श्रीनगर से रवाना होकर जंगलों पहाड़ों को पार करते हुए बालचन्द्र दिन भर चलना रहा। पच्चीस-तीस कोस चलने पर भी कहीं कोई गाँव न दिखाई दिया। इतने में अँधेरा हो गया। तब उसने कलेवे की पोटली खोल कर खापी लिया और एक बरगद के पेड़ के नीचे कंबल बिछा कर लेट रहा। जब सबेरा हुआ तो बालचन्द्र ने अपने सामने एक बारह फन वाले सर्पराज को देखा। उसने तुरन्त तलवार उठाई। क्योंकि उसने समझा कि वह उसी को डसने के लिए आ रहा है। लेकिन साँप ने उसे रोक कर कहा-

 

'हे बालचन्द्र! तुम्हारी माँ मेरे ही वर के प्रसाद से पैदा हुई। इस नाते तुम मेरे पोते हो। मैं तुम्हें आशीर्वाद देने आया हूँ। जाओ, तुम ज़रूर अपनी माँ का उद्धार करोगे। तुम्हारे हाथों फकीर का संहार होगा। लेकिन होशियार ! नगवडीह के पास फकीर ने एक राक्षसी को पहरा देने के लिए रखा है। वह कपट-वेष में तुम्हें धोखा देने आएगी। देखना, कहीं उसके फंदे में न फँस जाना!”

 

 यह सुन कर बालचन्द्र ने बड़ी नम्रता से सर्पराज को प्रणाम किया और वहाँ से चल दिया। इस तरह दिन भर चल कर वह शाम को बाघ नगर में एक भठियारिन के घर पहुँचा। भठियारिन ने उसका मुरझाया हुआ चेहरा देख कर तुरन्त चूल्हा जलाया और रसोई बनाना शुरू कर दिया।

 

बालचन्द्र ने पूछा “नानी, गाँव का हाल चाल तो बताओ!”

 

“क्या बताऊँ बेटा ! हमें मीठा पानी पिए हुए छः महीने हो गए।“ उसने कहा।

 

“ऐसा क्यों, नानी ?”

 

“'क्या करें बेटा! खारा पानी पीते हैं! रसोई भी उसी से बनाते हैं। दाल तो पकती ही नहीं।“

 

“क्या इस गाँव में मीठे पानी के कुएँ नहीं हैं?”

 

“कुएँ तो हैं बेटा ! लेकिन क्या फायदा ? यह बाघ जो हमारे पीछे पड़ गया है ?”

 

“अच्छा तो यह बाघ कहाँ से आ गया?”

 

“तो क्या तुम जानते ही नहीं? हमारे गाँव के उत्तर में मीठे पानी का एक बहुत बड़ा कुआँ है। एक बड़ा बाघ न जाने कहा से आ गया और वहाँ जम कर बैठ गया। छः महीने से वह किसी को उस ओर ताकने भी नहीं देता। जो जाता है उसको हड़प जाता है। कोई भी उसे नहीं मार सका। 'तो तुम्हारे राजा क्या कर रहे हैं ?”

 

“वे क्या करेंगे बेचारे? उन्होंने ढिंढौरा पिटवा दिया है कि जो कोई उस बाघ को मारेगा उसे अपनी बेटी व्याह दूंगा। उन्होंने तख्तों पर यही लिखवा कर सभी बाजारों में टैंगवा दिया है। लेकिन उस बाघ को मारे कौन?'

 

थोड़ी देर में बालचन्द्र खा पीकर सो रहा। दूसरे दिन उसने तड़के ही उठ कर नहा-धोकर कलेवा किया और शहर के उत्तर की ओर चल पड़ा। वहाँ जाकर उसने देखा तो फाटक बन्द था और ताला लगा हुआ था। लेकिन पहरेदार वहीं थे।

 

“अरे भई, कौन है यहाँ ? जरा फाटक तो खोलो! मुझे बाहर जाना है।“ बालचन्द्र ने कहा।

 

“यह फाटक नहीं खुलेगा। तुम पूरबी दरवाजे से जाओ।“ पहरेदारों ने कहा।

 

“नहीं; मुझे इसी दरवाजे से जाना है।“

 

“क्यों नाहक अपनी जान गंवाते हो? यहीं नजदीक में एक कुआँ है। वहाँ एक बाघ रहता है। उससे कोई नहीं बच सकता।“ पहरेदारों ने कहा।

 

“अच्छा, जरा मैं भी एक बार देख लँ कि वह कैसा बाघ है। दरवाजा खोलो।“ बालचन्द्र ने कहा।

 

तब पहरेदारों ने दरवाजा खोल कर बालचन्द्र को बाहर जाने दिया और तुरन्त फिर बन्द कर लिया। बालचन्द्र बाघ को ढूँढ़ते हुए उस कुएँ पर पहुँचा। बाघ उसे देखते ही गरज कर टूट पड़ा। लेकिन बालचन्द्र ने उससे पहले ही तलवार का एक ऐसा वार किया कि बाघ लोटपोट कर ठण्डा हो गया। तब उसने उसके पंजे और उसकी पूंछ का सिरा काट लिया और फिर पूरबी दरवाजे से होकर भठियारिन के घर लौट आया।

 

“कहाँ घूम आए हो बेटा?' भठियारिन ने पूछा।

 

“शहर देखने गया था। कैसा सुन्दर शहर है? मैं और कुछ दिन यहीं रहूँगा।“ बालचन्द्र ने कहा।

उसी शहर में कलुआ नाम का एक धोबी रहता था। वह बड़ा आलसी और कामचोर था। कभी कपड़े धोने नहीं जाता था। तिस पर शराब पीकर हमेशा नशे में चूर रहता था। उस दिन भी वह रोज की तरह खूब पीकर होश-हवास खो बैठा और भटकते हुए उस कुएँ के पास जा पहुँचा। वहाँ उसे मरा हुआ बाघ दिखाई दिया। नशे में होने के कारण उस धोबी को डर भी नहीं लगा। उसने लाठी उठा कर उस बाघ पर तीन चार हाथ जमा दिए। बाघ न हिला, न डुला। धोबी ने आँखें मल-मल कर देखा तो मालूम हुआ कि बाघ मरा है। उसने एक लात जनाई । लेकिन मरा हुआ बाघ कैसे हिलता? अब धोबी को निश्चय हो गया कि उसी के वारों से बाघ ठंडा पड़ गया है। तब वह खुशी से उछल पड़ा। उसने सोचा

 

“वाह ! वाह ! मैं अब राजकुमारी से ब्याह करूँगा और राजा का दामाद बनूँगा। बड़े-बड़े लोग आकर मेरे सामने सर झुकाएँगे और सलाम करेंगे।“ यह सोच कर वह तुरन्त राज-महल की ओर दौड़ा।

 

राह में उसे देख कर सब लोग दाँतों तले उंगली दबाने लगे। कुछ लोगो ने उसे रोक कर पूछा-

 

“अरे ! बात क्या है? क्यों इस तरह दौड़ रहा है ?” लेकिन उन सब को धक्का देकर वह राज-महल में पहुंचा।

 

“हुजूर, मैंने वाघ को मार डाला है। अगर आप चाहें तो कुएँ के पास जाकर उसकी लाश देख सकते हैं। अब आप जल्दी राजकुमारी से मेरा व्याह कर दें!”उसने राजा के पास जाकर कहा।

 

राजा, मन्त्री वगैरह सभी को उसकी बातें सुन कर काठ मार गया। वे कैसे सोच सकते थे कि यह पियक्कड़ उस बाघ को मार डालेगा? अब राजकुमारी को इस धोबी के गले कैसे बाँधा जाए? नहीं तो फिर वादा जो तोड़ना पड़ेगा!

 

दरबारियों ने जाकर देखा तो बाघ सचमुच मरा पड़ा था। आखिर लाचार होकर राजा ने घोषित करवा दिया कि कलुआ धोबी ने बाघ को मार डाला है। इसलिए राजकुमारी सुभद्रा से उसका व्याह होगा।' राज-महल में किसी के मुख पर कोई रौनक न थी। सारी खुशी तो कलुआ धोबी की थी। इस जोश में उसने अपनी धोबिन को खूब मारा-पीटा और बिरादरी-वालों को बुला कर खूब ताड़ी पिलाई। रात भर उसने अपने घर में जलसा मनाया।

 

इधर भठियारिन के घर में थका माँदा राजकुमार खा पीकर तुरन्त सो गया। इतने में भठियारिन ने ढिंढौरा सुना कि कलुआ धोबी ने बाघ को मार डाला है। यह सुनते ही उसे शक हो गया कि हो न हो, राजकुमार का भी इसमें कुछ हाथ है। उसने चुपके से तलवार निकाल कर देखी। वह खून से सनी हुई थी। इतने में बाघ के पंजों की पोटली पर उसकी नज़र पड़ी। उसका शक ठीक निकला। तुरन्त भठियारिन वे पंजे और पूँछ का सिरा लेकर राजा के पास गई और उससे खुलासा हाल कह दिया। राजा को सारा हाल मालूम हो गया।

 

दूसरे दिन तड़के ही राजा ने सिपाहियों को भेज कर धोबी को पकड़ मँगाया और हथकड़ी-बेड़ी लगा कर जेल में डाल दिया। राजा अपने परिवार सहित भठियारिन के घर आया और राजकूमार को अपने साथ महल में ले जाकर खूब ख़ातिर की। सुभद्रा के साथ ब्याह की तैयारियाँ होते देख कर राजकुमार ने कहा

 

“ अपनी माँ को फकीर की कैद से छुड़ाने जा रहा हूँ। इसलिए अभी मैं ब्याह नहीं कर सकता। हाँ, जब मैं अपनी माँ को साथ लेकर लाऊंगा तो जरूर व्याह करके सुभद्रा को अपने साथ ले जाऊँगा।“

 

 राजा ने भी उसकी बात मान ली और नागशर्मा नामक एक ब्राह्मण को साथ देकर उसे विदा किया। वहाँ से गंगा-नगर पच्चीस कोस की दूरी पर था। दोनों उस तरफ रवाना हुए। दोपहर तक चलते रहने के बाद बालचन्द्र को जोर की प्यास लगी। तब नागशर्मा राजकुमार को एक कुएँ के पास ले गया। कुआँ बहुत गहरा था। वहाँ पानी लेने के लिए कोई चीज़ न थी। तब बालचन्द्र ने अपने वस्त्र, गहने, हथियार सब उतार कर कुएँ की जगत पर रख दिए। फिर अपनी लम्बी पगड़ी का एक छोर पास के एक पेड़ से बाँध कर उसके सहारे वह कुएँ में उतरा। इतने में कीमती गहने और हथियार वगैरह देख कर उस ब्राह्मण के मन में लालच पैदा हुआ और उसकी नीयत बिगड़ गई। उसने झट तलवार उठाई और पेड़ से बँधी हुई पगड़ी को खट से काट डाला। बालचन्द्र धड़ाम से कुएँ में जा गिरा। कुएँ की दीवारों पर काई जमी हुई थी। हाथ-पैर फिसल रहे थे। इसलिए कोशिश करने पर भी ऊपर न आ सका।

 

इधर ब्राह्मण गहने वगैरह लेकर चंपत हो गया। गंगा-नगर जाकर उसने सबको बेच-बाच दिया और मौज उड़ाने लगा। लेकिन थोड़े दिनों में उसके सब रुपए ख़तम हो गए और वह नगर के देवालय के इर्द गिर्द भीख माँग कर पेट पालने लगा।

 

बालचन्द्र कुछ दिनों तक उस कुएँ में पड़ा रहा। उस घने जंगल के गहरे कुएँ में से उसकी पुकार कौन सुनता ? लेकिन संयोग से गंगा नगर का राजा शिकार खेलते हुए पानी पीने को कुएँ पर आया। कुएँ में झाँकते ही आदमी को देख कर उसने तुरन्त रस्सी लटका दी।

 

रस्सी के सहारे बालचन्द्र ऊपर आ गया। उसने राजा को अपनी कहानी सुनाई। ब्राह्मण की दुष्टता का सारा हाल-चाल सुन कर राजा को उस पर दया आ गई। उस राजा के भी एक खूबसूरत बेटी थी। बालचन्द्र का शील-स्वभाव देख कर राजा मुग्ध हो गया था। उसने मन में सचा- अगर यह लड़का मेरा दामाद हो जाए तो कितना अच्छा हो!' उसने यह इच्छा बालचन्द्र से कह दी।

 

बालचन्द्र ने कहा- “मेरा व्रत है कि अपनी माँ को फकीर की कैद से छुड़ाए बिना किसी तरह का सुख न भोगूंगा । इसलिए जब मैं अपनी माँ को छुड़ा कर लौटूंगा, तब मैं आपकी इच्छा पूरी करूँगा।“

 

राजा ने बड़ी खुशी से उसकी बात मान ली। दूसरे दिन सबेरे राजा बालचन्द्र को अपने साथ नगर का देवालय दिखाने ले गया। वहाँ भीख माँगते हुए अपने साथी ब्राह्मण को देख कर बालचन्द्र ने कहा

 

“नमस्ते नागशर्मा जी!”

 

 ब्राह्मण मुँह बाए रह गया। उसके बदन पर काटो तो खून नहीं। लेकिन राजकुमार ने उस पर तरस खाकर उसके सारे अपराध भुला दिए। राजा से कह कर उसको बहुत सा धन भी दान में दिलवा दिया। दूसरे दिन बालचन्द्र उस राजा से बिदा लेकर गंगानगर से चल पड़ा। दिन भर वह बिना कहीं अराम किर चलता रहा। तोतानगर अभी चार कोस और दूर था। इतने में अन्धेरा हो गया। राजकुमार बहुत थक गया था। इसलिए वहीं एक टूटे-फूटे मन्दिर में लेट रहा। पेट में चूहे दौड़ रहे थे। इसलिए उसे नींद न आई। आधी रात होते होते पहले एक सियार और उसके पीछे एक बाघ वहाँ आकर बैठ गए। फिर दोनों में बातचीत होने लगी। बालचन्द्र उन दोनों की बातें सुनने लगा।

 

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