हे सुंदर, तुम आए थे प्रात: आज
लेकर हाथों में अरुणवर्णी पारिजात.
सोई थी नगरी, पथिक नहीं थे पथ पर,
चले गए अकेले, अपने सोने के रथ पर-
ठिठक कर एक बार मेरे वातायन की ओर
किया था तुमने अपना करुण दृष्टिपात.
हे सुंदर, तुम आए थे प्रात: आज.
स्वप्न मेरा किस गंध से हुआ सुवासित,
किस आनंद से कॉंप उठा घर का अँधेरा,
धूल में पड़ी नीरव मेरी वीणा
बज उठी अनाहत, पाकर कौन-सा आघात.
कितनी ही बार सोचा मैंने--उठ पड़ूँ,
आलस त्याग पथ पर जा दौड़ूँ,
उठी जब, तब तुम थे चले गए--
अब तो शायद न होगा तुमसे साक्षात्
हे सुंदर, तुम आए थे प्रात: आज.