एक गाँव में एक बूढ़ा रहता था। उसका नाम क्या था यह तो मुझे नहीं मालूम। लेकिन गाँव के लोग उसे 'बाबा' कहते थे। बाबा बड़ा विद्वन, बुद्धिमान और दयावान था। उस गाँव के सब लोग उसका बड़ा सम्मान करते थे। उस गाँव का मुखियाँ भी वही था। गाँव के छोटे बच्चे बाबा को बहुत प्यार करते थे बाबा को देखे बिना और उससे कुछ बात किए बिना बच्चों को कल नहीं पड़ती थी। उस गाँव के सब लोग बाबा को अपने पिता के समान मानते थे। अगर किसी को कोई तकलीफ होती तो यह दौड़ा-दौड़ा बाबा के पास पहुँच जाता था। बाबा भी सबको अपने बच्चों के समान समझता और उनकी मदद करता रहता था। उसकी सलाह के बिना गाँव का कोई काम नहीं होता था।

 

बाबा बिलकुल अकेला था। न कोई बीबी, न बाल बच्चे। बाबा हमेशा कुछ न कुछ पढ़ता-लिखता रहता था। उसे अच्छे अच्छे प्रथाओं से बड़ा प्रेम था। इसी लिए उसने गाँव से थोड़ी दूर एक ऊँचे टीले पर अपना घर बना लिया था। यहाँ कई अलमारियों में उसकी किताबें जतन से रखी रहती थीं। आप यह न समझना कि उसकी किताबें हम लोगों की किताबों की तरह छपी हुई होती थीं। नहीं, उस ज़माने में छापे खाने थे कहाँ ? उस समय किताबें हाथ से ही लिखी जाती थीं इसीलिए इस में बहुत मेहनत लगती थी और उनका दाम भी बहुत ज्यादा होता था। एक एक किताब खरीदने में बहुत सा रुपया लग जाता था। बाबा की सभी किताबें बेशकीमती थीं।

बाबा के बैठक खाने से हरे-भरे खेत और मैदान दिलाई देते। यह दृश्य ऐसा लगता था मानों हरी मखमली कालीन बिछा दी गई हो। खेतों में हमेशा किसान लोग काम करते हुए दिखाई देते। बाबा यह सब देखते और एक किताब लेकर बैठ जाते और फिर तन मन की सुध भूल जाते। बिस टीले पर बाबा का घर था, उस के नीचे ही गाँव बसा था। गाँव के एक छोर पर एक नदी बहती थी। गाँव की जमीन की सतह नीची थी। इसलिए नदी के उस किनारे पर प्रवाह को रोकने के लिए पत्थरों का एक बड़ा बाँध था।

एक दिन दोपहर को बाबा घर में बैठे बैठे एक किताब पढ़ रहे थे कि, अचानक उनकी नजर नदी के बाँध पर पड़ी। बाबा जानते थे कि बाँध एक जगह कमजोर हो गया था। उसकी मरम्मत भी की गई थी। लेकिन न जाने क्यों, उसमें फिर से दरारें पड़ गई थीं। बाबा ने देखा, उन्हीं दररों से पानी धीरे-धीरे बाहर निकल रहा है। बाबा जान गए कि, थोड़ी ही देर में वह दरार में बड़ी हो जाएगी और एक घण्टे में बाँध टूट जाएगा। उन्होंने तुरंत किताब बन्द कर दी।

बाबा बड़े सोच में पड़ गए। गाँव वाले औरत-मर्द सभी खेतों में काम करने चले गए थे। घरों में बच्चों, बूढ़ों और अपाहिजयों के सिवा और कोई न थे। उन बेचारों को स्वम में भी बाँध टूटने की आशंका न हुई थी। थोड़ी ही देर में अब बाँध टूटेगा और सरा गाँव बह जाएगा तो इन लोगों को डूबने से कैसे बचाया जाय..?? बाबा के सामने यही सवाल था। बाबा बुढ़े थे। वह खुद खेतों में जाकर सब को सूचित नहीं कर सकते थे।

खर देने के लिए पास में और कोई था नहीं बचा के घर के आस-पास कोई घर भी नहीं था और इतना समय भी कहाँ था...! न जाने, बाँध कल टूट जाए तो फिर किया क्या जाय..! सोचते सोचते बाबा ने फिर एक बर दरार की ओर देखा। दरार तब तक और भी चौड़ी हो चुकी थी। पानी और भी तेजी से बहने लग गया था। बाबा ने तुरन्त रसोईघर में जाकर थोड़ी सी आग ले ली। सब से पहले झटपट उसने प्राणों से भी प्यारी अपनी किताबों में आग लगा दी। बाद घर के पिछवाड़े में पड़ी पुल फी ढेरी को फेंक दिया। कुछ क्षेत्र में टीले के चारों ओर धुँआ ही धुँआ छा गया और लपटें भड़क उठीं।

टीले पर से धुँए के घटा-टोप बादल उमड़ते देख खेतों में काम करते हुए लोग उस ओर दौड़ पड़े,

"दौड़ो...! दौड़ो...! दौड़ो...! हाय रे, बाबा के घर में आग लग गई। दौड़ो ! दौड़ो!"

सारा गँव टीले पर जमा हो गया और तुरंत से आग बुझाने की कोशिश करने लगे। लेकिन बाबा ने लोगों को डाँटकर कहा,

"डरो मत ! बेकर हल्ला मत करो। जो मैं कहता हूँ, मुस्तैदी से करो। दौड़ कर घर जाओ। बच्चे, बूढ़े, मार-मवेशी जो कुछ घर में हों, सब को झटपट कर इस टीले पर इकठ्ठा कर दो। देखना, घर में कोई छूट न जाय तुरन्त जाओ..! एक पल भी देर न करो। समय नहीं है। पीछे सब कुछ बता दूँगा।"

यह सुन कर सब लोग कश्मकश में पड़ गए। लेकिन किस की मजाल थी जो बाबा का हुक्म टालता? सब को खूब मालूम था कि, बाबा कभी झूठ नहीं बोलता और उसकी हर बात में कोई गूढ़ अर्थ जरूर रहता है। इसलिए लोगों ने जरा भी देरी न की। दौड़े-दौड़े अपने घर गए और बच्चों, बूढ़ों, माल-मवेशियों, सब को टीले पर ले आए। कोई पीछे नहीं छूटा। बाबा का मतलब किसी की समझ में नहीं आता था। सब लोग अचरज में पढ़े हुए थे।

इतने में बाबा ने बाँध की तरफ उँगली उठाते हुए कहा, “जरा उधर तो देखो !”

बाबा की बात पूरी भी न हुई थी कि, भर आवाज के साथ वह बाँध टूट गया। बाँध का टूटना था कि नदी का पानी उछला और सारा गाँव डूब गया। अब बाबा की बातें सबकी समझ में आ गईं। बाबा ने उनको बचाने के लिए कितना बड़ा त्याग किया था, यह भी उनको मालूम हो गया। बाबा के प्रति उनकी श्रद्धा सौगुनी बढ़ गई। जब लोग जान गए कि, बाबा ने उनको बचाने के लिए अपनी जान से भी प्यारी किताबों में खुद अपने हाथों से आग लगाई थी, तब उनकी विशालता की हद न रही। वे फूट-फूट कर रोने लगे।

तब बाबा ने कहा, “भाइयो ! रोओ नहीं। यह सच है कि में उन किताबों को बहुत प्यार करता था। लेकिन तुम लोगों की जान बचाने के लिए किताब क्या, अपनी जान तक दे सकता हूँ। मेरे लिए यही सबसे बड़ी खुशी की बात है कि, तुम सब लोग इस तरह बाल-बाल बच कर यहाँ आ गए।"

कुछ दिन बाद जब वह गाँव फिर से आबाद हुआ तो उसका नाम पड़ा

“बाबानगर...!”

Comments
Please join our telegram group for more such stories and updates.telegram channel