कुछ अन्दर था उसे अच्छी तरह देख और समझ लिया बल्कि कुछ ले भी लिया। क्या तुम्हें आज तक मालूम भी हुआ कि वह कौन था?
भूत - (ताज्जुब से) नहीं, मैं अभी तक न जान सका कि वह कौन था, मगर इन बातों के कहने से तुम्हारा मतलब ही क्या है?
नया दलीप - मतलब यही है कि तुम जान जाओ कि इस समय वह आदमी तुम्हारे सामने खड़ा है।
भूत - (क्रोध से खंजर निकालकर) क्या वह तुम ही थे?
नया दलीप - (खंजर का जवाब खंजर ही से देने के लिए तैयार होकर) बेशक मैं ही था और मैंने तुम्हारे बटुए में क्या - क्या देखा सो भी इस समय बयान करूंगा।
पहिला दलीप - (भूतनाथ को डपटकर) बस खबरदार, होश में आओ और अपनी करतूतों पर ध्यान दो। हमने पहिले ही कह दिया था कि तुम क्रोध में आकर अपने को बर्बाद कर दोगे। बेशक तुम बर्बाद हो जाओगे और कौड़ी काम के न रहोगे, साथ ही इसके यह भी समझ रखना कि तुम दलीपशाह का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते और न उसे तुम्हारे तिलिस्मी खंजर की परवाह है।
भूत - मैं आपसे किसी तरह तकरार नहीं करता मगर इसको सजा दिये बिना भी न रहूंगा क्योंकि इसने मेरे साथ दगा करके मुझे बड़ा नुकसान पहुंचाया है और यही वह शख्स है जो मुझ पर दावा करने वाला है, अस्तु हमारे-इसके बीच इसी जगह सफाई हो जाय तो बेहतर है।
पहिला दलीप - खैर जब तुम्हारी बदकिस्मती आ ही गई है तो हम कुछ नहीं कह सकते, तुम लड़के देख लो और जो कुछ बदा है भोगो, मगर साथ ही इसके यह भी सोच लो कि तुम्हारे तरह इसके और मेरे हाथ में भी तिलिस्मी खंजर है और इन खंजरों की चमक में तुम्हारे आदमी तुम्हें कुछ भी मदद नहीं पहुंचा सकते।
भूत - (कुछ सोचकर और रुकके) तो क्या आप इसकी मदद करेंगे?
पहिला दलीप - बेशक!
भूत - आप तो मेरे सहायक हैं?
पहिला दलीप - मगर इतने नहीं कि अपने साथियों को नुकसान पहुंचावें।
भूत - आखिर ये जब मुझे नुकसान पहुंचाने के लिए तैयार है तो क्या किया जाय?
पहिला दलीप - इनसे भी माफी की उम्मीद करो क्योंकि हम लोगों के सरदार तुम्हारे पक्षपाती हैं।
भूत - (खंजर म्यान में रखकर) अच्छा अब हम आपकी मेहरबानी पर भरोसा करते हैं, जो चाहे कीजिये।
पहिला दलीप - (नये दलीप से) आओ जी, तुम मेरे पास बैठ जाओ।
नया दलीप - मैं तो इससे लड़ता ही नहीं मुझे क्या कहते हो लो मैं तुम्हारे पास बैठ जाता हूं, मगर यह तो बताओ कि अब इसी भूतनाथ के कब्जे में पड़े रहोगे या यहां से चलोगे भी?
पहिला दलीप - (भूतनाथ से) कहो अब मेरे साथ क्या सलूक किया चाहते हो तुम्हें मुनासिब तो यही है कि हमें कैद करके दरबार में ले चलो।
भूत - नहीं मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है बल्कि आप मुझे माफी की उम्मीद दिलाइये तो मैं यहां से चला जाऊं।
पहिला दलीप - हां तुम माफी की उम्मीद कर सकते हो, मगर इस शर्त पर कि अब हम लोगों का पीछा न करोगे!
भूत - नहीं, अब ऐसा न करूंगा। चलिए मैं आपको आपके ठिकाने पहुंचा दूं।
नया दलीप - हमें अपना रास्ता मालूम है। किसी मदद की जरूरत नहीं।
इतना कहकर नया दलीपशाह उठ खड़ा हुआ और साथ ही वे दोनों नकाबपोश भी, जिन्हें भूतनाथ बेहोश करके लाया था, उठे और अपने मकान की तरफ चल पड़े।
महाराज सुरेन्द्रसिंह के दरबार में दोनों नकाबपोश दूसरे दिन नहीं आये बल्कि तीसरे दिन आये और आज्ञानुसार बैठ जाने पर अपनी गैरहाजिरी का सबब एक नकाबपोश ने इस तरह बयान किया –
“भैरोसिंह और तारासिंह को साथ लेकर यद्यपि हम लोग इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के पास गये थे मगर रास्ते में कई तरह की तकलीफ हो जाने के कारण जुकाम (सर्दी) और बुखार के शिकार बन गये, गले में दर्द और रेजिश के सबब साफ बोला नहीं जाता था बल्कि अभी तक आवाज साफ नहीं हुई, इसीलिए कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने जोर देकर हम लोगों को रोक लिया और दो दिन अपने पास से हटने न दिया, लाचार हम लोग हाजिर न हो सके, बल्कि उन्होंने एक चिट्ठी भी महाराज के नाम की दी है।”
यह कहके नकाबपोश ने एक चिट्ठी जेब से निकाली और उठकर महाराज के हाथ में दे दी। महाराज ने बड़ी प्रसन्नता से वह चिट्ठी जो खास इन्द्रजीतसिंह के हाथ की लिखी हुई थी पढ़ी और इसके बाद बारी-बारी से सभों के हाथ में वह चिट्ठी घूमी। उसमें यह लिखा हुआ था –
प्रमाण इत्यादि के बाद –
“आपके आशीर्वाद से हम लोग प्रसन्न हैं। दोनों ऐयारों के न होने से जो तकलीफ थी अब वह भी जाती रही। रामसिंह और लक्ष्मणसिंह ने हम लोगों की बड़ी मदद की इसमें कोई सन्देह नहीं। हम लोग तिलिस्म का बहुत ज्यादे काम खत्म कर चुके हैं। आशा है कि आज के तीसरे दिन हम दोनों भाई आपकी सेवा में उपस्थित होंगे और इसके बाद जो कुछ तिलिस्म का काम बचा हुआ है उसे आपकी सेवा में रहकर ही पूरा करेंगे। हम दोनों की इच्छा है कि तब तक आप कैदियों का मुकद्दमा भी बन्द रक्खें क्योंकि उसके देखने और सुनने के लिए हम दोनों बेचैन हो रहे हैं। उपस्थित होने पर हम दोनों अपना अनूठा हाल भी अर्ज करेंगे।”
इस चिट्ठी को पढ़कर और यह जानकर सभी प्रसन्न हुए कि अब कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह आया ही चाहते हैं। इसी तरह इस उपन्यास के प्रेमी पाठक भी जानकर प्रसन्न होंगे कि अब यह उपन्यास भी शीघ्र ही समाप्त हुआ चाहता है। अस्तु कुछ देर तक खुशी के चर्चे होते रहे और इसके बाद पुनः नकाबपोशों से बातचीत होने लगी –
एक नकाब - भूतनाथ लौटकर आया या नहीं?
तेज - ताज्जुब है कि अभी तक भूतनाथ नहीं आया। शायद आपके साथियों ने उसे...।
नकाबपोश - नहीं-नहीं, हमारे साथी लोग उसे दुःख नहीं देंगे, मुझे तो विश्वास था कि भूतनाथ आ गया होगा क्योंकि वे दोनों नकाबपोश लौटकर हमारे यहां पहुंच गये जिन्हें भूतनाथ गिरफ्तार करके ले गया था। मगर अब शक होता है कि भूतनाथ पुनः किसी फेर में तो नहीं पड़ गया या उसे पुनः हमारे किसी साथी को पकड़ने का शौक तो नहीं हुआ!
तेज - आपके साथी ने लौटकर अपना हाल तो कहा होगा?
नकाबपोश - जी हां, कुछ हाल कहा था जिससे मालूम हुआ कि उन दोनों को गिरफ्तार करके ले जाने पर भूतनाथ को पछताना पड़ा।
तेज - क्या आप बता सकते हैं कि क्या-क्या हुआ?
नकाब - बता सकते हैं मगर यह बात भूतनाथ को नापसन्द होगी क्योंकि भूतनाथ को उन लोगों ने उसके पुराने ऐबों को बताकर डरा दिया था और इसी सबब से वह उन नकाबपोशों का कुछ बिगाड़ न सका। हां हम लोग उन दोनों नकाबपोशों को अपने साथ यहां ले आये हैं, यह सोचकर कि भूतनाथ यहां आ गया होगा। अस्तु उनका मुकाबिला हुजूर के सामने करा दिया जायगा।
तेज - हां! वे दोनों नकाबपोश कहां हैं?
नकाबपोश - बाहर फाटक पर उन्हें छोड़ आया हूं, किसी को हुक्म दिया जाय बुला लावे।
इशारा पाते ही एक चोबदार उन्हें बुलाने के लिए चला गया, और उसी समय भूतनाथ भी दरबार में हाजिर होता दिखाई दिया। कौतुक की निगाह से सभों ने भूतनाथ को देखा। भूतनाथ ने सभों को सलाम किया और आज्ञानुसार देवीसिंह के बगल में बैठ गया।
जिस समय भूतनाथ इस इमारत की ड्योढ़ी पर आया था उसी समय उन दोनों नकाबपोशों को फाटक पर टहलता हुआ देखकर चौंक पड़ा था। यद्यपि उन दोनों के चेहरे नकाब से खाली न थे मगर फिर भी भूतनाथ ने उन्हें पहिचान लिया कि ये दोनों वही नकाबपोश हैं जिन्हें हम फंसा ले गये थे। अपने धड़कते कलेजे और परेशान दिमाग को लिये हुए भूतनाथ फाटक के अन्दर चला गया और दरबार में हाजिर होकर उसने दोनों सरदार नकाबपोशों को देखा।
एक नकाबपोश - कहो भूतनाथ, अच्छे तो हो?
भूत - हुजूर लोगों के इकबाल से जिन्दा हूं मगर दिन-रात इसी सोच में पड़ा रहता हूं कि प्रायश्चित करने या क्षमा मांगने से ईश्वर भी अपने भक्तों के पापों को क्षमा कर देता है परन्तु मनुष्यों में वह बात क्यों नहीं पाई जाती!
नकाब - जो लोग ईश्वर के भक्त हैं और जो निर्गुण और सगुण सर्वशक्तिमान जगदीश्वर का भरोसा रखते हैं वे जीवमात्र के साथ वैसा ही बर्ताव करते हैं जैसा ईश्वर चाहता है या जैसा कि हरिइच्छा समझी जाती है। अगर तुमने सच्चे दिल से परमात्मा से क्षमा मांग ली और अब तुम्हारी नीयत साफ है तो तुम्हें किसी तरह का दुःख नहीं मिल सकता, अगर कुछ मिलता है तो इसका कारण तुम्हारे चित्त का विकार है। तुम्हारे चित्त में अभी तक शान्ति नहीं हुई और तुम एकाग्र होकर उचित कार्यों की तरफ ध्यान नहीं देते इसीलिए तुम्हें सुख प्राप्त नहीं होता। अब हमारा कहना इतना ही है कि तुम शान्ति के स्वरूप बनो और ज्यादे खोज-बीन के फेर में न पड़ो। यदि तुम इस बात को मानोगे तो निःसन्देह अच्छे रहोगे और तुम्हें किसी तरह का कष्ट न होगा।
भूत - निःसन्देह आप उचित कहते हैं।
देवी - भूतनाथ, तुम्हें यह सुनकर प्रसन्न होना चाहिए कि दो ही तीन दिन में कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह आने वाले हैं!
भूत - (ताज्जुब से) यह कैसे मालूम हुआ!
देवी - उनकी चिट्ठी आई है।
भूत - कौन लाया है?
देवी - (नकाबपोशों की तरफ बताकर) ये ही लाये हैं।
भूत - क्या मैं उस चिट्ठी को देख सकता हूं?
देवी - अवश्य।
इतना कह देवीसिंह ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह की चिट्ठी भूतनाथ के हाथ में दे दी। भूतनाथ ने प्रसन्नता के साथ पढ़कर कहा, “अब सब बखेड़ा तै हो जायगा!”
जीत - (महाराज का इशारा पाकर भूतनाथ से) भूतनाथ, तुम्हें महाराज की तरफ से किसी तरह का खौफ न करना चाहिए, क्योंकि महाराज आज्ञा दे चुके हैं कि तुम्हारे ऐबों पर ध्यान न देंगे और देवीसिंह जिन्हें महाराज अपना अंग समझते हैं, तुम्हें अपने भाई के बराबर मानते हैं। अच्छा यह बताओ कि तुम्हारे लौट आने में इतना विलम्ब क्यों हुआ, क्योंकि जिन दो नकाबपोशों को गिरफ्तार करके ले गए थे उन्हें अपने घर लौटे दो दिन हो गए।
भूतनाथ कुछ जवाब देना ही चाहता था कि वे दोनों नकाबपोश भी हाजिर हुए जिन्हें बुलाने के लिए चोबदार गया था। जब वे दोनों सभों को सलाम करके आज्ञानुसार बैठ गये तब भूतनाथ ने जवाब दिया –
भूत - (दोनों नकाबपोशों की तरफ बताकर) जहां तक मैं खयाल करता हूं ये दोनों नकाबपोश वे ही हैं जिन्हें मैं गिरफ्तार करके ले गया था। (नकाबपोशों से) क्यों साहबो?
एक नकाबपोश - ठीक है मगर हम लोगों को ले जाकर तुमने क्या किया सो महाराज को मालूम नहीं है।
भूत - हम लोग एक साथ ही अपने-अपने स्थान की तरफ रवाना हुए थे, ये दोनों तो बेखटके अपने घर पहुंच गए होंगे मगर मैं एक विचित्र तमाशे के फेर में पड़ गया था।
जीत - वह क्या?
भूत - (कुछ संकोच के साथ) क्या कहूं कहते शर्म मालूम होती है!
देवी - ऐयारों को किसी घटना के कहने में शर्म न होनी चाहिए चाहे उन्हें अपनी दुर्गति का हाल ही क्यों न कहना पड़े, और यहां कोई गैर शख्स भी बैठा हुआ नहीं है। ये नकाबपोश साहब भी अपने हैं, तुम खुद देख चुके हो कि कुंअर इन्द्रजीतसिह ने इनके बारे में क्या लिखा है।
भूत - ठीक है मगर... खैर जो होगा देखा जायगा, मैं बयान करता हूं, सुनिये, इन नकाबपोशों को बिदा करने के बाद जिस समय मैं वहां से रवाना हुआ, रात आधी से कुछ ज्यादा जा चुकी थी। जब मैं 'पिपलिया' वाले जंगल में पहुंचा जो यहां से दो-ढाई कोस होगा, तो गाने की मधुर आवाज मेरे कानों में पड़ी और मैं ताज्जुब से चारों तरफ गौर करने लगा। मालूम हुआ कि दाहिनी तरफ से आवाज आ रही है अस्तु मैं रास्ता छोड़ धीरे-धीरे दाहिनी तरफ चला और गौर से उस आवाज को सुनने लगा। जैसे-जैसे आगे बढ़ता था आवाज साफ होती जाती थी और यह भी जान पड़ता था कि मैं इस आवाज से अपरिचित नहीं बल्कि कई दफे सुन चुका हूं, अस्तु उत्कण्ठा के साथ कदम बढ़ाकर चलने लगा। कुछ और आगे जाने के बाद मालूम हुआ कि दो औरतें मिलकर बारी-बारी से गा रही हैं जिनमें से एक की आवाज पहिचानी हुई है। जब उस ठिकाने पहुंच गया जहां से आवाज आ रही थी तो देखा कि बड़ के एक बड़े और पुराने पेड़ के ऊपर कई औरतें चढ़ी हुई हैं जिनमें दो औरतें गा रही हैं। वहां बहुत अन्धकार हो रहा था इसलिए इस बात का पता नहीं लग सकता था कि वे औरतें कौन, कैसी और किस रंग-ढंग की हैं तथा उनका पहिरावा कैसा है। मैं भले-बुरे का कुछ खयाल न करके उस पेड़ के नीचे चला गया और तिलिस्मी खंजर अपने हाथ में लेकर रोशनी के लिए उसका कब्जा दबाया। उसकी तेज रोशनी से चारों तरफ उजाला हो गया और पेड़ पर चढ़ी हुई वे औरतें साफ दिखाई देने लगीं। मैं उनके पहिचानने की कोशिश कर ही रहा था कि यकायक उस पेड़ के चारों तरफ चक्र की तरह आग भभक उठी और तुरत ही बुझ गई। जैसे किसी ने बारूद की तकीर में आग लगा दी हो और वह भक से उड़ जाने के बाद केवल धुआं ही धुआं रह जाय ठीक वैसा ही मालूम हुआ। आग बुझ जाने के साथ ही ऐसा जहरीला और कडुआ धुआं फैला कि मेरी तबियत घबड़ा गई और मैं समझ गया कि इसमें बेहोशी का असर जरूर है और मेरे साथ ऐयारी की गई। बहुत कोशिश की मगर मैं अपने को सम्हाल न सका और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा।
मैं नहीं कह सकता कि बेहोश होने के बाद मेरे साथ कैसा सलूक किया गया, हां, जब मैं होश में आया और मेरी आंखें खुलीं तो मैंने एक सुन्दर सजे हुए कमरे में अपने को हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर पाया। उस समय कमरे में रोशनी बखूबी हो रही थी और मेरे सामने साफ फर्श के ऊपर कई औरतें बैठी हुई थीं जिनमें मेरी औरत ऊंची गद्दी पर बैठी हुई उन सभों की सरदार मालूम पड़ती थी।