राजा सुरेन्द्रसिंह का दरबारे-खास लगा हुआ है। जीतसिंह, वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, गोपालसिंह और भैरोसिंह वगैरह अपने खास ऐयारों के अतिरिक्त कोई गैर आदमी यहां दिखाई नहीं देता। महाराज की आज्ञानुसार एक नकाबपोश ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल इस तरह कहना शुरू किया –
नकाब - जब तक राजा गोपालसिंह वहां रहे तब तक का हाल तो इन्होंने आपसे कहा ही होगा, अब मैं उसके बाद का हाल बयान करूंगा।
राजा गोपालसिंह से बिदा हो दोनों कुमार उसी बावली पर पहुंचे। जब राजा गोपालसिंह सभी को लिये हुए वहां से चले गये उस समय सबेरा हो चुका था, अतएव दोनों भाई जरूरी काम और प्रातः कृत्य से छुट्टी पाकर बावली के अन्दर उतरे। निचली सीढ़ी पर पहुंचकर आनन्दसिंह ने अपने कुछ कपड़े उतार दिए और केवल लंगोट पहिरे हुए जल के अन्दर कूदकर बीचोंबीच में जा गोता लगाया। वहां जल के अन्दर एक छोटा-सा चबूतरा था और उस चबूतरे के बीचोंबीच में लोहे की मोटी कड़ी लगी हुई थी। जल में जाकर उसी को आनन्दसिंह ने उखाड़ लिया और इसके बाद जल के बाहर चले आये। बदन पोंछकर कपड़े पहिर लिए, लंगोट सूखने के लिए फैला दिया और दोनों भाई सीढ़ी पर बैठकर जल के सूखने का इन्तजार करने लगे।
जिस समय आनन्दसिंह ने जल में जाकर वह लोहे की कड़ी निकाल ली उसी समय से बावली का जल तेजी के साथ घटने लगा, यहां तक कि दो घण्टे के अन्दर ही बावली खाली हो गई और सिवाय कीचड़ के उसमें कुछ भी न रहा और वह कीचड़ भी मालूम होता था कि बहुत जल्द सूख जायगा क्योंकि नीचे की जमीन पक्की और संगीन बनी हुई थी, केवल नाममात्र को मिट्टी या कीचड़ का हिस्सा उस पर था। इसके अतिरिक्त किसी सुरंग या नाली की राह निकल जाते हुए पानी ने भी बहुत कुछ सफाई कर दी थी।
बावली के नीचे वाली चारों तरफ की अन्तिम सीढ़ी लगभग तीन हाथ के ऊंची थी और उसी दीवार में चारों तरफ दरवाजों के निशान बने हुए थे जिसमें से पूरब तरफ वाले निशान को दोनों कुमारों ने तिलिस्मी खंजर से साफ किया। जब उसके आगे वाले पत्थरों को उखाड़कर अलग किया तो अन्दर जाने के लिए रास्ता दिखाई दिया जिसके विषय में कह सकते हैं कि वह एक सुरंग का मुहारा था और उस ढंग से बन्द किया गया था जैसा कि ऊपर बयान कर चुके हैं।
इसी सुरंग के अन्दर कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को जाना था मगर पहर भर तक उन्होंने इस खयाल से उसके अन्दर जाना मौकूफ रक्खा था कि उसके अन्दर से पुरानी हवा निकलकर ताजी हवा भर जाय क्योंकि यह बात उन्हें पहिले ही से मालूम थी कि दरवाजा खुलने के बाद थोड़ी ही देर में उसके अन्दर की हवा साफ हो जायगी।
पहर भर दिन बाकी था जब दोनों कुमार उस सुरंग के अन्दर घुसे और तिलिस्मी खंजर की रोशनी करते हुए आधे घंटे तक बराबर चले गये। सुरंग में कई जगह ऐसे सूराख बने हुए थे जिनमें से रोशनी तो नहीं मगर हवा तेजी के साथ आ रही थी और यही सबब था कि उसके अन्दर की हवा थोड़ी देर में साफ हो गई।
आप सुन चुके होंगे कि तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में (जहां के देवमन्दिर में दोनों कुमार कई दिन तक रह चुके हैं) देवमन्दिर के अतिरिक्त चारों तरफ चार मकान बने हुए थे1 और उनमें से उत्तर तरफ वाला मकान गोलाकार स्याह पत्थर का बना हुआ तथा उसके चारों तरफ चर्खियां और तरह-तरह के कल-पुर्जे लगे हुए थे। उस सुरंग का दूसरा मुहाना उसी मकान के अन्दर था और इसीलिए सुरंग के बाहर होकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने अपने को उसी मकान में पाया। इस मकान में चारों तरफ गोलाकार दालान के अतिरिक्त कोई कोठरी या कमरा न था। बीच में एक संगमर्मर का चबूतरा था और उस पर स्याह रंग का एक मोटा आदमी बैठा हुआ था जो जांच करने पर मालूम हुआ कि लोहे का है। उसी आदमी के सामने की तरफ के दालान में सुरंग का वह मुहाना था जिसमें दोनों कुमार निकले थे। उस सुरंग के बगल में एक और सुरंग थी और उसके अन्दर उतरने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थीं। चारों तरफ देख-भाल करने के बाद दोनों कुमार उसी सुरंग में उतर गये और आठ-दस सीढ़ी नीचे उतर जाने के बाद देखा कि सुरंग खुलासी तथा दूर तक चली गई है। लगभग सौ कदम तक दोनों कुमार बेखटके चले गये और इसके बाद एक छोटे-से बाग में पहुंचे जिसमें खूबसूरत पेड़-पत्तों का तो कहीं नामनिशान भी न था हां जंगली बेर, मकोय तथा केले के पेड़ों की कमी न थी। दोनों कुमार सोचे हुए थे कि यहां भी और जगहों की तरह हम सन्नाटा पाएंगे अर्थात् किसी आदमी की सूरत दिखाई न देगी मगर ऐसा न था। वहां कई आदमियों को इधर-उधर घूमते देख दोनों कुमार को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वे गौर से आदमियों की तरफ देखने लगे जो बिल्कुल जंगली और भयानक मालूम पड़ते थे।
वे आदमी गिनती में पांच थे और उन लोगों ने भी दोनों कुमारों को देखकर उतना ही ताज्जुब किया जितना कुमारों ने उनको देखकर। वे लोग इकट्ठे होकर कुमार के पास चले आये और उनमें से एक ने आगे बढ़कर कुमार से पूछा, “क्या आप दोनों के साथ भी वही सलूक किया गया जो हम लोगों के साथ किया गया था मगर ताज्जुब है कि आपके कपड़े और हर्बे छीने नहीं गए और आप लोगों के चेहरे पर भी किसी तरह का रंज मालूम नहीं पड़ता!”
इन्द्र - तुम लोगों के साथ क्या सलूक किया गया था और तुम लोग कौन हो?
आदमी - हम लोग कौन हैं इसका जवाब देना सहज नहीं है और न आप थोड़ी देर में इसका जवाब सुन ही सकते हैं मगर आप अपने बारे में सहज में बता सकते हैं कि किस कसूर पर यहां पहुंचाए गए।
इन्द्र - हम दोनों भाई तिलिस्म को तोड़ते और कई कैदियों को छुड़ाते हुए अपनी खुशी से यहां तक आए हैं और अगर तुम लोग कैदी हो तो समझ रक्खो कि अब इस कैद की अवधि पूरी हो गई और बहुत जल्द अपने को स्वतन्त्र विचरते हुए देखोगे।
आदमी - हमें कैसे विश्वास हो कि जो कुछ आप कह रहे हैं वह सच है?
इन्द्र - अभी नहीं तो थोड़ी देर में स्वयं विश्वास हो जायगा।
इतना कहकर कुमार आगे की तरफ बढ़े और वे लोग उन्हें घेरे हुए साथ-साथ जाने लगे। इन्द्रजीतसिंह व आनन्दसिंह को विश्वास हो गया कि सर्यू की तरह ये लोग भी इस तिलिस्म में कैद किये गए हैं और दारोगा या मायारानी ने इनके साथ यह सलूक किया है, और वास्तव में बात भी ऐसी ही थी।
इन आदमियों की उम्र यद्यपि बहुत ज्यादे न थी मगर रंज-गम और तकलीफ की बदौलत सूखकर कांटा हो गए थे। सिर और दाढ़ी के बालों ने बढ़ और उलझकर उनकी सूरत डरावनी कर दी थी और चेहरे की जर्दी तथा गढ़हे में घुसी हुई आंखें उनकी बुरी अवस्था का परिचय दे रही थीं।
इस बाग में पानी का एक चश्मा था और वही इन कैदियों की जिन्दगी का सहारा था मगर इस बात का पता नहीं लग सकता था कि पानी कहां से आता है और निकलकर कहां चला जाता है। इसी नहर की बदौलत यहां की जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा तर हो रहा था और इस सबब से उन कैदियों को केला वगैरह खाकर अपनी जान बचाये रहने का मौका मिलता था।
बाग के बीचोंबीच में बीस या पचीस हाथ ऊंचा एक बुर्ज था और उस बुर्ज के चारों तरफ स्याह पत्थर का कमरे बराबर ऊंचा चबूतरा बना हुआ था, मगर इस बात का पता नहीं लगता था कि इस बुर्ज पर चढ़ने के लिए कोई रास्ता भी है या नहीं, या अगर है तो कहां से है। दोनों कुमार उस चबूतरे पर बेधड़क जाकर बैठ गए और तब इन्द्रजीतसिंह ने उन कैदियों की तरफ देखके कहा, “कहो अब तुम्हें विश्वास हुआ कि जो कुछ हमने कहा सच है?'
आदमी - जी हां, अब हम लोगों को विश्वास हो गया, क्योंकि हम लोगों ने इस चबूतरे को कई दफे आजमाकर देख लिया है। इस पर बैठना तो दूर रहा हम इसे छूने के साथ ही बेहोश हो जाते थे मगर ताज्जुब है कि आप पर इसका असर कुछ भी नहीं होता।
इन्द्र - इस समय तुम लोग भी चबूतरे पर बैठ सकते हो जब तक हम बैठे हैं।
आदमी - (चबूतरा छूने की नीयत से बढ़ता हुआ) क्या ऐसा हो सकता है!
इन्द्र - आजमाके देख लो।
उस आदमी ने चबूतरा छूआ मगर उस पर कुछ बुरा असर न हुआ और तब कुमार की आज्ञा पा वह चबूतरे पर बैठ गया। उसकी देखा-देखी सभी आदमी उस चबूतरे पर बैठ गये और जब किसी तरह का बुरा असर होते न देखा तब हाथ जोड़कर कुमार से बोले, “अब हम लोगों को आपकी बात में किसी तरह का शक न रहा, आशा है कि आप कृपा करके अपना परिचय देंगे।”
जब कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने अपना परिचय दिया तब सबके सब उनके पैरों पर गिर पड़े और डबडबाई आंखों से उनकी तरफ देखके बोले, “दोहाई है महाराज की, हमारे मामले पर विचार होकर दुष्टों को दण्ड मिलना चाहिए।”
इतना कहकर नकाबपोश चुप हो गया और कुछ सोचने लगा। इसी समय वीरेन्द्रसिंह ने उससे कहा, “मालूम होता है कि उस चबूतरे में बिजली का असर था और इस सबब से उसे कोई छू नहीं सकता था, मगर दोनों लड़कों के पास बिजली वाला तिलिस्मी खंजर मौजूद था और उसके जोड़ की अंगूठी भी, इसलिए तब तक के लिए उसका असर जाता रहा जब तक दोनों लड़के उस पर बैठे रहे।”
नकाब - (हाथ जोड़कर) जी बेशक यही बात है।
बीरेन्द्र - अच्छ तब क्या हुआ।
नकाब - इसके बाद कुमार ने उन सभों का हाल पूछा और उन सभों ने रो-रोकर अपना हाल बयान किया।
बीरेन्द्र - उन लोगों ने अपना हाल क्या कहा?
नकाब - मैं यही सोच रहा था कि उन लोगों ने जो कुछ अपना हाल बयान किया वह मैं इस समय कहूं या न कहूं।
तेज - क्या उन लोगों का हाल कहने में कोई हर्ज है आखिर हम लोगों को मालूम तो होगा ही।
नकाब - जरूर मालूम होगा और मेरी ही जुबानी मालूम होगा, मैं जो कहने से रुकता हूं वह केवल एक ही दो दिन के लिए, हमेशा के लिए नहीं।
तेज - अगर यही बात है तो हमें दो-एक दिन के लिए कोई जल्दी भी नहीं।
नकाब - (हाथ जोड़कर) अस्तु अब आज्ञा हो तो हम लोग डेरे पर जायं। कल पुनः सभा में उपस्थित होकर यदि देवीसिंह और भूतनाथ न आए तो कुमार का हाल सुनावेंगे।
सुरेन्द्र - (इशारे से जाने की आज्ञा देकर) तुम दोनों ने इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल सुनाकर अपने विषय में हम लोगों का आश्चर्य और भी बढ़ा दिया।
दोनों नकाबपोश उठ खड़े हुए और अदब के साथ सलाम करके वहां से रवाना हुए।