शू्न्य नहीं होता तो आधुनिक विकास भी नहीं होता। शून्य से पहले दुनियाभर में कई तरह की अंक प्रणालियां विकसित थीं। उत्तर वैदिक काल (1000 से 500 ईस्वी पूर्व तक) में शून्य के आविष्कार के बाद ही गणित में एक क्रांति आ गई।
अंकों के मामले में विश्व भारत का ऋणी है। भारत ने अंकों के अलावा शून्य की खोज की। बीज गणित, त्रिकोणमिति और कलन की खोज भारत में ही हुई थी। स्थान मूल्य प्रणाली और दशमलव प्रणाली का विकास भी भारत में हुआ था।
2500 वर्ष प्राचीन उपलब्ध संस्कृत दस्तावेजों में भारतीयों द्वारा गणित के क्षेत्र में की गई खोजों की समृद्ध परंपरा का विवरण मिलता है। प्रारंभिक वैदिक काल में संख्याओं की दशमलव प्रणाली और अंकगणित तथा रेखागणित के नियम विकसित हो चुके थे। इन्हें मंत्रों, स्तोत्रों, स्तुतियों, श्रापों, श्लोकों, ऋचाओं और अन्य धार्मिक अनुष्ठानों की एक मुश्किल प्रणाली में लिपिबद्ध किया गया था। मंदिर के निर्माण और यज्ञ वेदियों की रचना के नियम बनाए गए थे और इन्हें सूत्रों के रूप में बांधा गया था।
उत्तर वैदिक काल में रेखागणित के सूत्रों का विकास हुआ, जो शुल्व सूत्रों के रूप में उपलब्ध है।
एक कहानी के अनुसार भगवान बुद्ध ने अपनी होने वाली पत्नी को जीतने के लिए आंकड़ों की बड़ी-बड़ी श्रृंखलाएं अपनी याददाश्त के आधार पर सुना दी थीं। बौद्धकाल में दुनिया अपने ज्ञान के चरम पर थी।
गुप्तकाल की मुख्य खोज शून्य नहीं, मुख्य खोज है 'शून्ययुक्त दशमिक स्थानमान संख्या प्रणाली।' गुप्त काल को भारत का स्वर्णकाल कहा जाता है। इस युग में ज्योतिष, वास्तु, स्थापत्य और गणित के कई नए प्रतिमान स्थापित किए गए। इस काल की भव्य इमारतों पर गणित के अन्य अंकों सहित शून्य को भी अंकित किया गया है।
आर्यभट्ट (जन्म 476 ई) को शून्य का आविष्कारक नहीं माना जा सकता। आर्यभट्ट ने एक नई अक्षरांक पद्धति का अविष्कार कीया था। इसके अलावा गुप्तकाल में ही ब्रह्मगुप्त, श्रीधराचार्य, महावीराचार्य आदि श्रेष्ट गणितज्ञ हुए जिनके कारण भारतीय गणित का विश्वभर में नए सिरे से प्रचार-प्रसार हुआ।