एक गाँव में एक ग़रीब आदमी रहता था । उसका इकलौता लड़का विवाह के लायक हो गया था। लेकिन उसके ज़मीन-जायदाद कुछ न थी। इसलिए उसका विवाह न हो रहा था। जैसे-जैसे दिन बीतते गए, लड़के के माँ बाप उस चिंता से घुलने लगे। एक दिन वे गाँव के एक पण्डित जी के घर गए और हाथ जोड़ कर बोले,
“पण्डित जी महाराज ! हम लोग बड़े ग़रीब हैं। लडका सयाना हो गया है। लेकिन ग़रीबी के कारण उसका विवाह नहीं हो पाता है। इसी लिए हम आपकी शरण में आए हैं। आप हमारा बेड़ा पार लगा दीजिए। जिस तरह हो, हमारे लड़के का विवाह करा दीजिए। इसका भार अब आप पर ही है।"
पण्डित जी को उन बेचारों की बातें सुन कर दया आ गई। इसलिए उन्हों ने उस लड़के का विवाह कराने का बीड़ा उठा लिया। पण्डित जी बड़े भले आदमी थे। अच्छे विद्वान भी थे। लेकिन थे बड़े भोले-भाले। दुनियादारी की बातों में बिलकुल परे थे। वे उस दिन से उस लड़के के लिए लड़की की खोज में दौड़-धूप करने लग गए। अब वे हर हमेशा उसके विवाह की बात ही सोचते रहते।
आखिर बहुत दिन तक चक्कर काटने के बाद एक गाँव में एक लड़की वाला राजी हुआ। लेकिन उसने पहले एक बार लड़के को देखना चाहा। पण्डित जी ने उसकी बात मान ली। लौट कर पण्डितजी ने लड़के के माँ बाप से कह दिया कि लड़की वाले वर को देखने आ रहे हैं। लड़के के माँ बाप बड़ी चिंता में पड़ गए। न लड़के के अंग में कोई गहना था और न लड़के की माँ के पास कोई अच्छी साड़ी ही थी।
आखिर लड़के की माँ पड़ोस के घर से अपने लिए एक अच्छी साड़ी और लड़के के लिए एक सोने का हार माँग ले आई। ऐसे शुभ काम में कौन नहीं मदद करता? उसने खुद नई साड़ी पहनी और लड़के को सोने का हार पहिना दिया। फिर सज-धज के साथ लड़की वालों की राह देखने लगी। ठीक समय पर लड़की वाले आए। आदर-सत्कार के बाद वे आसन पर बैठे और बोले
"यही लड़का है ?"
पण्डित जी ने तुरंत जवाब दिया, "हाँ, लड़का तो यही है। लेकिन एक बात सुन लीजिए। वह सोने का हार लड़के का नहीं है।"
यह सुनते ही लड़की वाले समझ गए कि लड़का बहुत ग़रीब है और यह सोने का हार कहीं से माँग लया है। उन्होंने नम्रता के साथ कहा कि वे घर जाकर खबर देंगे। ऐसा कह कर वे चलते बने।
बहुत दिन बीत गए। पर लड़की वालों के यहाँ से कोई खबर न आई। लोगों ने कहा कि यह सब पण्डित जी का दोष है। अगर उन्होंने सोने के हार की बात न खोली होती तो शादी जरूर हो जाती। पण्डित जी को भी अब अपनी गलती मालूम हो गई। बड़ी मेहनत से ढूँढ-ढाँढ़ कर उन्होंने फिर एक जगह बात ठीक की। फिर वे लोग लड़का देखने आए। पण्डित जी ने सोचा कि पिछली बार सच बोलने से काम बिगड़ गया था। इसलिए इस बार झूठ बोलना चाहिए। उन्होंने लड़की वालों से कहा,
'देख लीजिए! यही लड़का है और इसके गले में सोने का हार भी इसी का है। यह सुनते ही लड़की वालों के मन में शक पैदा हो गया।”
उन्होंने कहा, “अच्छा, घर जाकर इन आपको अपना निश्चय बता देंगे।"
यह कह कर वे अपनी राह गए। लेकिन जब उनके यहाँ से भी कोई खबर न आई तो पण्डित जी को फिर फटकार सुननी पड़ी। बेचारे को यह जान कर बढ़ा दुख हुआ कि उन्हीं की बातों ने इस बार भी बना बनाया खेल बिगाड़ दिया। इसलिए उन्होंने सोचा,
“यह तो बड़ा बुरा हुआ। मालूम होता है, ऐसे अवसरों पर न झूठ बोलने से काम चलता है और न सच बोलने से। इसलिए इस बार ऐसी बात करूंगा जो न झूठ हो और न सच| देखूँगा, इस बार कैसे नहीं काम बनता है...!"
फिर उन्होंने लड़के के माँ-बाप के पास जा कर कहा,
"कुछ चिंता न करो। इस बार में ऐसी कोई बात न करूंगा जिससे काम बिगड़ जाय।"
यह सुन कर उन्हें भी कुछ भरोसा हुआ। पण्डित जी ने फिर एक जगह बात पक्की की। लड़की वाले फिर लड़के को देखने आए। उनकी खूब खातिरदारी हुई। जय सब लोग आसनों पर बैठ गए तो पण्डित जी ने लड़के को दिखा कर कहा,
"देखिए ! यही लड़का है। ऐसा भला लड़का आपको कहीं न मिलेगा। लेकिन सुनिए उसके गले में जो सोने का हार है, उसके बारे में न तो आप का पूछना ही उचित है और न मेरा जवाब देना ही।"
उनकी बात सुन कर लड़की वालों ने समझा कि जरूर दाल में कुछ काला है। इसलिए उन्होंने कहा
“अच्छा, हम घर जाकर आपको अपने निर्णय की सूचना देंगे।”
ऐसा कह कर वे भी चले गए। उनके चले जाने के बाद गाँव-वालों ने पण्डित जी को खूब आड़े हाथ लिया। लड़के के ग़रीब माँ-बाप बहुत दुखी हुए। आखिर उन्होंने यह कह कर पण्डित जी से पिंड छुड़ा लिया,
“पण्डित जी..! आपको सैकडों प्रणाम..! आपने जो कुछ किया वही काफी है। अब आप कोई कष्ट न किजिए। लड़के के भाग्य में जैसा लिखा है, होगा।”