अरीद्वपुरा देश के राजा सिवि बड़े दान-पारमी थे। एक बार उन्होंने संकल्प लिया कि क्यों न मांगे जाने पर वे अपना अंग भी याचक को दान में दे दे। उनके संकल्प को देख शक्र ने उनकी दानवीरता की परीक्षा लेनी चाही और एक दिन वे राज-दरबार में एक साधु के भेष में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने सिवि से उसकी दोनों आँखें मांगी। राजा ने सहर्ष अपनी दोनों आँखें निकालकर देवराज को दे दी।
कुछ दिनों के बाद एक बाग में बैठ राजा सिवि ने अपने भविष्य के विषय में सोचना प्रारंभ किया तो शक्र को उन पर दया आ गयी। वे तत्काल ही सिवि के पास पहुँचे और उन्हें 'सच्चक्रिया' करने की सलाह दी।
सच्चक्रिया करते हुए तब राजा ने कहा कि यदि दान के पूर्व और दान के पश्चात् उनकी भावना याचक के लिए एक जैसी थी तो उनका पहला नेत्र वापिस लौट आए। उनके ऐसा कहते ही उनका पहला नेत्र आँख के गड्ढे में उत्पन्न हो गया।
पुन: सच्चक्रिया करते हुए उन्होंने जब कहा कि यदि दूसरी आँख के दान से उन्हें उतनी ही प्रसन्नता हुई थी जितनी पहली आँख के दान से तो उनका दूसरा नेत्र भी तत्काल उत्पन्न हो जाये। ऐसा कहते ही उनका दूसरा नेत्र भी उत्पन्न हो गया।
इस प्रकार राजा सिवि पूर्ववत् देखने लगे।