वहाँ दूर देश में राजा अपने पड़ाव में सुख से सो रहा था। इतने में उसे ऐसा लगा जैसे कोई उसे थपकी देकर जगा रहा हो। उसके कानों में किसी के ये शब्द गूंजने लगे-

"उठो, राजा! उठो! वहाँ तुम्हारी सन्तान भूखों तड़प रही है और तुम यहाँ निश्चिन्त सो रहे हों?"

राजा चौंक कर जाग पड़ा। उसे ऐसा लगा कि जरूर उसकी बच्चियाँ किसी न किसी सङ्कट में पड़ गई हैं। वह जल्दी-जल्दी गहने, कपड़े, खिलौने, मिठाइयाँ वगैरह खरीद कर अपने राज की ओर लौट पड़ा। महल के नजदीक आते ही राजा के घर लौटने की सूचना देने के लिए नगाड़ा बजा। राजा ने देखा कि बाहर आकर उसकी अगवानी करने वालों में उसकी बच्चियाँ नहीं हैं। यह देख कर उसके मन की व्याकुलता और भी बढ़ गई।

वह सीधे रत्ना देवी के महल में गया।

“लड़कियाँ कहाँ हैं?” राजा ने चारों ओर देख कर पूछा।

“आप पूछते हैं कि लड़कियाँ कहाँ हैं! आपकी पहली रानी अई और मुझे मार-पीट कर लड़कियों को आने साथ ले गई।" रानी ने मुँह फुशा कर कहा।

राजा ने सोचा कि उसके दूसरा व्याह करने की वजह से शायद लक्ष्मी देवी को गुस्सा आ गया है और इसी से वह आकर अपनी सन्तान को ले गई है। उसने बच्चियों को खोजने के लिए देश भर में आदमी दौड़ाए। लेकिन जब कहीं उनका पता न चला तो वह स्वयं उन्हें खोजने निकला। इस तरह ढूँढ़ते-हँढ़ते जब वह नगर के बाहर जङ्गल में गया तो उसे जमीन पर कुछ पैरों के चिह्न दिखाई दिए। सात छोटे चिह्न थे और एक बड़ा। राजा ने सोचा कि ये सात चिह्न उसी की लड़कियों के हैं और बड़ा चिह्न रानी लक्ष्मीदेवी के पैरों का है।

अब उसे पूरा विश्वास हो गया कि रलादेवी ने जो कहा था, वह सच था। वह उसी रास्ते से चल पड़ा और थोड़ी ही देर में उस मन्दिर के पास पहुँच गया जिसमें उसकी प्यारी बच्चियाँ भूखों पड़ी थीं। मन्दिर में ताला लगा हुआ था। यह देख कर राजा को शक हो गया और ताला तुड़वा कर वह अन्दर चला गया। वहाँ जाकर देखता क्या है कि उसकी सातों बेटियाँ अधमरी पड़ी हुई हैं। राजा उन्हें उठवा कर महल में ले आया।

लड़कियों ने सौतेली माँ की क्रूरता की सारी कहानी राजा को सुना दी। तब राजा ने रला देवी से अपना सारा संबन्ध तोड़ लिया और रात दिन उन लड़कियों के साथ रहने लगा। तब राजा को मोहने के लिए रत्ना देवी ने जङ्गल से बहुत-सी जड़ी-बूटियाँ मँगवाई। एक दिन राजा स्नान करने गया। मौका देख का रानी ने एक दासी द्वारा राजा के थाल में मोहन-रस मिलवा दिया।

खाना खाते ही जड़ी ने अपना असर दिखाया। सहसा राजा के मन में रत्ना देवी पर ऐसा मोह पैदा हो गया कि वह अपने को सम्हाल न सका । लड़कियाँ सो रही थीं। राजा उठा और सीधे जाकर रत्ना देवी का दरवाजा खटखटाया। लेकिन रत्ना देवी ने किवाड़ नहीं खोला।

वह अन्दर से ही बोली- "तुम्हें तो अपनी लड़कियों प्यारी हैं न? फिर मेरे पास क्यों आए हो? लौट जाओ! जब उन सब को मार आओगे, तभी मैं दरवाजा खोलूंगी।“

 "हाय! हाय ! कहीं अपने बच्चों को भी कोई मार डालता है ?" राजा चिल्ला उठा।

अगर अपने हाथों मारना नहीं चाहते हो तो जाकर घोर जंगल में छोड़ आओ!" रत्नादेवी ने कठोर स्वर में कहा।

मोहन-रस के प्रभाव से अन्धे बने हुए राजा ने रानी की बात मान ली। उसने अपने  महल में लौट कर लड़कियों को जगाया और कहा-

"बेटियो! उठो! मैं तुम सब को तुम्हारे ननिहाल ले जाऊँगा।"

"हमारा ननिहाल ? हम लोगों ने तो कभी नहीं सुना था कि हमारा भी कहीं एक ननिहाल है।" लड़कियों ने अचरज से कहा।

“दस वरस पहले उनसे हमारा मन-मुटाव हो गया था। इसलिए हमने उनसे नाता तोड़ लिया था। लेकिन अब मैं सोचता हूँ कि तुम लोगों को ले जाकर एक बार उन्हें दिखा आऊँ।“ राजा ने कहा।

लड़कियाँ उठ कर राजा के साथ चलने को तैयार हो गई। राजा को  पूरी तरह अपने वश में जान कर, रत्ना देवी ने बड़ी खुशी से जहर मिली रोटियाँ बनवाई और लड़कियों के लिए कलेवा तैयार कर दिया। एक अलग पोटली में उसने राजा के लिए रोटियाँ बाँध दी।

उसने राजा से कह दिया कि

“देखो! तुा लड़कियों की रोटियों में हाथ न लगाना और न उन्हें अपनी रोटियाँ देना।“ राजा ने बिना जाने-बूझे सिर हिला दिया। वह अपनी सातों लड़कियों को साथ लेकर पैदल ही जङ्गल की ओर चल दिया। थोड़ी देर में गाँव पीछे रह गया और वे लोग घने जंगल में पहुंचे।

इतने में सबसेछोटी लड़की नागवती ने एक उड़ता कौआ देखा। उसने रोटियों की पोटली में से एक रोटी का टुकड़ा तोड़ कर उसके सामने फेंक दिया। कौए ने टुकड़े में चोंच मारी और तुरन्त जमीन पर उलट पड़ा। क्षण में ही वह तड़प-तड़प कर ठण्डा हो गया। यह देख कर नागवती को बड़ा अचरज हुआ। उसने रोटी का और एक टुकड़ा तोड़ कर एक कुते के सामने डाल दिया। खाते ही उस कुत्ते ने भी छटपटा कर दम तोड़ दिया।

“इन रोटियों में तो जहर मिला हुआ है ! अगर हमने खाई होती तो हमारी भी जान गई होती ! मैं इन्हें कहीं फेंक दूं तो कोई न कोई इन्हें खाकर नहक़ अपनी जान गवाएगा। इसलिए सबसे अच्छा यही होगा कि एक छोटा सा गढा खोद कर इन्हें मिट्टी के नीचे गाड़ दें।" नागवती ने अपनी यहनों से कहा ।

तब लड़कियों ने एक छोटा सा गड्ढा खोदा और उसमें अपनी सब रोटियाँ गाड़ दी। राजा ने यह सब नहीं देखा। थोड़ी देर में वे धीच जङ्गल में पहुंच गए। अब बेचारी लड़कियों को जोर की भूख लगी। तब उनमें से एकने आगे आगे नलने वाले पिता को रोक कर कहा-

"पिताजी! मुझे बहुत भूख लगी है। अपनी पोटली में से एक रोटी दीजिए न?"

"बेटी! मेरी पोटली में ये रोटियाँ नहीं हैं। ककड़ पत्थर हैं। राह में जङ्गली जानवरों को मार भगाने के लिए मैंने इन्हें चलते वक्त पोटली में बाँध लिया था। थोड़ा और सबर करो। तुम्हारा ननिहाल यहाँ से बहुत दूर नहीं है।" राजा ने जवाब दिया।

लेकिन वह लड़की वहीं ज़मीन पर बैठ गई और हठ करने लगी। तब राजा ने एक छड़ी लेकर उसे मारना शुरू किया। तब बाकी लड़कियों ने आगे आकर रोका-

“पिताजी! आप उसे मारिए मत। हम उसे समझा देंगी।“

यह कह कर उन्होंने उसे समझा-बुझा कर चुप कर दिया। सब लोग फिर आगे बढ़े। चलते-चलते रात हो गई। तब राजा बोला

“जब तक हम लोग तुम्हारे ननिहाल पहुंचेंगे तब तक सब लोग खुर्राटे ले रहे होंगे। अन्धेरे में हमें कोई पहचानेगा भी नहीं। इसलिए हम आज रात के लिए यहीं कहीं सो जाएँगे।"

वे सब एक पेड़ के नीचे सो रहे। राजा बीच में लेट गया और लड़कियाँ उसके अगल-बग़ल लेट गई। आखिर जब सभी लड़कियाँ सो गई, तब राजा धीरे से उठा। उसने अपनी जगह एक लकड़ी का कुन्दा रख दिया और उस पर एक चादर ओढ़ा दी। फिर वह चुपके से अपने नगर की ओर चल दिया। थोड़ी देर में सवेरा हो गया। राजा ने एक तालाब के किनारे पहुँच कर हाथ-मुँह धोया और कलेवा करने बैठा। लेकिन जब उसने पोटली खोली तो देखा कि रोटियों के बदले उसमें ककड़-पत्थर भरे थे।

 “हाय ! मैं कैसा पापी हूँ ? भूख से तड़पती हुई सन्तान को मैंने रोटी नहीं दी। भगवान ने मुझे अच्छा दण्ड दिया।“ राजा  ने सोचा। लेकिन राज-महल में पहुँचते ही वह उन लड़कियों की बात भूल गया ।

इधर सबेरा होते ही लड़कियाँ जागी। जगते ही उन्होंने पिता को पुकारा। लेकिन कोई जवाब न मिला। तब उन्होंने चादर हटा दी। देखा कि पिता की जगह वहाँ लकड़ी का एक कुन्दा पड़ा हुआ है। वे जोर जोर से रोने लगीं। थोड़ी देर बाद उन्होंने उठ कर निकट के एक तालाब में नहाया धोया। अब उनकी भूख और भी बढ़ गई। अन्तड़ियाँ कुलबुलाने लगीं। चारों ओर जङ्गल ही जङ्गल दिखाई देता था। बेचारी अबोध लड़कियों को राह क्योंकर मालूम हो।

उसी समय श्रीनगर का राजा रामसिंह शिकार खेलते हुए उपर आ निकला। उसने इन सातों लड़कियों को देखा।

उसने सोचा, "हाय ! ये मासून लड़कियाँ न जाने किस राजा की बेटिया हैं? सूरत देखने से ही मालूम हो जाता है कि इन्होंने दो तीन दिन से कुछ खाया-पीया नहीं है।"

उसने अपने सिपाहियों को बुलाया और खाने पीने की चीजें मँगा कर उन्हें भर पेट खिलाया पिलाया। फिर धीरे धीरे उसने उनकी सारी कहानी जान ही। उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने सुना कि ये सातो बहनें उसी की भाँजियों हैं। क्योंकि वह वास्तव में लक्ष्मी देवी का भाई था और दस बरस पहले बहनोई से मन-मुटाव हो जाने से उसने वहन के घर आना-जाना छोड़ दिया था।

रामसिंह अपनी भाँजियों को प्रेम के साथ श्रीनगर ले गया। उसके भी सात लड़के थे। उसने इन लड़कियों से उन सातों का ब्याह बड़ी धूम-धाम से कर दिया। नागवती का ब्याह सब से छोटे राजकुमार श्यामसिंह से हुआ।

इस दौरान रणधीर सिंह के बुरे दिन शुरू हो गए. दुश्मनों ने रणधीर सिंह के राज पर चढ़ाई करके उन्हें हरा दिया। उनका राज-पाट छिन गया। उन्हें वेश बदल कर अपने नगर से भाग जाना पड़ा। राजा ने रत्ना देवी के साथ पड़ोस के कई राजाओं के पास जाकर मदद मांगी। लेकिन उसका कोई फल न हुआ। दुश्मन ने वहाँ भी उनका पीछा किया। आखिर राजा ने रत्ना देवी से कहा-

“अब यहाँ भी हमारा निवाह नहीं हो सकता। चलो, कुछ दिन तक हम कहीं छिप रहें। मेहनत मजूरी करके पेट पाल लेंगे।"

यह सोच कर वे दोनों जङ्गल में से होते हुए श्रीनगर पहुँचे। राह में उन्होंने कुछ सूखी लकड़ियाँ चुन कर एक गठ्ठर बाँधा। राजा ने रानी को नगर के बाहर एक पीपल के पेड़ के नीचे बिठा कर कहा-

“तुम यहाँ रहो। मैं शाम तक लकड़ियाँ बेच कर कुछ पैसे कमा कर यहाँ आ जाऊँगा।“

यह कह कर राजा लकड़ियों का गठ्ठर सिर पर रख कर नगर में बेचने निकला। जब वह हाँक लगाते हुए राजमहल के निकट पहुँचा तो उसकी आवाज़ सुन कर लड़कियों ने उसे पहचान उन्होंने उसे बुला कर पूछा कि 'तुम कौन हो? तब राजा ने अपना नाम बताया और लडकियों को सब हकीकत समझ आ गयी

लेकिन उनको उसकी करुण दशा देख कर दया आ गई। उन्होंने उसे अन्दर ले जाकर प्रेम से खिलाया-पिलाया। इधर रत्ना देवी ने शाम तक अपने पति की राह देखी। लेकिन जब वह न आया, तब उसने सोचा—

"इन मर्दो का कनी विश्वास नहीं करना चाहिए। मालूम होता है चार पैसे कमाते ही राजा ने मुझसे मुँह चुरा लिया है।"

यह सोच कर वह जंगल की ओर बढ़ी और वहाँ एक बाघ ने उसे हड़ा लिया । लेकिन राजा रणधीरसिंह का स्वास्थ्य भी पूरी तरह गिड़ गया था। वे अब थोड़े ही दिनों के मेहमान थे। चौबीसों घण्टे पलङ्ग पर पड़े रहते थे। बहुत सी दवाइयाँ की गई। लेकिन कोई फायदा न हुआ। आखिर वे अपनी लड़कियों के बीच प्रसन्न-चित्त से स्वर्ग चले गए। धूम-धाम से उनका श्राद्ध-कर्म किया गया। ।

तीन चार साल बीत गए। नागवती और उसकी बड़ी बहनें अपने पतियों के साथ सुख से दिन बिता रही थीं। नागवती की बड़ी बहनों के अब तक कोई सन्तान न हुई लेकिन नागवती के गर्भ रह गया। यह समाचार सुन कर सिर्फ़ उसकी बहनों को ही नहीं, बल्कि उसके जीजाओं और उसके पति को भी बड़ा आनन्द हुआ। राज में चारों ओर खुशियाँ मनाई गई। गरीबों को खाना काड़ा बाँटा गया।

इतने में नागवती के पति श्यामसिंह और उसके छहों बड़े भाइयों को किसी काम  से रामपुर जाना पड़ा। वे सब हरवे-हथियार बाँध कर लैस हो गए। घोड़ों पर चढ़ कर उन्होंने किले के चौकीदार रामजतन को बुला कर कहा-

"रे! रामजतन ! देख, हमारी गैरहाज़री में अगर कोई साधू-सन्यासी, फकीरया भिखमैंगे आएँ तो उन्हें किले के दरवाजे पर तुम्ही भीख देकर भेज देना। अगर कोई परदेशी आएँ तो उन्हें किले में प्रवेश न करने देना। अगर किसी ने किले में क़दम भी रखा तो समझ ले कि तेरी जान की खैर नहीं। खबरदार!"

फिर श्यामसिंह ने अपनी पत्नी नागवती को बुला कर कहा-'

“रानी! मैंने दरवाजे के बाहर जमीन पर सात लकीरें खींच दी हैं। जब तक मैं परदेश से लौट कर न आऊँ, तुम भूल कर भी उन लकीरों के बाहर कदम न रखना।“

इसके बाद सातों भाई अपनी सारी सेना लेकर रामपुर की ओर रवाना हो गए।

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