तेरहवां अध्याय
श्री भगवान् बोले -
कौन्तेय, यह तन क्षेत्र है ज्ञानी बताते हैं यही |
जो जानता इस क्षेत्र को क्षेत्रज्ञ कहलाता वही ॥१॥
हे पार्थ, क्षेत्रों में मुझे क्षेत्रज्ञ जान महान तू |
क्षेत्रज्ञ एवं क्षेत्र का सब ज्ञान मेरा जान तू ॥२॥
वह क्षेत्र जो, जैसा, जहाँ से, जिन विकारों-युत, सभी |
संक्षेप में सुन, जिस प्रभाव समेत वह क्षेत्रज्ञ भी ॥३॥
बहु भाँति ऋषियों और छन्दों से अनेक प्रकार से |
गाया पदों में ब्रह्मसूत्रों के सहेतु विचार से ॥४॥
मन बुद्धि एवं महाभूत प्रकृति अहंकृत भाव भी |
पाँचों विषय सब इन्द्रियों के और इन्द्रियगण सभी ॥५॥
सुख-दुःख इच्छा द्वेष धृत्ति संघात एवं चेतना |
संक्षेप में यह क्षेत्र है समुदाय जो इनका बना ॥६॥
अभिमान दम्भ अभाव, आर्जव, शौच, हिंसाहीनता |
थिरता, क्षमा, निग्रह तथा आचार्य-सेवा दीनता ॥७॥
इन्द्रिय-विषय-वैराग्य एवं मद सदैव निवारना |
जीवन, जरा, दुख, रोग. मृत्यु सदोष नित्य विचारना ॥८॥
नहिं लिप्त नारी पुत्र में, सब त्यागना फल-वासना |
नित शुभ अशुभ की प्राप्ति में भी एकसा रहना बना ॥९॥
मुझमें अनन्य विचार से व्यभिचार विरहित भक्ति हो |
एकान्त का सेवन, न जन समुदाय में आसक्ति हो ॥१०॥
अध्यात्मज्ञान व तत्त्वज्ञान विचार, यह सब ज्ञान है |
विपरीत इनके और जो कुछ है सभी अज्ञान है ॥११॥
अब वह बताता ज्ञेय जिसके ज्ञान से निस्तार है |
नहिं सत् असत्, परब्रह्म तो अनादि और अपार है ॥१२॥
सर्वत्र उसके पाणि पद सिर नेत्र मुख सब ओर ही |
सब ओर उसके कान हैं, सर्वत्र फैला है वही ॥१३॥
इन्द्रिय-गुणों का भास उसमें किन्तु इन्द्रिय-हीन है |
हो अलग जग-पालक, निर्गुण होकर गुणों में लीन है ॥१४॥
भीतर व बाहर प्राणियों में दूर भी है पास भी
वह चर अचर अति सूक्ष्म है जाना नहीं जाता कभी ॥१५॥
अविभक्त होकर प्राणियों में वह विभक्त सदैव है |
वह ज्ञेय पालक और नाशक जन्मदाता देव है ॥१६॥
वह ज्योतियों की ज्योति है, तम से परे है, ज्ञान है |
सब में बसा है, ज्ञेय है, वह ज्ञानगम्य महान् है ॥१७॥
यह क्षेत्र, ज्ञान, महान् ज्ञेय, कहा गया संक्षेप से |
हे पार्थ, इसको जान मेरा भक्त मुझमें आ बसे ॥१८॥
यह प्रकृति एवं पुरुष दोनों ही अनादि विचार हैं |
पैदा प्रकृति से ही समझ, गुण तीन और प्रकार हैं ॥१९॥
है कार्य एवं करण की उत्पत्ति कारण प्रकृति ही |
इस जीव को कारण कहा, सुख-दुःख भोग निमित्त्त ही ॥२०॥
रहकर प्रकृति में नित पुरुष, करता प्रकृति-गुण भोग है |
अच्छी बुरी सब योनियाँ, देता यही गुण-योग है ॥२१॥
द्रष्टा व अनुमन्ता सदा, भर्ता प्रभोक्ता शिव महा |
इस देह में परमात्मा, उस पर-पुरुष को है कहा ॥२२॥
ऐसे पुरुष एवं प्रकृति को, गुण सहित जो जान ले |
बरताव कैसा भी करे वह जन्म फिर जग में न ले ॥२३॥
कुछ आप ही में आप आत्मा देखते हैं ध्यान से |
कुछ कर्म-योगी कर्म से, कुछ सांख्य-योगी ज्ञान से ॥२४॥
सुन दूसरों से ही किया करते भजन अनजान हैं |
तरते असंशय मृत्यु वे, श्रुति में लगे मतिमान् हैं ॥२५॥
जानो चराचर जीव जो पैदा हुए संसार में |
सब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से विस्तार में ॥२६॥
अविनाशि, नश्वर सर्वभूतों में रहे सम नित्य ही |
इस भाँति ईश्वर को पुरुष जो देखता देखे वही ॥२७॥
जो देखता समभाव से ईश्वर सभी में व्याप्त है |
करता न अपनी घात है, करता परमपद प्राप्त है ॥२८॥
करती प्रकृति सब कर्म, आत्मा है अकर्ता नित्य ही |
इस भाँति से जो देखता है, देखता है जन वही ॥२९॥
जब प्राणियों की भिन्नता जन एक में देखे सभी |
विस्तार देखे एक से ही, ब्रह्म को पाता तभी ॥३०॥
यह ईश अव्यय, निर्गुण और अनादि होने से सदा |
करता न होता लिप्त है, रह देह में भी सर्वदा ॥३१॥
नभ सर्वव्यापी सूक्ष्म होने से न जैसे लिप्त हो |
सर्वत्र आत्मा देह में रहकर न वैसे लिप्त हो ॥३२॥
ज्यों एक रवि सम्पूर्ण जग में तेज भरता है सदा |
यों ही प्रकाशित क्षेत्र को क्षेत्रज्ञ करता सर्वदा ॥३३॥
क्षेत्रज्ञ एवं क्षेत्र अन्तर, ज्ञान से समझें सही |
समझें प्रकृति से छूटना, जो ब्रह्म को पाते वही ॥३४॥
ॐ तत्सदिति त्रयोदशोऽध्यायः ॥
तेरहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१३॥
श्री भगवान् बोले -
कौन्तेय, यह तन क्षेत्र है ज्ञानी बताते हैं यही |
जो जानता इस क्षेत्र को क्षेत्रज्ञ कहलाता वही ॥१॥
हे पार्थ, क्षेत्रों में मुझे क्षेत्रज्ञ जान महान तू |
क्षेत्रज्ञ एवं क्षेत्र का सब ज्ञान मेरा जान तू ॥२॥
वह क्षेत्र जो, जैसा, जहाँ से, जिन विकारों-युत, सभी |
संक्षेप में सुन, जिस प्रभाव समेत वह क्षेत्रज्ञ भी ॥३॥
बहु भाँति ऋषियों और छन्दों से अनेक प्रकार से |
गाया पदों में ब्रह्मसूत्रों के सहेतु विचार से ॥४॥
मन बुद्धि एवं महाभूत प्रकृति अहंकृत भाव भी |
पाँचों विषय सब इन्द्रियों के और इन्द्रियगण सभी ॥५॥
सुख-दुःख इच्छा द्वेष धृत्ति संघात एवं चेतना |
संक्षेप में यह क्षेत्र है समुदाय जो इनका बना ॥६॥
अभिमान दम्भ अभाव, आर्जव, शौच, हिंसाहीनता |
थिरता, क्षमा, निग्रह तथा आचार्य-सेवा दीनता ॥७॥
इन्द्रिय-विषय-वैराग्य एवं मद सदैव निवारना |
जीवन, जरा, दुख, रोग. मृत्यु सदोष नित्य विचारना ॥८॥
नहिं लिप्त नारी पुत्र में, सब त्यागना फल-वासना |
नित शुभ अशुभ की प्राप्ति में भी एकसा रहना बना ॥९॥
मुझमें अनन्य विचार से व्यभिचार विरहित भक्ति हो |
एकान्त का सेवन, न जन समुदाय में आसक्ति हो ॥१०॥
अध्यात्मज्ञान व तत्त्वज्ञान विचार, यह सब ज्ञान है |
विपरीत इनके और जो कुछ है सभी अज्ञान है ॥११॥
अब वह बताता ज्ञेय जिसके ज्ञान से निस्तार है |
नहिं सत् असत्, परब्रह्म तो अनादि और अपार है ॥१२॥
सर्वत्र उसके पाणि पद सिर नेत्र मुख सब ओर ही |
सब ओर उसके कान हैं, सर्वत्र फैला है वही ॥१३॥
इन्द्रिय-गुणों का भास उसमें किन्तु इन्द्रिय-हीन है |
हो अलग जग-पालक, निर्गुण होकर गुणों में लीन है ॥१४॥
भीतर व बाहर प्राणियों में दूर भी है पास भी
वह चर अचर अति सूक्ष्म है जाना नहीं जाता कभी ॥१५॥
अविभक्त होकर प्राणियों में वह विभक्त सदैव है |
वह ज्ञेय पालक और नाशक जन्मदाता देव है ॥१६॥
वह ज्योतियों की ज्योति है, तम से परे है, ज्ञान है |
सब में बसा है, ज्ञेय है, वह ज्ञानगम्य महान् है ॥१७॥
यह क्षेत्र, ज्ञान, महान् ज्ञेय, कहा गया संक्षेप से |
हे पार्थ, इसको जान मेरा भक्त मुझमें आ बसे ॥१८॥
यह प्रकृति एवं पुरुष दोनों ही अनादि विचार हैं |
पैदा प्रकृति से ही समझ, गुण तीन और प्रकार हैं ॥१९॥
है कार्य एवं करण की उत्पत्ति कारण प्रकृति ही |
इस जीव को कारण कहा, सुख-दुःख भोग निमित्त्त ही ॥२०॥
रहकर प्रकृति में नित पुरुष, करता प्रकृति-गुण भोग है |
अच्छी बुरी सब योनियाँ, देता यही गुण-योग है ॥२१॥
द्रष्टा व अनुमन्ता सदा, भर्ता प्रभोक्ता शिव महा |
इस देह में परमात्मा, उस पर-पुरुष को है कहा ॥२२॥
ऐसे पुरुष एवं प्रकृति को, गुण सहित जो जान ले |
बरताव कैसा भी करे वह जन्म फिर जग में न ले ॥२३॥
कुछ आप ही में आप आत्मा देखते हैं ध्यान से |
कुछ कर्म-योगी कर्म से, कुछ सांख्य-योगी ज्ञान से ॥२४॥
सुन दूसरों से ही किया करते भजन अनजान हैं |
तरते असंशय मृत्यु वे, श्रुति में लगे मतिमान् हैं ॥२५॥
जानो चराचर जीव जो पैदा हुए संसार में |
सब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से विस्तार में ॥२६॥
अविनाशि, नश्वर सर्वभूतों में रहे सम नित्य ही |
इस भाँति ईश्वर को पुरुष जो देखता देखे वही ॥२७॥
जो देखता समभाव से ईश्वर सभी में व्याप्त है |
करता न अपनी घात है, करता परमपद प्राप्त है ॥२८॥
करती प्रकृति सब कर्म, आत्मा है अकर्ता नित्य ही |
इस भाँति से जो देखता है, देखता है जन वही ॥२९॥
जब प्राणियों की भिन्नता जन एक में देखे सभी |
विस्तार देखे एक से ही, ब्रह्म को पाता तभी ॥३०॥
यह ईश अव्यय, निर्गुण और अनादि होने से सदा |
करता न होता लिप्त है, रह देह में भी सर्वदा ॥३१॥
नभ सर्वव्यापी सूक्ष्म होने से न जैसे लिप्त हो |
सर्वत्र आत्मा देह में रहकर न वैसे लिप्त हो ॥३२॥
ज्यों एक रवि सम्पूर्ण जग में तेज भरता है सदा |
यों ही प्रकाशित क्षेत्र को क्षेत्रज्ञ करता सर्वदा ॥३३॥
क्षेत्रज्ञ एवं क्षेत्र अन्तर, ज्ञान से समझें सही |
समझें प्रकृति से छूटना, जो ब्रह्म को पाते वही ॥३४॥
ॐ तत्सदिति त्रयोदशोऽध्यायः ॥
तेरहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१३॥