मायारानी ने जब समझा कि वे फौजी सिपाही इस बाग के बाहर हो गये और गोपालसिंह को भी वहां न देखा तब हिम्मत करके अपने ठिकाने से निकली और पुनः बाग में आकर उस तरफ रवाना हुई जिधर उस गोपालसिंह को बेहोश छोड़ आई थी जो उसके चलाए हुए तिलिस्मी तमंचे की गोली के असर से बेहोश होकर बरामदे के नीचे आ रहा था, मगर वहां पहुंचने के पहिले ही उसने उस दूसरे कुएं के ऊपर एक गोपालसिंह को देखा जिसे फौजी सिपाहियों ने मिट्टी से पाट दिया था। मायारानी एक पेड़ की आड़ में खड़ी हो गई और उसी जगह से तिलिस्मी तमंचे वाली एक गोली इस गोपालसिंह पर चलाई, गोली लगाते ही गोपालसिंह लुढ़ककर जमीन पर आ रहा और मायारानी दौड़ती हुई उसके पास जा पहुंची। थोड़ी देर तक तो उसकी सूरत देखती रही, इसके बाद कमर से खंजर निकालकर गोपालसिंह का सिर काट डाला और तब खुशी-भरी निगाहों से चारों तरफ देखने लगी, यद्यपि उसे पूरा विश्वास न था कि मैंने असली गोपालसिंह को मार डाला है।
यद्यपि दिन बहुत चढ़ चुका था मगर अभी तक उसे जरूरी कामों से निपटने या कुछ खाने-पीने की परवाह न थी या यों कहिए कि उसे इन बातों की मोहलत ही नहीं मिल सकी थी। गोपालसिंह की लाश को उसी जगह छोड़कर वह बाग के तीसरे दर्जे में जाने की नीयत से अपने दीवानखाने में आई और उसी मालूमी राह से बाग के तीसरे दर्जे में चली गई जिस राह से एक दिन तेजसिंह वहां पहुंचाये गये थे।
वहां भी उसने दूर ही से नम्बर दो वाली कोठरी के दरवाजे पर एक गोपालसिंह को बैठे बल्कि कुछ करते हुए देखा। मायारानी ताज्जुब में आकर थोड़ी देर तक तो उस गोपालसिंह को देखती रही, इसके बाद उसे भी उसी तिलिस्मी तमंचे वाली गोली का निशाना बनाया। जब वह भी बेहोश होकर जमीन पर लेट गया तब मायारानी ने वहां पहुंचकर उसका भी सिर काट डाला और एक लम्बी सांस लेकर आप ही आप बोली, “क्या अब भी असली गोपालसिंह न मरा होगा! मगर अफसोस, उस एक गोपालसिंह पर तो ऐसी गोली ने कुछ भी असर न किया था। कदाचित् असली गोपालसिंह वही हो!”
इसके जवाब में किसी ने कोठरी के अन्दर से कहा, “हां, असली गोपालसिंह यह भी न था और असली गोपालसिंह अभी तक नहीं मरा!”
इस बात ने मायारानी का कलेजा दहला दिया और वह कांपती हुई ताज्जुब के साथ कोठरी के अन्दर देखने लगी।
अकस्मात् कोठरी के अन्दर से निकलते हुए नानक पर मायारानी की निगाह पड़ी। नानक को देखते ही मायारानी का पुराना क्रोध (जो नानक के बारे में था) पुनः उसके चेहरे पर दिखाई देने लगा। वह कुछ देर तक तो नानक को देखती रही और इसके बाद उसे तिलिस्मी गोली का निशाना बनाना चाहा मगर नानक मायारानी की अवस्था देखकर हंस पड़ा और बोला, “क्या अब भी आप मुझे अपना पक्षपाती नहीं समझतीं?'
माया - क्यों तूने कौन-सा ऐसा काम किया है जिससे मैं तुझे अपना पक्षपाती समझूं?
नानक - क्या आपको इस बात की खबर न लगी होगी कि राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके खानदान तथा ऐयारों से मेरी गहरी दुश्मनी हो गई मेरा बाप गिरफ्तार करके दोषी ठहराया गया, वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने उसे बहुत तंग किया और इसी के साथ ही साथ मेरी भी बहुत बड़ी बेइज्जती की। मेरा बाप अपने बचाव की फिक्र कर रहा है और मैं उन सभों से बदला लेने का बन्दोबस्त कर रहा हूं। इस समय मैं इसलिए यहां आया हूं कि आप मेरी सहायता करें और मैं आपका साथ दूं।
माया - यदि तेरा कहना वास्तव में सच है तो बड़ी खुशी की बात है।
नानक - जो कुछ मैं कह रहा हूं उसके सच होने में किसी तरह का सन्देह न कीजिए। मैं उन लोगों की बुराई में जान तक खर्च करने का संकल्प कर चुका हूं।
माया - यदि तू पहिले ही मेरी बात मान चुका होता तो आज मुझे और तुझे दोनों ही को यह दिन देखना नसीब न होता। खैर आज भी अगर तू राह पर आ जाय तो हम लोग मिल-जुलकर बहुत कुछ कर सकते हैं।
नानक - उन दिनों मुझे हरी-हरी सूझती थी और उस दरबार से बहुत कुछ पाने की आशा थी मगर इस बात की खबर न थी कि उनके ऐयार अपनी मण्डली के सिवाय किसी नये या दूसरे ऐयार को अपने दरबार में देखना पसन्द नहीं करते। मुझे कमलिनी ने जितनी उम्मीदें दिलाई थीं उनका एक अंश भी पूरा न निकला, उल्टे मेरा बाप दोषी ठहराया गया।
माया - भूतनाथ पर जो कुछ इल्जाम लगाया गया है मुझे उसकी पूरी-पूरी खबर लग चुकी है। अब भूतनाथ बिना मेरी मदद के किसी तरह अपनी जान नहीं बचा सकता और न वह बलभद्रसिंह का ही पता लगा सकता है। सच तो यों है कि भूतनाथ ने मुझे भी बड़ा धोखा दिया।
नानक - उन दिनों जो कुछ उन्होंने किया सो किया क्योंकि कमलिनी की दिलाई हुई उम्मीदों ने उन्हें भी अन्धा कर दिया था, मगर अब तो उन्हें कमलिनी से भी दुश्मनी हो गयी है, और मैं भी यह सुनकर कि कमलिनी वगैरह को राजा गोपालसिंह ने इसी बाग में लाकर रक्खा है उससे बदला लेने का खयाल करके यहां आया हूं।
माया - यहां का रास्ता तुझे किसने बताया?
नानक - यहां के बहुत-से रास्तों का हाल कमलिनी ने ही मुझे बताया था, मैं एक दफे यहां पहिले भी आ चुका हूं।
माया - कब?
नानक - जब तेजसिंह को आपने कैद किया था और जब चंडूल ने आकर आप लोगों को छकाया था।
माया - (उन बातों की याद से कांपकर) तब तो तुम्हें मालूम होगा कि वह चण्डूल कौन था।
नानक - वह कमलिनी थी और मैं उसके साथ था।
माया - (कुछ सोचकर) हां... ठीक है। पर... तब तो तुम्हें... अच्छा... अच्छा तुम मेरे पास आओ। पहिले मैं निश्चय कर लूं कि तुम ईमानदारी से साथ देने के लिए तैयार हो या सब बातें धोखा देने के लिए कह रहे हो, इसके बाद अगर तुम सच्चे निकले तो हम दोनों आदमी मिलकर बहुत बड़ा काम कर सकेंगे और तुम्हें भी बहुत-सी... खैर तुम इधर आओ और मेरे साथ एकान्त में चलो।
नानक - (मायारानी के पास आकर) और यहां तीसरा कौन है जो हम लोगों की बातें सुनेगा!
माया - चाहे न हो मगर शक तो है।
मायारानी नानक को लिए दूसरी तरफ चली गई।