जब
वाराणसी के कुछ व्यापारी बावेरु द्वीप पहुँचे तो
वे अपने साथ एक कौवा भी ले गये। उस देश के
लोगों ने कभी भी किसी कौवे को नहीं देखा था। इसलिए उन्होंने मुँह
माँगा दाम दे उस कौवे को खरीद
लिया। कौवे की तब अच्छी आवभगत हुई। उसे
सोने के पिंजरे में रखा गया और नाना प्रकार के फल व मांस से उसका
सत्कार किया गया। दर्शनार्थी उसे देख कहते, " वाह इस पक्षी की कैसी
सुन्दर आँखें हैं। क्या सुन्दर रंग है ", आदि आदि।
दूसरी बार वाराणसी के व्यापारी जब उस द्वीप पर पहुँचे तो
वे अपने साथ एक मोर भी लेते गये, जो चुटकी
बजाने से बोलता और ताली बजाने
से नाचता था। बावेरु-वासियों ने जब उस
अद्भुत सुन्दर पक्षी को देखा तो उन्होंने उसे
भी खरीदना चाहा। व्यापारियों ने उसे हज़ार
मुद्राओं में बेचा।
लोगों ने मोर को रत्न जड़ित पिंजरे
में रखा और बढ़-चढ़ कर उसकी आवभगत की।
उस दिन के बाद से किसी ने कौवे को एक नज़र
भी नहीं देखा। एक दिन पिंजरे का द्वार खुला पाकर कौवा बाहर उड़ गया और काँव-काँव करता
मलों के ढेर पर जा बैठा। वही उसकी उपयुक्त जगह जो थी।