शासन एक लिप्सा भी है और शासन ईश्वरीय इच्छा से अन्याय, शोषण, कुपोषण, अधर्म और बुराइयों को वैयक्तिक और राष्ट्रीय जीवन से उपेक्षित करने तथा न्याय, विधि, व्यवस्था धर्म के चराचर मूल्यों की सुदृढ़ स्थापना के उद्देश्यों की प्राप्ति का एक पवित्र साधन भी है। शासन, जब निरपेक्ष, तटस्थ ईश्वरीय प्रेरणा की अनुभूति में स्वीकार किया जाता है, तब यह एक आत्मीय भजन बनकर समय के आन्दोलनों को सुसंस्कृत करता है। 'भारत के जनप्रिय सम्राट' में पुरूरवा से छत्रसाल तक के जनप्रिय राजाओं के कार्यक्रमों को एक सूक्ष्म दृष्टि से देखा गया है। सारे सम्राटों का आकलन करने से पता चल ही जाता है-ये जनप्रिय क्यों रहे? ये अप्रिय क्यों नहीं हुए? साहित्य, कला, संस्कृति, धर्म, सेवा, उद्योग-कला-कौशल, धर्म, सेवा, शौर्य के गुणों का संगठन जिस सम्राट ने जीवन में किया, वह जनप्रिय हुआ और जिसने शासन को अपनी कुप्रवृत्तियों, अहं और वासना की पूर्ति का संसाधन बनाया, वह विनष्ट हो गया। दूसरे शब्दों में आत्मशक्ति से जिस राजा ने इन्द्रियों पर शासन किया, वह जनप्रिय बना और जिस राजा ने इन्द्रियों को स्वच्छाचारी बनाया, वह अप्रिय हो गया। सम्राट होना और जनप्रिय होना- एक साथ संभव नहीं होता। अनुशासन राजस्व और प्राशासन के विन्दुओं पर सम्राट कैसे जनप्रिय रह सकता है? पर, ऐसे सम्राट हुए हैं, जो जनप्रिय रहे हैं। 'सम्राट' पद साधना की एक सफलता है। सम्राट साम्राज्य में जनहित का साधन है। सम्राट के इन्हीं विन्दुओं को सामने रखकर 'भारत के जनप्रिय सम्राट' की इस लघु खोज में पुरूरवा से छत्रसाल-वेदों से चलकर हाल की सदी तक के सम्राटों के जनप्रिय प्रतिनिधि राजाओं के जीवन-दर्शन का स्पर्श मैंने किया है। लक्ष्य है अपने जीवन के रेखाचित्र को भारत के जनप्रिय सम्राटों के लोकप्रियता के रंगों से रंगकर जनप्रिय आज के लोकतंत्र में कोई भी हो सकता है। कौन है, जो जनप्रियता का रंग नहीं चाहता? जनप्रिय होना है तो 'भारत के जनप्रिय सम्राटों' की जनप्रियता के रंगों को समझना होगा। इसी से जनप्रियता की वर्तमान चुनौतियों को सामने रखकर 'भारत के जनप्रिय सम्राट' प्रस्तुत कर रहा हूँ।
ईस पुस्तक में लेखक ने वसंतसेना और चारुदत्त के प्यार कि कहानी लिखी है| उत्कट प्रेम और बदले कि भावना का द्वंद्व यह लेखक ने प्रदर्शित किया है| यह अनुठी कहानी आपको पुराने जमने के रिती और समाज के रवायातों का चित्रण कराती है|
चित्रांगदा यह महाभारत का एक पात्र है|
यह चित्रांगदा कौन थी??
उसका महाभारत के कौनसे पात्र से संबंध है?
उसकी जीवनगाथा क्या है?
चित्रांगदा का नाम आपने कहाँ सुना है इसके बारे मे थोडा विचार किजीये…!
शकुन्तला ने अपने जन्म की सम्पूर्ण कथा राजा दुष्यन्त को बता देती थी। उसकी सुंदरता देखकर दुष्यन्त ने उससे गान्धर्व विवाह करने का प्रस्ताव दिया।
शकुन्तला और राजा दुष्यन्त स्वेच्छा से गान्धर्व विवाह के बाद वह थोडे दिन आश्रम में रहे|
जब वह अपनी राजधानी चाले गये उसके बाद शकुन्तला कि जिन्दगी का विवरण किया है|
नल दमयन्तीके सौंदर्य की प्रशंसा सुनकर उससे प्रेम करने लगा। उनके प्रेम का सन्देश दमयन्ती के पास बड़ी कुशलता से पहुंचाया एक हंस ने। दमयन्ती भी अपने उस अनजान प्रेमी की विरह में जलने लगी। कैसे हुआ उनका मिलन? क्या अघटीत घटा? कैसे उभारे वे दोनो आपने जीवन के दुविधा से?
इस कथा में प्रेम और पीड़ा का ऐसा प्रभावशाली पुट है कि भारत के ही नहीं देश-विदेश के लेखक व कवि भी इससे आकर्षित हुए बिना न रह सके।
यह एक अनुठी प्रेमकथा है|
भारत में रहनेवाले माधवी और माधव के उत्कट प्रेम, विरह एवं सामाजिक स्थितिओ का विवरण किया है|
||ॐ हडुमान हठीला|| दे वज्र का ताला||
||तो हो गया उजाला|| हिन्दू का देव||
||मुसमान का पीर|| वो चलै अनरथ||
||रैण का चलै|| वो चलै पाछली रैण को चलै||
||जा बैठे वेरी की खाट|| दूसरी घडी||
||तीसरी ताली वैरी की खाट मसाण में||
अजूबा भारत पूरे विश्व मे भारत सबसे अजूबा, अनोखा, अद्भुत; अनूठा तथा अलौकिक देश है। यहा की धरती, आसमान तथा उसमे विचरण करने वाले प्राणियों का ही वैचित्र्य चकित नहीं करता अपितु जो अदृश्य लोक है वह उससे भी कहीं अधिक चमत्कारी और चकाचौंध देने वाला है। ईस रहस्यों के बरे में "अजूबा भारत" के पुस्तक मालिका अंतर्गत अनेक किताबें आप बुकस्ट्रक पर पढ़ सकते है| उन किताबों का नाम ईस किताब के अंत में दिया जायेगा|
“जब जब भी आप चित्तौड जायेंगे
तब जरूर दिवाली के दौरान जाईये,
वहाँ प्रतिवर्ष भूतों का मेला लगता है
वह भी दीवाली की गहन रात…!!!”
हमारे देश मे प्रचलित धार्मिक-अध्यात्मिक पंथों में कांचलिया अथवा कुडा एवं ऊंदऱ्या पंथ ऐसे विचित्र, अद्भुत और अनूठे पंथ हैं|
जिनकी पत किसी दूसरे पंथ से नहीं की जा सकती। कुडा पंथ: इसे बीसनामी पंथ के नाम से भी जाना जाता है।
अपहरण गणगौर राजस्थान का बड़ा ही रसवंती त्यौहार है। यहां के निवासियों में इन दिनों जितने इन्द्रधनुषी रंग विविध रूप चटखारे लिये देखे जाते हैं उनने अन्य किसी न्योहार पर देखने को नहीं मिलेंगे| राजस्थानी गोरिया जहां अपने अटल सुहाग और अमर बड़े के लिये गणगौर की बडी भक्ति-भावना से पूजा प्रतिष्ठा करती हैं वहां छोरिया होला के दृसंर दिन से ही मनवाछित वर प्राप्ति के लिये गवरल माता की पूजा-आराधाना जाती है।
राजस्थान के लोकदेवताओ मे ईलोजी सर्वथा भिन्न किस्म के लोक्देवता जिनकी होली पर ही विशेष पूजा प्रतिष्ठा होती है। अन्य देवी देवताओं की तरह इनक मजाधजा मन्दिर भी नहीं होता और न विधिवत पूजा अनुष्ठान ही।
छेडा देव से तात्पर्य छेडखानी करने वाले देव से है।
होली के दिनों में खासतौर से राजस्थान में ईलोजी और लांगुरिया;
ये दोनों देव बड़े विचित्र रूप में याद किये जाते हैं।
हमारा देश ही कई प्रकार की विचित्रताओं से भरा पूग है जिसकी सानी विश्व में अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती, पर राजस्थान इन विचित्र- कथाओ में अपनी विशिष्ट विलक्षणता लिये है।
जानवरों के स्मारक के लिये ये कथा बतायी गयी है|
तो ईस प्रांत में जानवरों के ही स्मारक भी यहां पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं।
सन् १९८२ में दीवाली की घनी अधेरी डरावनी रात में लोकदेवता कल्लाजी ने अपने सेवक सरजुदासजी के शरीर में अवतरित हो मुझे चित्तौड़ के किले पर लगने वाला भूतों का मेला दिखाया तब मैंने अपने को अहोभाग्यशाली माना कि मै पहला जीवधारी था, जिसने उस अलौकिक, अद्भुत एवं अकल्पनीय मेले को अपनी आँखों से देखा।
जोधपुर के पास मंडोवर बड़ा प्राचीन और ऐतिहासिक नगर कहा जाता है। वहा जाकर कोई देखे तो उसे कल्पना नहीं करनी पड़ेगी पर पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग ने जो कुछ बताने को संग्रह कर रखा है, लोग बाग तो प्राय वही देखकर चले आते है।
सबसे बड़ी धजा वाले मन्दिरों पर धजा चढाने का भी पूरा संस्कार है। यदि इन धजाओं का ही अध्ययन किया जाय तो ऐसी बहुत सी सामग्री हाथ लग सकती है जो धजा परम्परा और उनके जुड़े देवता का रोचक इतिहास ही प्रस्तुत कर दे। धजाओं के विविध रंग, उनके आकार- प्रकार उनकी साज-सज्जा, उन पर लगे धगे विविध कलात्मक चित्र प्रतीक बड़ा रोचक दास्तान देते है।
राजस्थान के बाडमेर, जैसलमेर नामक रेगिस्तानी इलाकों में कोटडिया, वशमोचन, बेडाफोड, ओवा, कालिन्दर, गोरावर, चंदन, गो, बोगी, परड़, गोफण जैसे साप तो धातक हैं ही पर इनसे भी अधिक खतरनाक यहा का 'पीवणा सांप' बना हुआ है|
जो मनुष्य की स्वांस पीकर अपना जहर छोड जाता है और सूर्योदय होते-होते उसे मरधट पहुचा देता है।
राजस्थानी लोक चित्रांकन का एक प्रमुख प्रकार है पड़ चित्राकन इस चित्राकन में मुख्यत: कपडे पर लोकदेवता पाबूजी और देवनारायण की जीवन लीला चित्रित की हुई मिलती है। इन पेडों के भोपे गाव-गांव इस फैलाकर रात्रि को विशिष्ट गाथा गायकी में पड वाचन करते हैं।
मृत्यु लोकजीवन का अन्तिम सस्कार है जिसकी समाप्ति प्रायः शोक एव विषाद मैं होती है।
मृतात्मा की सुगत के लिये प्रत्येक जाति में अपने पारंपरिक क्रिया कर्म प्रचलित हैं।
अनेक जातियों में नाना दस्तूरों के साथ मृत्यु गीत भी गाये जाते है।
राजस्थान में देवियों के कुल नौ लाख अवतार माने गये हैं।
प्रसिद्ध रणक्षेत्र हल्दीघाटी के पास नौ लाख देवियों का स्थान वडल्या हींदवा आज भी बहुप्रसिद्ध है।
इस सम्बन्ध में यहा के देवरो मे नौरात्रा मे रात-रात भर जो भारत गाथा गीत गाए जाते है इनमे इन देवियों का यश वर्णन मिलता है।
इन माधारण असाधारण देवियों में चार असाधारण शक्तियुक्त होने से वे महाशक्तियां कही गई हैं।
इनमें करणीजी एक हैं।
विश्व के विचित्र खजानों वाला चित्तौड़ चित्तौडगढ़ सारे गढ गढ़यों का सिरमौर है इसीलिए गढ तो चित्तौडगढ़ कहा गया है।
प्रारभ में यह चित्रकूट के नाम से प्रसिद्ध रहा।
चित्तौड नाम उसके बाद पड़ा। आज इस चित्रकूट को सब भूल चुके है।
जानने का चित्तौड को भी हम पूरानही जान पाये है। जितने भी महल खंडहर या अन्य ध्वसाशेष है,
वे इतिहास की कलम पर अजाने ही बने हुए हैं|
इतिहास को तोड़ मरोडकर उसे अपने अन्दाज से प्रस्तुत करने की हमारी आदत बहुत पुरानी है। बडेरों ने जो कुछ लिख दिया उसे उसी रूप में स्वीकार कर 'बड़ी हुकम कहने वालों ने बडा अनर्थ भी किया। नतीजा यह हुआ कि बहुत सारा अमलो इतिहास इति बनकर रह गया और उसक ह्रास किंवा हास ही अधिक हुआ। इस झमेले में सर्वाधिक लू पुराने खंडहरो, महलों, हवेलियों को लगी। इसीलिए ये हमें बटे रहस्य रोमाच भरे अजूबे और अद्भुत तो लगते हैं पर सही जानकारी के अभाव में भ्रमित करत और भटकन देते भी लगते है।
गिरनार में मिला पांच सौ वर्ष का अघोरी हमारे,यहा तो कई गिरी है मगर मुख्य गिरी तो दो ही हैं।
पहला हिमगिर और दूसरा गिरनार एक पहाडोंका रुप है तो दुसरा भूमग ना रूप…!
नर नारी का यह रूप नदी नालों भिमा को महान गाओं का गहन तपस्या स्थल है।
कोई गुफा ऐसी नहीं मिलेगी जहा मम्मी के जैसे दिखने वाले मनस्वी नायाब साधू सन्यासी नहीं तपा हो।
कल्लाजी का जन्मनाम केसरसिंह था। इनकी माता श्वेत कुंवर ईडर के लक्खूभा चौहान की पुत्री थी। यह बचपन से ही शिव-पार्वती की बड़ी भक्त थी। जब उसके कोई मदतगार कलामा न स आरामबस अपन विवाह के अन्तरवासे का एक पुतला बनाया शिव की आराधना में लीन हो गई। उसकी ऐसी तन्मयता देश शिव आन में प्राण प्रतिष्ठा कर दी।
गजस्थान के आदिवासी गरासियों का देश ‘कुंवारों का देश' कहलाता है। आबू पर्वत के पूर्व में फैली पहाड़ियों में चौइस गांव फैले हुए है। इन गाँवों का यह क्षेत्र भाखरपट्टा कहलाता है| इस पट्टे का सबसे बड़ा गांव जाम्बुडी है। इसी गांव में इन गरासियों का सबसे बड़ा आदमी “पटेल” रहता है। यह पटेल ही इनका राजा होता है। इसी का हुकम चलता है। फरमान चलता है। न्याय चलता है। सजा चलती है।
राजस्थान की लोकनाट्य परम्परा मे मेवाड़ के गवरी और उसके साहित्य पर शोध प्रबंध लिखने के सिलसिले में में जब भीलों में प्रचलित सुप्रसिद्ध गवरी (राई) में वर्णित भारत-गीति-गाथा-कथा को पढ़ रहा था तब उसमें वर्णित देवी अंबाब का सातवें पियाल (पाताल) जाकर बडल्या (वट वृक्ष) लाना, देवल ऊनवा में उसकी स्थापना करना, मान्या जोगी का अपने चेलों सहित उसे देखने आना|
मेंहदी में दिया मेंहदी मे कई कलाएँ छिपी हुई हैं। जैसे मेह में कई कलाओं के रूप है। मेह है तो सब कुछ है। प्रकृति की सारी हरीतिमा है। रूप, रस, रंग और लावण्य है। ऐसे ही मेहदी में सब कुछ है। यह अपने में कई कलारंगों को रूपायित करने वाली है। है कोई ऐसा अन्य झाड़ जो लगता है, बंटता है, मडता है, रचना है और रस देता है प्रेम का, सुहाग का, सौभाग्य का, जीवन का।
दहकते अंगारो पर महकते फूलों की तरह नाचना यों तो अनहोनी बात लगती है, परन्तु हमारे यहाँ ऐसे कई अजब कलाकरिश्मे प्रचलित हैं जिनके साथ यहाँ का कलाकार असाधारण-विचित्र होता हुआ भी सामान्य साधारण बनकर जीता है। आग पर फाग खेलना और राग अलापना अपने आप में कितना संश्लिष्ट चित्रण है। आइए, इनका पर्यवेक्षण करें।
मीराबाई जितनी लोकचर्चित है उतना ही उसका जीवनवृत्त अनबुझ पहेली बना हुआ है। वह राजकुल की जितनी मर्यादा में रही उतनी ही लोककुल की गगा बन भक्ति रस में लवलीन रही। यही कारण है कि बहुत कुछ कहने के बावजूद भी उसके सबंध में बहुत कुछ कहना ओर शेष रह गया है। यह एक ऐसी अद्भुत नारी है जिसके सबंध मे इतना अधिक लिखा जाता रहने पर भी कोई लेखन पूर्णता को प्राप्त नहीं होगा और मीरा नित नई होकर उभरती रहेगी।