तू ऐ असीर-ए-मकाँ ला-मकाँ से दूर नहीं
वो जलवा-गाह तेरे ख़ाक-दाँ से दूर नहीं

वो मर्ग़-ज़ार के बीम-ए-ख़िज़ाँ नहीं जिस में
ग़मीं न हो के तेरे आशियाँ से दूर नहीं

ये है ख़ुलासा-ए-इल्म-ए-क़लंदरी के हयात
ख़दंग-ए-जस्ता है लेकिन कमाँ से दूर नहीं

फ़ज़ा तेरी मह ओ परवीं से है ज़रा आगे
क़दम उठा ये मक़ाम आसमाँ से दूर नहीं

कहे न राह-नुमा से के छोड़ दे मुझ को
ये बात राह-रव-ए-नुक्ता-दाँ से दूर नहीं

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