इस जौहर के बाद जब किले पर जलाने को कोई नकली नहीं रही माशय बची दासिया क्या करती । कैसे अपना उत्सर्ग देती । तब यह तय किया गया कि दमन के हाथों पड़ने की बजाय दासियां आपस मे एक दुसरी के कटार ओंककर अपने आप का बलिदान कर दे । ऐसी स्थिति में सभी दासियां अपने हाथों में कटार लिये जोहर कुह के ऊपर की ओर के मैदान में एकत्र हुई और आपस में कटार खाकर वीर मौत मगै । समुत्र में यह जौहर अग्नि जौहर से भी अधिक साहस भरा अजूबा था जिसमें दासियों की लाशों पर लाशे इतनी हो गई कि पूरी मगरी बन गई। एक ऐसी मगरी जिसके सामने अकबर की मोहर मगरी भी फीकी लगने लगी। जौहर के बाद जब अकबर ने किले पर आकर यह दृश्य देखा तो राजपूति नारियों की आन बान और प्रण प्राण पर चकित रह गय।

अपनी मातृभूमि के प्रति सर्वस्व समर्पण कर देने वाली नारियों और नररत्नों विभिन्न भूमि को पाकर उसे विजयश्री हासिल करने का कोई गर्व नहीं हुआ अपितु पश्चाताप और प्रायश्चित से उसका मन सतप्त हो उठा। पत्ता महल. चित्तौड के सारे महल देख जाइये - कुभा महल, रतनसिंह महल, मीग महल, भोजराज महल, पद्मिनी महल। इन सबसे अलग-थलग पत्ता महल लगेगा। एक तो यह महल इतना साफ सुथरा है कि जैसे प्रति क्षण कोई इसे बुहार रहा हो। दूसरे शहर होने पर भी पत्थर का एक टुकडा वहा नहीं मिलेगा। न कोई बांकी टेढी, नहीं धंसी दीवाले मिलेंगी। तब का रंग आज भी अपना गाढापन लिये दिखाई देगा। कल्लाजी ने बताया कि आज भी पत्ताजी यहां विराजमान है, इसीलिये यहा काच की तरह साफ सफाई है। सारा महल बडे करीने से सुथराया हुआ है। भीतर महल में धुसते ही एक ओर भैरूजी का स्थान है तो दूसरी ओर स्वयं पत्ताजी विराजमान है। दोनों आमने-सामने।

भैरूजी पत्ताजी के इष्ट देव थे। पत्ताजी का स्थान स्वय पत्ताजी ने अपनी मृत्यु के बाद थरपित कराया। बीच का महल पूरा का पूरा गिरा हुआ नहीं होकर उतारा हुआ है। पत्ताजी नहीं चाहते थे कि उनकी मृत्यु के बाद उनके महल में कोई चढे। इसलिये उन्होंने स्वय ने मरने के बाद उस पूरी मंजिल को ही उतार लिया। केवल एक तरफ का हिस्सा रहने दिया जो सड़क से दिखाई देता है। इसी में उनका निवास बना हआ है| तन्नानाला और यह अद्भुत आश्चर्य ही रहा कि इधर मैं भैरूजी का चित्र लेने की तैयारी कर रहा था कि उधर पनानी के बहा से सुधाजी ने आवाज दी कि सब काम छोड पहले जल्दी से इधर आओ में तत्काल टोडा भागा वहां पहुचा । देखता है कि एक पूरा मालपुए का भरा दोना यहा रखा हुआ। हे कल्लाजी ने वह प्रसाद हमें दिया और कहा -

'पत्ताजी स्वयं ने इसे भिजवाया है। आज हरियाली अमावस्या है। धर-धर में मालपुए बनते है|”

तो हम लोग उससे कैसे वचित रह जाये। यहीं हमने खजाना गृह देखा जहा धन-दौलत रखी रहती थी। ऐसे खजाने के गुप्तद्वार तो यहा हर महल हवेली के साथ रहे हैं। यह अलग बात है कि उसे साधारण व्यक्ति नहीं देख जान पड़ता है। कोई आश्चर्य नहीं, अब भी कई जगह के खजाने यो के या भर पद हो। इसी महल में हमने दासियों के भग्न निवास देखे। एक दासी तो ऐसी थी जिसने जीतजी कई बार राजरिवार के आभूषण चुराये, पर मुख्यदासी होने के कारण वह स्वय तो कभी अपराधी नही बन सकी लेकिन जिस दासी पर उसकी निगाह टेढ़ी होती उसकी म्वृद्ध पिटाई करवाती। जबरन ऐसी पिटाई देख वह बड़ी राजी होती। बहुत सारा धन पन्चत्र कर भी यह टासी जब मरी तो सारा धन अपने निवास में गढा हुआ ही छोड़ गई।

एक, खजाना तो हमने ऐसा देखा जिसे पत्ताजी ने अपनी मृत्यु के बाद किसी को स्वप्न दे बख्शीश किया। इसे खोदकर वह सारा धन ले गया और किसी को उसका अता-पता नहीं लगा। ये दासिया बडी चालाक, धूर्त और मक्कार भी होती थीं।

अपने स्वामी की जितनी दिखावटी वफादार होनी, उतनी ही धोखेबाज भी। इसीलिए इन दासियो को गोली कहा जाता। कभी-कभी ये महाराणा को खूब मदमस्त कर उनके साथ सो तक जाती। जयमलजी की हवेली: पत्ता महल के पीछे जयमलजी की हवेली है। इस हवेली के सभी कमरे बडे है तथा हर कमरे में जगह-जगह तिधारी बारिया है जिनसे अगलबगल तथा सामने तीनो ओर से चित्तौड़ के आसपास तथा दूर-दूर तक दुश्मनो का पता लगाया जाता। जयमलजी बडे युद्ध वीर थे।

इनमें १० हाथियों जितना बल था। तब चित्तौड का सारा युद्ध इन्हीं के जिम्मे था चौबीस ही घड़ी खड़े खड़े ये अपनी हवेली जगन्या भाग्न से दुश्मन का पता लगाते और तदनुसार सैनिकों को युद्ध के आदेश निदेन।

होली देखने से इस सारी व्यूह रचना का पता चल जाता है। वे जयमलजी ही थे जो एक रात लाखोटिया बारी की दीवाल की मरम्मत मता रहे थे कि धोखे से अकबर ने अपनी सग्राम नामक बदृक का उन्हें निशाना बना लिया। गोली जयमलजी के पाव में लगी तब वे वहा से थोड़ी ही दूर, चट्टान पर सुला दियं गये। उस चट्टान पर जो खून बहा वह आज भी वहा जमा हुआ है। उस विशाल चट्टान से पता लगता है कि जयमलजी कितने मोटे ताजे एवं महाबली थे जिस स्थान पर जयमलजी मिरे वहा उनकी यादगार में एक छतरी बनवाई गई।

जयमल ओर पत्ता दोनों की लाशें दुश्मनो के हाथ पड गई जो उन्हें आगरा ले गये। वहां ले जाकर फतहपुर सीकरी के बुलंद दरवाजे के पास गाड दी गई।

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