जैसा कि उपर लिखा है, वेदों के कई शब्दों का समझना उतना सरल नहीं रहा है। इसकी वजह से इनमें वर्णित श्लोंकों को अलग-अलग अर्थों में व्यक्ति किया गया है। सबसे अधिक विवाद-वार्ता ईश्वर के स्वरूप, यानि एकमात्र या अनेक देवों के सदृश्य को लेकर हुआ है। यूरोप के संस्कृत विद्वानों की व्याख्या भी हिन्द-आर्य जाति के सिद्धांत से प्रेरित रही है। प्राचीन काल में ही इनकी सत्ता को चुनौती देकर कई ऐसे मत प्रकट हुए जो आज भी धार्मिक मत कहलाते हैं लेकिन कई रूपों में भिन्न हैं। इनका मुख्य अन्तर नीचे स्पष्ट किया गया है।

  1.     जैन - इनको मूर्ति पूजा के प्रवर्तक माना जाता है। ये अहिंसा के मार्ग पर ज़ोर देते हैं पर वेदों को श्रेष्ठ नहीं मानते।
  2.     बौद्ध - इस मत में महात्मा बुद्ध के प्रवर्तित ध्यान और तृष्णा को दुःखों का कारण बताया है। वेदों में लिखे ध्यान के महत्व को ये तो मानते हैं पर ईश्वर की सत्ता से नास्तिक हैं।
  3.     शैव - वेदों में वर्णित रूद्र के रूप शिव को सर्वोपरि समझने वाले। सनातन (यानि वैदिक) धर्म के मानने वाले शिव को एकमात्र ईश्वर का कल्याणकारी रूप मानते हैं, लेकिन शैव लोग शंकर देव के रूप (जिसमें नंदी बैल, जटा, बाघंबर इत्यादि हैं) को विश्व का कर्ता मानते हैं।
  4.     वैष्णव - विष्णु और उनके अवतारों को ईश्वर मानने वाले। वैदिक मत विष्णु को एक ईश्वर का ही वो नाम बताते हैं जिसके अनुसार सर्वत्र फैला हुआ ईश्वर विष्णु कहलाता है।
  5.     सिख - मुख्यतः उपनिषदों एवम मुस्लिम ग्रंथों पर श्रद्धा रखने वाले। इनका विश्वास एकमात्र ईश्वर में तो है, लेकिन वेदों को ईश्वर की वाणी नहीं समझते हैं।

जिन विषयों पर विवाद रहा है उनका वर्णन नीचे दिया है। यज्ञ: यज्ञ के वर्तमान रूप के महत्व को लेकर कई विद्वानों, मतों और भाष्कारों में विरोधाभाष है। यज्ञ में आग के प्रयोग को प्राचीन पारसी पूजन विधि के इतना समान होना और हवन की अत्यधिक महत्ता के प्रति विद्वानों में रूचि रही है।

देवता: देव शब्द का लेकर ही कई विद्वानों में असहमति रही है। कई मतों में (जैसे - शैव, वैष्णव और शाक्त) इसे महामनुष्य के रूप में विशिष्ट शक्ति प्राप्त साकार चरित्र मसझते हैं और उनका मूर्ति रूप में पूजन करते हैं तो अन्य कई इन्हें ईश्वर (ब्रह्म, सत्य) के ही नाम बताते हैं। परोपकार (भला) करने वाली वस्तुएँ (यथा नदी, सूर्य), विद्वान लोग और मार्गदर्शन करने वाले मंत्रों को देव कहा गया है ।

उदाहरणार्थ अग्नि शब्द का अर्थ आग न समझकर सबसे आगे यानि प्रथम यानि परमेश्वर समझते हैं। देवता शव्द का अर्थ दिव्य, यानि परमेश्वर (निराकार, ब्रह्म) की शक्ति से पूर्ण माना जाता है - जैसे पृथ्वी आदि। इसी मत में महादेव, देवों के अधिपति होने के कारण ईश्वर को कहते हैं। इसी तरह सर्वत्र व्यापक ईश्वर विष्णु और सत्य होने के कारण ब्रह्मा कहलाता है। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और महादेव किसी चरित्र के नाम नहीं बल्कि ईश्वर के ही नाम हैं।[5] इसी प्राकर गणेश (गणपति), प्रजापति, देवी, बुद्ध, लक्ष्मी इत्यादि परमेश्वर के ही नाम हैं। ऐसे लोग मूर्तिपूजा के विरूद्ध हैं और ईश्वर को एकमात्र सत्य, सर्वोपरि समझते हैं।

अश्वमेध: अस्वमेध से हिंसा और बलि का विचार आता है। यह कई हिन्दुओं को भी आश्चर्यजनक लगता है क्योंकि कई स्थानों पर शुद्धतावादी हिंसा (और मांस भक्षण) से परहेज करते रहे हैं। कईयों का मानना है कि मेध शब्द में अध्वरं का भी प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ है अहिंसा। अतः मेध का भी अर्थ कुछ और रहा होगा। इसी प्रकार अश्व शब्द का अर्थ घोड़ा न रहकर शक्ति रहा होगा। श्रीराम शर्मा आचार्य कृत भाषयों के अनुसार अश्व शब्द का अर्थ शक्ति, गौ शब्द का अर्थ पोषण है। इससे अश्वमेध का अर्थ घोड़े का बलि से इतर होती प्रतीत होती है।

सोम: कुछ लोग इसे शराब (मद्य) मानते हैं लेकिन कई अनुवादों के अनुसार इसे कूट-पीसकर बनाया जाता था। अतः ये शराब जैसा कोई पेय नहीं लगता। पर इसके असली रूप का निर्धारण नहीं हो पाया है।

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