१७३५ तक मराठों ने पूरे गुजरात और मालवा पर कब्ज़ा कर लिया | पर कुछ स्थानीय मुग़ल अफसर और जमींदार अभी भी मराठा हुकूमत को मानने को तैयार नहीं थे | मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह भी चौथ और सरदेशमुखी के हक मराठों को देने के अध्यादेश पर न नुकुर करने लगे | बाजीराव की मुग़ल बादशाह से मिलने के प्रयासों को भी नज़रंदाज़ कर दिया गया | मराठों ने अपना अधिपत्य स्थापित करने का फैसला किया और राजस्थान के आस पास के इलाकों को लूटने लगे | मुग़लों ने भी जवाब में वजीर कमरुद्दीन खान और मीर बक्षी खान इदौरण के नेतृत्व में अपनी सेना भेजी | पर दोनों ही टुकड़ियों को मराठा सेनापतियों( पिलाजी जाधव ने वजीर की सेना को , मल्हारराव होलकर ने मीर बक्षी की सेना को ) ने रौंद डाला |

पेशवा ने फिर मुग़ल बादशाह को ज़िंदगी भर याद रहे ऐसा सबक सिखाने का फैसला किया | बाजीराव ने अपने नेतृत्व में एक बड़ी मराठा सेना के साथ दिसम्बर १७३७ में दिल्ली की और प्रस्थान किया | उसने अपनी सेना को दो टुकड़ियों  में बांटा | एक टुकड़ी  का नेतृत्व बाजीराव कर रहे थे और दुसरे का पिलाजी जाधव और मल्हारराव होलकर | होलकर की टुकड़ी को अवध के नवाब सादत खान और आगरा के मुग़ल राज्यपाल की सेना ने हरा दिया | मल्हारराव होलकर खुद बच गए और बाजीराव की टुकड़ी के पास पहुंचे | ये सोच की लड़ाई ख़तम हो गयी सादत खान ने खुशखबरी दिल्ली भेज दी | इस जीत का जश्न मनाने के लिए और मुग़ल अफसर और सेनाध्यक्ष भी शामिल हुए जिससे दिल्ली बिना किसी सुरक्षा के रह गयी | ऐसे वक़्त में बाजीराव की सेना मुग़ल सेना को नज़रंदाज़ कर फुर्ती से १० दिन का सफ़र  सिर्फ ४८ घंटे में पूरा कर दिल्ली के बाहर पहुँच गयी |

आगे जो हुआ वह था दिल्ली के बाहरी इलाकों को पूरी तरह से लूटना | मुग़ल बादशाह खुद लाल किले में चुप गए और बाजीराव और उसके आदमी आस पास के इलाकों को ख़ुशी से लूटते रहे | मीर हस्सन कोका के नेतृत्व में ८००० सैनकों की एक टुकड़ी ने बाजीराव का सामना करने की कोशिश की पर उन्हें बुरी हार का सामना करना पड़ा और मीर हस्सन इस सब में घायल भी हो गए | इससे पहले की मुग़ल सेना संभल पाती बाजीराव अपनी सेना के साथ डेक्कन वापस आ गए | ३१ मार्च १७३७ को मराठा सेना दिल्ली को झुका अपना लूटा हुआ सामन ले वहां से चली गयी | पुणे के रास्ते में बाजीराव ने अपने भरोसे के सिपहसलार उतर और मध्य भारत में कई जगहों पर स्थापित कर दिए और भविष्य में ये उनका स्थाई निवास होना था |

बाजीराव और पुर्तगाली

बाजीराव ने पहले ही कोंकण में मनाजी अंगरे के सामने पेश पुर्तगाली खतरे को टाल दिया था | उसके बदले में अंगरे ने उन्हें हर साल ७००० रूपये की कीमत अदा करने का वादा  किया था | बाजीराव के मन में पुर्तगालियों के प्रति मलाल सल्सेत्ते द्वीप की वजह से (मुंबई का हिस्सा जो पुर्तगालियों ने मराठो को व्यव्सीय कारखाने की स्थापना के लिए देने से मन कर दिया था) जिसके बाद बाजीराव के भाई चिमाजी अप्पा (१७४१) ने पुर्तगाली इलाकों (बॉम्बे/मुंबई के पास ) में मार्च १७३८ पर हमला बोल दिया | उन्होनें सफलता पूर्वक ठाणे, पारसिक ,बेलापुर ,धारावी ,अरनाला और अंत में वेर्सोवा (फेब्रुअरी १७३९ ) और बस्सें (वसई मई १७३९ ) पर कब्ज़ा कर लिया |

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