श्री भगवान् बोले
है मूल ऊपर, शाख नीचे, पत्र जिनके वेद हैं ॥
वे वेदवित् जो जानते अश्वत्थ-अव्यय भेद हैं ॥१॥
पल्लव विषय, गुण से पली अध-ऊर्ध्व शाखा छा रहीं ॥
नर-लोक में नीचे जड़ें, कर्मानुबन्धी जा रहीं ॥२॥
उसका यहाँ मिलता स्वरूप, न आदि मध्याधार से ॥
दृढ़मूल यह अश्वत्थ काट असंग शस्त्र-प्रहार से ॥३॥
फिर वह निकालो ढूँढ़कर, पद श्रेष्ठ ठीक प्रकार से ॥
कर प्राप्त जिसको फिर न लौटे, छूटकर संसार से ॥३॥
मैं शरण उसकी हूँ, पुरुष जो आदि और महान है ॥
उत्पन्न जिससे सब पुरातन, यह प्रवृत्ति-विधान है ॥४॥
जीता जिन्हों ने संग-दोष, न मोह जिनमें मान है ॥
मन में सदा जिनके जगा अध्यात्म-ज्ञान प्रधान है ॥४॥
जिनमें न कोई कामना, सुख-दुःख और न द्वन्द्व ही ॥
अव्यय परमपद को सदा, ज्ञानी पुरुष पाते वही ॥५॥
जिसमें न सूर्य प्रकाश, चन्द्र न आग ही का काम है ॥
लौटे न जन जिसमें पहुँच, मेरा वही परधाम है ॥६॥
इस लोक में मेरा सनातन अंश है यह जीव ही ॥
मन के सहित छः प्रकृतिवासी खींचता इन्द्रिय वही ॥७॥
जब जीव लेता देह, अथवा त्यागता सम्बन्ध को ॥
करता ग्रहण इनको सुमन से वायु जैसे गन्ध को ॥८॥
रसना, त्वचा, दृग, कान, एवं नाक मन-आश्रय लिये ॥
यह जीव सब सेवन किया करता विषय निर्मित किये ॥९॥
जाते हुए तन त्याग, रहते, भोगते गुणयुक्त भी ॥
जानें न इसको मूढ़ मानव, जानते ज्ञानी सभी ॥१०॥
कर यत्न योगी आपमें इसको बसा पहिचानते ॥
पर यत्न करके भी न मूढ़, अशुद्ध आत्मा जानते ॥११॥
जिससे प्रकाशित है जगत् , जो तेज दिव्य दिनेश में ॥
वह तेज मेरा तेज है, जो अग्नि में राकेश में ॥१२॥
क्षिति में बसा निज तेज से, मैं प्राणियों को धर रहा ॥
रस रूप होकर सोम, सारी पुष्ट औषधि कर रहा ॥१३॥
मैं प्राणियों में बस रहा, हो रूप वैश्वानर महा ॥
पाचन चतुर्विध अन्न, प्राणापान-युत होकर रहा ॥१४॥
सुधि ज्ञान और अपोह मुझसे, मैं सभी में बस रहा ॥
वेदान्तकर्ता वेदवेद्य सुवेदवित् मुझको कहा ॥१५॥
इस लोक में क्षर और अक्षर, दो पुरुष हैं सर्वदा ॥
क्षर सर्व भूतों को कहा, कूटस्थ है अक्षर सदा ॥१६॥
कहते जिसे परमात्मा, उत्तम पुरुष इनसे परे ॥
त्रैलोक्य में रह ईश अव्यय, सर्व जग पोषण करे ॥१७॥
क्षर और अक्षर से परे, मैं श्रेष्ठ हूँ संसार में ॥
इस हेतु पुरुषोत्तम कहाया वेद लोकाचार में ॥१८॥
तज मोह पुरुषोत्तम मुझे, जो पार्थ, लेता जान है ॥
सब भाँति वह सर्वज्ञ हो, भजता मुझे मतिमान् है ॥१९॥
मैंने कहा यह गुप्त से भी गुप्त ज्ञान महान् है ॥
यह जानकर करता सदा जीवन सफल मतिमान् है ॥२०॥
ॐ तत्सदिति पञ्चदशोऽध्यायः
पन्द्रहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१५॥
है मूल ऊपर, शाख नीचे, पत्र जिनके वेद हैं ॥
वे वेदवित् जो जानते अश्वत्थ-अव्यय भेद हैं ॥१॥
पल्लव विषय, गुण से पली अध-ऊर्ध्व शाखा छा रहीं ॥
नर-लोक में नीचे जड़ें, कर्मानुबन्धी जा रहीं ॥२॥
उसका यहाँ मिलता स्वरूप, न आदि मध्याधार से ॥
दृढ़मूल यह अश्वत्थ काट असंग शस्त्र-प्रहार से ॥३॥
फिर वह निकालो ढूँढ़कर, पद श्रेष्ठ ठीक प्रकार से ॥
कर प्राप्त जिसको फिर न लौटे, छूटकर संसार से ॥३॥
मैं शरण उसकी हूँ, पुरुष जो आदि और महान है ॥
उत्पन्न जिससे सब पुरातन, यह प्रवृत्ति-विधान है ॥४॥
जीता जिन्हों ने संग-दोष, न मोह जिनमें मान है ॥
मन में सदा जिनके जगा अध्यात्म-ज्ञान प्रधान है ॥४॥
जिनमें न कोई कामना, सुख-दुःख और न द्वन्द्व ही ॥
अव्यय परमपद को सदा, ज्ञानी पुरुष पाते वही ॥५॥
जिसमें न सूर्य प्रकाश, चन्द्र न आग ही का काम है ॥
लौटे न जन जिसमें पहुँच, मेरा वही परधाम है ॥६॥
इस लोक में मेरा सनातन अंश है यह जीव ही ॥
मन के सहित छः प्रकृतिवासी खींचता इन्द्रिय वही ॥७॥
जब जीव लेता देह, अथवा त्यागता सम्बन्ध को ॥
करता ग्रहण इनको सुमन से वायु जैसे गन्ध को ॥८॥
रसना, त्वचा, दृग, कान, एवं नाक मन-आश्रय लिये ॥
यह जीव सब सेवन किया करता विषय निर्मित किये ॥९॥
जाते हुए तन त्याग, रहते, भोगते गुणयुक्त भी ॥
जानें न इसको मूढ़ मानव, जानते ज्ञानी सभी ॥१०॥
कर यत्न योगी आपमें इसको बसा पहिचानते ॥
पर यत्न करके भी न मूढ़, अशुद्ध आत्मा जानते ॥११॥
जिससे प्रकाशित है जगत् , जो तेज दिव्य दिनेश में ॥
वह तेज मेरा तेज है, जो अग्नि में राकेश में ॥१२॥
क्षिति में बसा निज तेज से, मैं प्राणियों को धर रहा ॥
रस रूप होकर सोम, सारी पुष्ट औषधि कर रहा ॥१३॥
मैं प्राणियों में बस रहा, हो रूप वैश्वानर महा ॥
पाचन चतुर्विध अन्न, प्राणापान-युत होकर रहा ॥१४॥
सुधि ज्ञान और अपोह मुझसे, मैं सभी में बस रहा ॥
वेदान्तकर्ता वेदवेद्य सुवेदवित् मुझको कहा ॥१५॥
इस लोक में क्षर और अक्षर, दो पुरुष हैं सर्वदा ॥
क्षर सर्व भूतों को कहा, कूटस्थ है अक्षर सदा ॥१६॥
कहते जिसे परमात्मा, उत्तम पुरुष इनसे परे ॥
त्रैलोक्य में रह ईश अव्यय, सर्व जग पोषण करे ॥१७॥
क्षर और अक्षर से परे, मैं श्रेष्ठ हूँ संसार में ॥
इस हेतु पुरुषोत्तम कहाया वेद लोकाचार में ॥१८॥
तज मोह पुरुषोत्तम मुझे, जो पार्थ, लेता जान है ॥
सब भाँति वह सर्वज्ञ हो, भजता मुझे मतिमान् है ॥१९॥
मैंने कहा यह गुप्त से भी गुप्त ज्ञान महान् है ॥
यह जानकर करता सदा जीवन सफल मतिमान् है ॥२०॥
ॐ तत्सदिति पञ्चदशोऽध्यायः
पन्द्रहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१५॥