बाईसवाँ अध्याय

गृहके आन्तरिक कक्ष

( १ ) घरके भीतर किस दिशामें कौन - सा कक्ष होना चाहिये - इसको विभिन्न ग्रन्थोंमें इस प्रकार बताया गया हैं -

पूर्वमें - स्त्रानगृह ।

आग्नेयमें - रसोई ।

दक्षिणमें - शयनकक्ष, ओखली रखनेका स्थान ।

नैऋत्य - शस्त्रागार, सुतिकागृह, वस्त्र रखनेका स्थान, गृहसामग्री, शौचालय, बड़े भाई अथवा पिताका कमरा ।

पश्चिममें - भोजन करनेका स्थान ।

वायव्यमें - अन्न - भण्डार, पशुगृह, शौचालय ।

उत्तरमें - देवगृह, भण्डार, जल रखनेका स्थान, धन - संग्रहका स्थान ।

ईशानमें - देवगृह ( पूजागृह ), जल रखनेका स्थान ।

पुर्व - आग्नेयमें - मन्थन - कार्य करनेका स्थान ।

आग्नेय - दक्षिणमें - घृत रखनेका स्थान ।

दक्षिण - नैऋत्य - शौचालय ।

नैऋत्य - पश्चिममें - विद्याभ्यास ।

पश्चिम - वायव्यमें - रोदनगृह ।

वायव्य - उत्तरमें - रतिगृह ।

उत्तर - ईशानमें - औषध रखने तथा चिकित्सा करनेका स्थान । ईशान - पूर्वमें - सब वस्तुओंका संग्रह करनेका स्थान ।

( २ ) तहखाना पूर्व, उत्तर अथवा ईशानकी तरफ बनाना चाहिये ।

( ३ ) भारी सामान नै दिशामें रखना चाहिये । पूर्व, उत्तर अथवा ईशानमें भारी सामान यथासम्भव नहीं रखना चाहिये ।

( ४ ) जिस कार्यमें अग्रिकी आवश्यकता पड़ती हो, वह कार्य आग्नेय दिशामें करना चाहिये ।

( ५ ) दीपकका मुख यदि पूर्वकी ओर करके रखा जाय तो आयुकी वृद्धि होती है, उत्तरकी ओर करके रखा जाय तो धनकी प्राप्ति होती है, पश्चिमकी ओर करके रखा जाय तो हानि होती है । वर्तमानमें दीपककी जगह बल्ब, टय़ूबलाइट आदि समझने चाहिये ।

( ६ ) बीचमें नीचा तथा चारों ओर ऊँचा आँगन होनेसे पुत्रका नाश होता है ।

( ७ ) यदि घरके पश्चिममें दो दरवाजे अथवा दो कमरे हों, तो उस घरमेम रहनेसे दुःखकी प्राप्ति होती हैं ।

( ८ ) दूकान, आफिस, फैक्ट्री आदिमें मालिकको पूर्व अथवा उत्तरकी ओर मुख करके बैठना चाहिये ।

( ९ ) दूकानकी वायव्य दिशामें रखना चाहिये । भारी मशीन आदि पश्चिम - दक्षिणमें रखनी चाहिये ।

( १० ) दुकानका मुख वायव्य दिशामें होनेसे बिक्री अच्छी होती हैं ।

( ११ ) ईशान दिशामें पति - पत्नीको शयन नहीं करना चाहिये, अन्यथा कोई बड़ा रोग हो सकता है ।

( १२ ) पूजा - पाठ , ध्यान, विद्याध्ययन आदि सभी शुभ कार्य पूर्व अथवा उत्तर दिशाकी ओर मुख करके ही करने चाहिये ।

( १३ ) नृत्यशाला पूर्व, पश्चिम, वायव्य और आग्नेय दिशामें बनानी चाहिये ।

( १४ ) घरके नैऋत्य भागमें किरायेदार या अतिथिको नहीं ठहराना चाहिये, अन्यथा वह स्थायी हो सकता है । उन्हें वायव्य भागमें ठहराना ही उचित है ।

( १५ ) पशुशाला -

( क ) गौशालाके लिये ' वृष ' आय श्रेष्ठ ( शुभ ) है । घुड़सालके लिये ' ध्वज ', ' वृष ' और ' खर ' आय श्रेष्ठ है ।

हाथीके निवासमें ' गज ' और ' ध्वज ' आय श्रेष्ठ है । ऊँटके निवासमें ' गज ' और ' वृष ' आय श्रेष्ठ है । ( ' आय ' निकालनेकी विधि बारहवें अध्यायमें देखें )

( ख ) गृहस्वामीके हाथसे भूमिकी लम्बाई और चौड़ाईको जोड़कर आठका भाग दें । जो शेष बचे, उसका फल इस प्रकार है - १ - पशुहनि, २ - पशुरोग, ३ - पशुलाभ, ४ - पशुक्षय, ५ - पशुनाश, ६ - पशुवृद्धि, ७ - पशुभेद, ८ - बहुत पशु ।

( ग ) भैंस, बकरे और भेड़के रहनेका स्थान दक्षिण और आग्नेयके बीचमें बनाना श्रेष्ठ है । गधे और ऊँटका स्थान ईशान और पूर्वके बीचमें बनाना श्रेष्ठ है ।

( घ ) पूर्व अथवा पश्चिम मुख घोड़ोंको बाँधनेसे गृहस्वामीका तेज नष्ट होता है । उत्तर अथवा दक्षिण मुख बाँधनेसे कीर्ति, यश, धन - धान्यकी वृद्धि होती है ।

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