कुण्डक कुमार नाम का एक
संयासी एक बार ठंड के दिनों में
हिमालय से उत्तर वाराणसी पहुँचा। वहाँ उसके
बचपन का मित्र एक सेनापति था। उसने
संयासी को राज-उद्यान में स्वच्छन्द भ्रमण की
अनुमति दी।
एक दिन कुण्डक कुमार उद्यान में बैठा तप कर रहा था कि तभी
वाराणसी का एक दुराचारी राजा अपनी प्रेमिकाओं के
साथ वहाँ प्रविष्ट हुआ। वहाँ वह उन
सुन्दरियों के साथ आमोद-प्रमोद करते हुए
सो गया। राजा को सोता छोड़ सुन्दरियाँ
बाग में भ्रमण करने लगी । तभी उनकी नज़र कुण्डक कुमार पर पड़ी जो
साधना में लीन था। सुन्दरियों ने उसका ध्यान आकृष्ट कर उसे उपदेश
सुनाने को कहा। कुण्डक कुमार ने तब उन्हें सहिष्णुता की महत्ता पर उपदेश देना प्रारंभ किया।
थोड़ी देर के बाद जब राजा की नींद टूटी और उसने अपनी
सुंदरियों को अपने पास नहीं पाया तो वह उन्हें ढूंढता हुआ कुण्डक कुमार के पास पहुँचा। एक
संयासी द्वारा उसकी सुन्दरियों का आकृष्ट हो जाना उसके
लिए असह्य था। अत: क्रोध से उसने संयासी
से पूछा कि वह उन सुन्दरियों को कौन
सा सबक सिखा रहा था। संयासी ने तब उसे
भी सहिष्णुता के महत्त्व की बात बताई जिसके परिपालन का
स्वयं उसने व्रत ले रखा था। यह सुन
राजा ने उसे कोड़ों से पिटवाया। जब वह लहुलुहान हो गया तो
राजा ने फिर पूछा कि उसके व्रत का क्या हुआ? खून
से लथपथ सन्यासी को कोई क्रोध नहीं आया और वह सहिष्णुता के
व्रत का ही गुणगान करता रहा। क्रोध
में राजा ने तब उसके हाथ, फिर पैर आदि कटवा कर वही प्रश्न
बार-बार पूछा, किन्तु संयासी हर
बार शांत भाव से सहिष्णुता के व्रत की ही गाथा गाता । अंत
में उस संयासी की सहिष्णुता से परम क्रुद्ध हो
राजा ने उसकी छाती पर लात मारी और
वापिस लौट गया।
कहा जाता है कि राजा जब वापिस लौट रहा था तभी धरती
फट गई उसके अंदर से उठती आग की लपटों ने
राजा को निगल लिया। संयासी के घाव
भी तभी स्वयमेव क्षण मात्र में भर गये थे और वह पुन:
हिमालय पर वापिस चला गया।