कल्याणसिंह के ताली बजाने के साथ ही बहुत से आदमी हाथों में नंगी तलवारें लिये हुए उसी कोठरी में से निकल आये जिसमें से कल्याणसिंह निकला था, मगर शेरअलीखां की मदद के लिए केवल एक ही नकाबपोश उस कमरे में था जो दरवाजा खोलने के साथ ही उन्हें दिखाई दिया था। विशेष बातचीत का समय तो न मिला मगर नकाबपोश ने इतना शेरअलीखां से अवश्य कह दिया कि, ''आप अपनी मदद के लिए अभी किसी को न बुलाइए, इन लोगों के लिए अकेला मैं ही बहुत हूं, यदि मेरी बात का आपको विश्वास न हो तो जल्दी से इस कमरे के बाहर हो जाइए।''
यद्यपि सैकड़ों आदमियों के मुकाबले में केवल एक नकाबपोश का इतना बड़ा हौसला दिखाना विश्वास करने योग्य न था मगर शेरअलीखां खुद भी जवांमर्द और दिलेर आदमी था, इस सबब से या शायद और किसी सबब से उसने नकाबपोश की बातों पर विश्वास कर लिया और किसी को बुलाने के लिए उद्योग न करके अपने बिछावन के नीचे से तलवार निकालकर लड़ने के लिए स्वयम् भी तैयार हो गया।
यह नकाबपोश असल में भूतनाथ था जो सर्यूसिंह के कहे मुताबिक शेरअलीखां के पास आया था। उसे विश्वास था कि शेरअलीखां कल्याणसिंह की मदद के लिए तैयार हो जायेगा मगर जब उसने कमरे के बाहर से उन दोनों की बातें सुनीं और शेरअलीखां को नेक, ईमानदार, इन्साफपसन्द और सच्चा बहादुर पाया तो बहुत प्रसन्न हुआ और जी जान से उसकी मदद करने के लिए तैयार हो गया। हमारे पाठक यह तो जानते ही हैं कि भूतनाथ के पास भी कमलिनी का दिया हुआ एक तिलिस्मी खंजर है जिसे भूतनाथ पर कई तरह का शक और मुकद्दमा कायम होने पर भी कमलिनी ने अपनी बात को याद करके अभी तक नहीं लिया था। आज उसी खंजर की बदौलत भूतनाथ ने इतना बड़ा हौसला किया और बेईमानों के हाथ से शेरअलीखां को बचा लिया।
जिस समय कल्याणसिंह ने भूतनाथ का मुकाबिला करना चाहा, उस समय भूतनाथ ने फुर्ती से अपने चेहरे की नकाब उलट दी और ललकारकर कहा, ''आज बहुत दिनों पर तुम लोग भूतनाथ के सामने आये हो, जरा समझकर लड़ना।''
इतना कहकर भूतनाथ ने तिलिस्मी खंजर से दुश्मनों पर हमला किया, इस नीयत से कि किसी की जान भी न जाय और सब के सब गिरफ्तार कर लिये जायें।
सबसे पहिले उसने खंजर का एक साधारण हाथ कल्याणसिंह पर लगाया जिससे उसकी दाहिनी कलाई जिसमें नंगी तलवार का कब्जा था कटकर जमीन पर गिर पड़ी, साथ ही इसके तिलिस्मी खंजर की तासीर ने उसके बदन में बिजली पैदा कर दी और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा।
जिस समय कल्याणसिंह और उसके साथियों ने भूतनाथ का नाम सुना उसी समय उनकी हिम्मत का बंटवारा हो गया, आधी हिम्मत तो लाचारी के हिस्से में पड़कर उनके पास रह गई और आधी हिम्मत उनके उत्साह के साथ निकलकर वायुमण्डल की तरफ पधार गई। भूतनाथ चाहे परले सिरे का बहादुर हो या न हो मगर उसके कर्मों ने उसका नाम बहादुरी और ऐयारी की दुनिया में बड़े रोब और दाब के साथ मशहूर कर रक्खा था। चाहे कैसा ही बहादुर और दिलेर आदमी क्यों न हो मगर अपने मुकाबले में भूतनाथ का नाम सुनते ही उसकी हिम्मत टूट जाती थी। यहां भी वही मामला हुआ और दुश्मनों की पस्तहिम्मती ने उनकी किस्मत का फैसला भी शीघ्र ही कर दिया।
जिस समय कल्याणसिंह बेहोश होकर जमीन पर गिरा, उसी समय एक सिपाही ने भूतनाथ पर तलवार का वार किया। भूतनाथ ने उसे तिलिस्मी खंजर पर रोका और उसके बाद खंजर उसके बदन से छुला दिया जिसका नतीजा यह निकला कि दुश्मन की तलवार दो टुकड़े हो गई और वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। इसी बीच में बहादुर शेरअलीखां ने दो सिपाहियों को जान से मार गिराया जिन्होंने उस पर हमला किया था, निःसन्देह कल्याणसिंह के साथी इतने ज्यादे थे कि शेरअलीखां को मार डालते या गिरफ्तार कर लेते मगर भूतनाथ की मुस्तैदी ने ऐसा होने न दिया। उस कमरे में खुलकर लड़ने की जगह न थी और इस सबब से भी भूतनाथ को फायदा ही पहुंचा। जितनी देर में शेरअलीखां ने अपनी हिम्मत और मर्दानगी से चार आदमियों को बेकाम किया उतनी देर में भूतनाथ की चालाकी और फुर्ती की बदौलत तीस आदमी बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। भूतनाथ के बदन पर भी हल्के दो-चार जख्म लगे, साथ ही इसके भूतनाथ को इस बात का भी विश्वास हो गया कि शेरअलीखां जो कई जख्म खा चुका था ज्यादा देर तक इन लोगों के मुकाबले में ठहर न सकेगा, अतएव उसने सोचा कि जहां तक जल्द हो सके इस लड़ाई का फैसला कर ही देना चाहिए, ताज्जुब नहीं कि अपने साथियों को गिरते देख दुश्मनों का जोश बढ़ जाये, मगर उधर तो मामला ही दूसरा हो गया। अपने साथियों को बिना जख्म खाये गिरते और बेहोश होते देख दुश्मनों को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और उन्होंने सोचा कि भूतनाथ केवल ऐयार, बहादुर और लड़ाका ही नहीं है बल्कि किसी देवता का प्रबल इष्ट भी रखता है जिससे ऐसा हो रहा है। इस खयाल के आने के साथ ही उन लोगों ने भागने का इरादा किया मगर ताज्जुब की बात थी कि वह रास्ता जिधर से वे लोग आये थे एकदम बन्द हो गया था। इस सबब से पीठ दिखाकर भागने वालों की जान पर भी आफत आई। इधर तो शेरअलीखां की तलवार ने कई सिपाहियों का फैसला किया और इधर भूतनाथ ने तिलिस्मी खंजर का कब्जा दबाया जिससे बिजली की तरह चमक पैदा हुई और भागने वालों की आंखें एकदम बन्द हो गईं। फिर क्या था, भूतनाथ ने थोड़ी ही देर में तिलिस्मी खंजर की बदौलत बाकी बचे हुओं को भी बेहोश कर दिया और उस समय गिनती करने पर मालूम हुआ कि दुश्मन सिर्फ पैंतालीस आदमी थे। कल्याणसिंह ने यह बात झूठ कही थी कि मेरे साथ सौ सिपाही इस मकान में मौजूद हैं या आया ही चाहते हैं।
इतनी बड़ी लड़ाई और कोलाहल का चुपचाप निपटारा होना असम्भव था। गुलशोर, मार-काट और धरो-पकड़ो की आवाज ने मकान के बाहर तक खबर पहुंचा दी। पहरे वाले सिपाहियों में से एक सिपाही ऊपर चढ़ आया और यहां का हाल देख घबराकर नीचे उतर आया और अपने साथियों को खबर की। उसी समय यह बात चारों तरफ फैल गई और थोड़ी ही देर में राजा वीरेन्द्रसिंह के बहुत-से सिपाही शेरअलीखां के कमरे में आ मौजूद हुए। उस समय लड़ाई खत्म हो चुकी थी और शेरअलीखां तथा भूतनाथ जिसने पुनः अपने चेहरे पर नकाब डाल ली थी बेहोश, जख्मी और मरे हुए दुश्मनों को खुशी की निगाहों से देख रहे थे। शेरअलीखां ने राजा वीरेन्द्रसिंह के आदमियों को देखकर कहा, ''तहखाने की एक गुप्त राह से राजा वीरेन्द्रसिंह का दुश्मन कल्याणसिंह इतने आदमियों को लेकर बुरी नीयत से यहां आया था मगर (भूतनाथ की तरफ इशारा करके) इस बहादुर की मदद से मेरी जान बच गई और राजा वीरेन्द्रसिंह का भी कुछ नुकसान न हुआ। अब तुम लोग जहां तक जल्द हो सके जिनमें जान है उन्हें कैदखाने भेजवाने का और मुर्दों के जलवा देने का बन्दोबस्त करो और कमरे को भी साफ कर दो।''
इसके बाद उस कोठरी में जिसमें से कल्याणसिंह और उसके साथी लोग निकले थे ताला बन्द करके शेरअलीखां भूतनाथ का हाथ पकड़े हुए कमरे के बाहर सहन में निकल आया और एक किनारे खड़ा होकर बातचीत करने लगा।
शेरअली - इस समय आपके आ जाने से केवल मेरी जान ही नहीं बची बल्कि राजा वीरेन्द्रसिंह का भी बहुत कुछ फायदा हुआ, हां यह तो कहिये आप यहां कैसे आ पहुंचे किसी ने रोका नहीं!
भूत - मुझे कोई भी नहीं रोक सकता। तेजसिंह ने मुझे एक ऐसी चीज दे रक्खी है जिसकी बदौलत मैं राजा वीरेन्द्रसिंह की हुकूमत के अन्दर महल छोड़कर जहां चाहे वहां जा सकता हूं। कोई रोकने वाला नहीं। यहां मेरा आना कैसे हुआ इसका जवाब भी देता हूं। मुझे और इन्द्रदेव के ऐयार सर्यूसिंह को किसी तरह इस बात की खबर लग गई कि राजा शिवदत्त और कल्याणसिंह कैद से छूट गये हैं और बहुत से लड़ाकों को लेकर तहखाने के रास्ते से रोहतासगढ़ में पहुंच फसाद मचाया चाहते हैं। इस खबर ने हम दोनों को होशियार कर दिया। सर्यूसिंह तो दुश्मनों के साथ भेष बदले हुए तहखाने में जा घुसा और मैं बाहर से इन्तजार करने के लिए आया था। यह न समझियेगा कि मैं सीधा आप ही के पास चला आया, नहीं मैं हर तरह का इन्तजाम करने के बाद यहां आया हूं। इस समय इस किले के अन्दर वाली फौज लड़ने के लिए तैयार और मुस्तैद है, बहादुर लोग चौकन्ने और महल के सब दरवाजों पर मुस्तैद हैं। तोपें गोले उगलने के लिए तैयार हैं और ऐयारों के जाल भी हर तरह फैले हुए हैं। मगर इस बात की खबर मुझे कुछ भी नहीं है कि तहखाने के अन्दर क्या हो रहा है या क्या हुआ।
शेरअली - बेशक तहखाने के अन्दर दुश्मनों ने जरूर गहरा उत्पात मचाया होगा। अफसोस आज ही के दिन राजा वीरेन्द्रसिंह वगैरह को तहखाने के अन्दर जाना था!
भूत - इस खबर ने तो मुझे और भी बदहवास कर रक्खा है। क्या करूं तहखाने का कुछ भी भेद मुझे मालूम नहीं है और न उसके पेचीले तथा मकड़ी के जाले की तरह उलझन डालने वाले रास्तें की ही मुझे अच्छी तरह खबर है, नहीं तो इस समय मैं अवश्य तहखाने के अन्दर पहुंचता और अपनी बहादुरी तथा ऐयारी का तमाशा दिखलाता!
शेरअली - बेशक ऐसा ही है। इस समय मेरा दिल भी इस खयाल से बेचैन हो रहा है कि तहखाने के अन्दर जाकर राजा साहब की कुछ भी मदद नहीं कर सकता। अभी थोड़ी ही देर हुई जब मेरे दिल में यह बात पैदा हुई कि जिस राह से कल्याणसिंह और उसके मददगार इस कमरे में आये हैं इसी राह से हम लोग भी तहखाने के अन्दर जाकर कोई काम करें मगर बड़े ताज्जुब की बात है कि वह रास्ता बन्द हो गया। लेकिन जहां तक मैं खयाल करता हूं यह काम कल्याणसिंह के किसी पक्षपाती का नहीं है।
भूत - मैं भी ऐसा ही समझता हूं। (कुछ सोचकर) हां एक बात और भी मेरे ध्यान में आती है।
शेरअली - वह क्या?
भूत - यह तो निश्चय हो ही गया कि हम लोग किसी तरह तहखाने के अन्दर जाकर मदद नहीं कर सकते और न इस किले में रहने में ही किसी तरह का फायदा है।
शेरअली - बेशक ऐसा ही है।
भूत - तब हमको खोह के उस मुहाने पर पहुंचना चाहिए जिस राह से दुश्मन लोग तहखाने में आये हैं। ताज्जुब नहीं कि दुश्मन लोग अपना काम करके या भाग के उसी राह से तहखाने के बाहर निकलें। यदि ऐसा हुआ तो निःसन्देह हम लोग कोई अच्छा काम कर सकेंगे।
शेरअली - (खुश होकर) ठीक है, बेशक ऐसा ही होगा। तो अब विलम्ब करना उचित नहीं है, चलिए और जल्दी चलिए।
भूत - चलिए मैं तैयार हूं।
इतना कहकर भूतनाथ और शेरअलीखां ने राजा वीरेन्द्रसिंह के आदमियों को लाशों को उठवाने और जिन्दों को कैद करने के विषय में पुनः समझा-बुझाकर तथा और भी कुछ कह-सुनकर किले के बाहर का रास्ता लिया और बहुत जल्द उस ठिकाने जा पहुंचे जहां के लिए इरादा कर चुके थे।