किसी समय उज्जैन में एक राजा था। उसका नाम था रूपचंद । वह अंधा और लँगड़ा था। इसलिए न वह कहीं हिलडुल ही सकता था और न कोई चीज़ ही देख सकता था। राजा अपनी दशा पर आप ही बहुत दुखी हुआ। लेकिन वह कर ही क्या सकता था ? आखिर उसने यह सोच कर संतोष कर लिया कि मैंने अपने पूर्वजन्म में शायद कोई महापाप किया होगा जिसका फल आज मुझे भुगतना पड़ रहा है।
कुछ दिन बाद उस नगर में एक खबर फैल गई कि किले के बुर्ज पर एक पीपल का पेड़ है जो हवा चलते ही आदमी की तरह बोलने लगता है। यह खबर जब राजा के कानों तक पहुँची तो उसने मंत्री को बुला कर कहा कि मुझे पीपल के पेड़ के नीचे पहुँचा दो। राजा की इच्छा के अनुसार वह पीपल के पेड़ के नीचे पहुँचा दिया गया।
राजा बड़ी उत्सुकता से पेड़ की बोली सुनने के लिए बैठा रहा। लेकिन दिन भर पेड़ कुछ न बोला। तब राजा ने उस रात को भी वहीं बैठे रहने का निश्चय किया। आधी रात के करीब जब हवा चलने लगी तो पेड़ पर से कोई राजा का नाम लेकर इस तरह बोलने लगा जैसे वह उसका कभी का पुराना दोस्त हो–
'राजन् ! मेरा नाम अग्निशर्मा है। मैं एक ब्राह्मण हूँ। अनेकों पाप करने के कारण मुझे प्रेतरूप में इस पेड़ का आश्रय लेना पड़ा। जब तक मैं किसी का उपकार न करूँगा और वह हृदयपूर्वक आशीर्वाद न देगा तब तक मुझे इस शाप से छुटकारा नहीं मिलेगा। इसलिए मैं तुम्हारा उपकार करना चाहता हूँ ! इसके लिए मुझे मनुष्य की देह धर कर दूर देश जाना पड़ेगा। राहखर्च के लिए मुझे कुछ रुपयों की भी जरूरत होगी। अगर तुम कुछ धन लाकर इस पेड़ के दिया खोखले में रख दो तो मैं यहाँ से जाकर तुम्हारी आंखें चंगी करने के लिए दवा ले आऊँगा। बोलो, क्या तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास होता है?'
ये बातें सुन कर राजा रूपचंद ने सोचा- -"जो मेरी आँखें अच्छी करके, फिर चलने-फिरने की ताकत देगा उसे मैं थोड़ा धन क्या, आधा राज भी दे सकता हूँ।'
यह सोच कर उसने बहुत सा धन मँगवाया और उस पेड़ के खोखले में रखवा दिया। उस दिन से उस पेड़ में से फिर कोई आवाज नहीं सुनाई दी। इसकी वजह क्या थी ? इसकी वजह यह थी कि धन मिलते ही अग्निशर्मा का प्रेत मनुष्यरूप धर कर तुरन्त वहाँ से चल दिया था।
इस तरह' वहाँ से बहुत दूर जाने पर उसे एक गाँव दिखाई दिया। उस गाँव में एक जगह बहुत से लोग एक औरत की लाश के चारों ओर जमा होकर रो-धो रहे थे। वहीं बगल में एक नौजवान खड़ा था जिसे नहला-धुला कर एक अच्छी पोशाक पहनाई जा रही थी।
अग्निशर्मा ने जाकर पूछा- बात क्या है?' तब किसी ने बताया कि वह नौजवान उस मरी हुई औरत का पति है। हमारे देश हमारे देश का रिवाज है कि जब स्त्री मर जाती है तो पति भी उसके साथ 'सती' हो जाता है। इसीलिए लोग उसे सजा-धजा कर तैयार कर रहे हैं।'
उनकी बातें सुन कर अग्निशर्मा को बहुत क्रोध आया। उसने कहा-
'यह कहाँ का अन्याय है? किस शास्त्र में लिखा है कि स्त्री के साथ पति को भी 'सती' हो जाना चाहिए ! अलबत्ता जब मरद मर जाता है तो कहीं कहीं उसकी स्त्री चिता पर जल कर खुद भी जान दे देती है। लेकिन यह भी अच्छी प्रथा नहीं। इस तरह जब उसने बहुत देर तक उन्हें समझाया तो उन्होंने उस युवक को छोड़ दिया और अग्निशर्मा से प्रार्थना की कि वह उसी गाँव में रह जाए। लेकिन वह न ठहरा।
शर्मा वहाँ से और एक शहर में जा पहुंचा। न जाने क्यों, उस शहर के सभी लोग मुँह लटकाए बड़े उदास बैठे हुए थे। जब शर्मा ने पूछा कि
'इसकी वजह क्या है ? तुम सब इतने उदास क्यों हो?' तो किसी ने कुछ जवाब नहीं दिया।
जब शर्मा ने एक बूढ़े से जाकर पूछा तो उसने कहा-
'बेटा! दस दिन पहले एक अजीव जानवर हमारे शहर के नजदीक के जङ्गल में आकर रहने लगा। वह तब से गरजते हुए रोज हमारे शहर में आता है और लोगों को मनमानी उठा ले जाता है। उस जानवर के आठ हाथ और आठ पैर हैं। उसका सिर हाथी के सिर से भी बड़ा है। उसके दो पैने सींग हैं। लेकिन उसके एक ही आँख है जो माथे के ठीक बीचों-बीच है। यह जानकर जब मुँह खोलता है तो भयङ्कर लपटें चारों ओर छा लेती हैं।'
वह यों कह ही रहा था कि इतने में कहीं से एक भयङ्कर शब्द सुनाई दिया। तुरंत लोग सब जहाँ के तहाँ भागने लगे। यह देख कर शर्मा ने उनसे कहा-
'भाइयो ! ठहरो! भागो मत! तुम लोग कहीं - से एक बड़ा सा आइना ले आओ। मैं इस जनवर को मारने का उपाय करता हूँ।' यह सुन कर कुछ लोग जो कुछ साहसी थे तुरन्त कहीं से एक बड़ा आइना ले आए। शर्मा ने उस आइने को जानवर के आने की राह में एक बड़ी चट्टान पर खड़ा कर दिया। थोड़ी देर में वह अजीब जानवर चिंघाड़ते हुए वहाँ आया। उसके कदमों के नीचे धरती भी कॉपने लगी। आते ही वह लोगों पर टूटना ही चाहता था कि इतने में उसे आइने में अपनी ही सूरत दिखाई दी। उसने समझा कि उसके जैसा ही और एक जानवर वहाँ आकर बैठा हुआ है।
वह गुस्से से दौड़ते हुए आया और उस आइने से भिड़ गया। आइना एक ही चोट में चकनाचूर हो गया। तब उसने समझा कि उसका दुश्मन चट्टान में छिप गया है। वह दौड़ता हुआ उस चट्टान को टक्कर मारने लगा। थोड़ी ही देर में वह लहू-लुहान हो गया और वहीं गिर कर तड़प तड़प कर मर गया।
इस तरह शर्मा की चतुरता से उस शहर की एक भारी बला टल गई। शहर वालों ने भी शर्मा से वहीं रह जाने की प्रार्थना की। लेकिन शर्मा ने उन्हें समझाया कि वह राजा के काम से जा रहा है। इसलिए बीच में कहीं नहीं रुक सकता।
इस पर उन्होंने कहा--'अच्छा, तो आप याद रखिए-शहर के बाहर आपको दो राहें मिलेगी। आप दक्खिन का रास्ता न लीजिए। क्योंकि उस राह में एक घना जङ्गल पड़ेगा जिसमें अनेकों बाघ, शेर आदि खूखार जानवर और जहरीले साँप-बिच्छू भरे हैं। उस जङ्गल में गन्धर्व लोग रहते हैं जो आदमी को उधर से जिन्दा नहीं जाने देते।'
शर्मा ने उनसे बिदा ली और शहर से बाहर हो गया। थोड़ी दूर जाने पर उसे दो राहें दिखाई दीं। उसने जान-बूझ कर दक्खिन जाने वाला रास्ता पकड़ा। उस राह से थोड़ी दूर जाने पर उसे जङ्गल दिखाई दिया। जङ्गल बहुत घना था। शर्मा को कँटीली झाड़ियों में से उलझते जाना पड़ा। शीघ्र ही उसे खूखार जानवरों की गुर्राहट सुनाई दी। जमीन पर साँपों और विच्छुओं के मारे कदम धरने तक की जगह न थी। लेकिन शर्मा बिलकुल नहीं डरा। वह आगे बढ़ता ही गया।
इस तरह बड़ी कठिनाई से उस जङ्गल को पार करने पर उसे एक एक सुन्दर बगीचा दिखाई दिया। नजदीक जाते ही उसे फूलों के गन्ध ने चारों ओर से घेर लिया। वहाँ की हवा उसके थके हुए बदन में फुरती भरने लगी। वह भूख-प्यास, राह की थकान, सब कुछ भूल कर बगीचे में जाकर आराम से बैठ गया।
इतने में अन्धेरा हो गया। उस बगीचे के पेड़-पौधे तुरन्त एक तरह की विचित्र ज्योति से जगमगाने लगे। तब शर्मा ने जन लिया कि वे मामूली पेड़-पौधे नहीं हैं।
इतने में उसके पीछे से किसी ने पुकार कहा-
'कौन हो तुम ? यहाँ क्यों आए हो?'
शर्मा ने पीछे फिर कर देखा तो उसे गन्धर्वो का एक झुण्ड दिखाई दिया। उसने निडर होकर उनसे सारी कहानी कह सुनाई। तब उन गन्धों ने गरज कर कहा
“क्या तुम नहीं जानते कि यह प्राणवन है और इसमें आदमियों को प्रवेश करना मना है ? लो, अब भोगो अपनी करनी की सजा!”
यह कह कर उन्होंने शर्मा को पकड़ना चाहा। इतने में और एक गन्धर्व ने आकर पूछा- “क्या गोलमाल हो रहा है?”
तुरन्त गन्धर्व लोग अग्निशर्मा को छोड़ कर दूर हट गए। उस नए आए हुए गन्धर्व ने शर्मा को देखा तो प्रेम से गले लगा कर कहा-
'अरे अरे तुम! तुम यहाँ कैसे आ पहुँचे ?' यह देख कर दूसरे गन्धर्व हक्के-बक्के रह गए। तब उस गन्धर्व ने उनसे कहा-
“एक बार मैं शाप वश एक साँप के रूप में पृथ्वी पर पैदा हुआ। उस समय मेरे एक दुश्मन ने अकेला देख कर मुझ पर हमला किया। तब इसी शर्मा ने मेरी जान बचाई। इसी के उपकार से मेरा शाप से छुटकारा हुआ।“
यह सुन कर सभी गन्धों ने शर्मा से माफी माँगी। क्योंकि वह गन्धर्व उनका युवराज था। तब शर्मा ने अपनी कहानी सुना कर यात्रा का कारण बताया। तब युवराज ने कहा
“शर्मा! तुम पत्तों का एक दोना बनाओ! उसमें इस बगीचे के फूल-पौधों पर बरसने वाली ओस की बूंदें जमा करो। उन बूंदों को छिड़कते ही भयङ्कर से भयङ्कर बीमारियाँ दूर हो जाती हैं। उनके प्रभाव से अन्धे भी आँखें पा जाते हैं। लँगड़े चलने लगते हैं। लेकिन एक बात याद रखो! जो कृतघ्न हैं और जो अपनी बात तोड़ते हैं उन पर यह काम नहीं करता।“
यह सुन कर शर्मा ने बड़ी खुशी के साथ पत्तों का एक दोना बन.या और उसमें उस बगीचे के फूल-पौधों पर पड़ी हुई ओस की बूंदें जमा की। तब दो गन्धवों ने उसे अपने कन्धे पर पर चढ़ा कर सवेरा होने के पहले ही उज्जैन पहुँचा दिया।
शर्मा ने तुरंत राजा के पास जाकर वे ओस की बूंदें उसकी आँखों और टाँगों पर छिड़क दीं। बूदें पड़ते ही राजा की आँखें अच्छी हो गई और वह चलने फिरने भी लगा। उसे बहुत खुशी हुई। तब शर्मा ने कहा-
“राजन् ! अब आप मेरा ईनाम दे दीजिए न?”
“कैसा ईनाम ? मैं कुछ नहीं जानता ! राजा ने कहा जैसे वह कुछ जानता ही न हो।
तब शर्मा ने कहा-
“राजन् ! क्या आप ने अपने मन में नहीं कहा था कि जो मेरी आँखें अच्छी करके मुझे चलने-फिरने की ताकत देगा, उसे मैं थोड़ा धन क्या, आधा राज़ भी दे दूंगा?”
लेकिन राजा साफ मुकुर गया। तब शर्मा ने कहा-
“राजा ! तुमने सोचा कि कोई तुम्हारे मन की बात नहीं जान सकता। लेकिन सुनो! मैं बड़ी दूर जाकर तुम्हारे लिए प्राण-वन की ओस की बूंदें ले आया। लेकिन तुम अभागे हो। इसलिए अपना वादा इतनी आसानी से तोड़ गए। मुझे तुम्हारे राज की कोई दरकार नहीं। मेरा शाप छूट गया। लो, मैं जाता हूँ।“
यह कह कर शर्मा शाप से छूट कर वहाँ से चला गया। लेकिन राजा अपना वादा तोड़ कर कृतघ्न बन गया था। इसलिए वह फिर पहले की तरह अन्धा और लँगड़ा बन गया। सच है, कृतघ्न की व्याधि पर कोई दवा काम नहीं करती।