सोज़ में भी वही इक नग़्मा है जो साज़ में है
फ़र्क़ नज़दीक़ की और दूर की आवाज़ में है
ये सबब[1] है कि तड़प सीना-ए-हर-साज़[2] में है
मेरी आवाज़ भी शामिल तेरी आवाज़ में है
जो न सूरत में न म’आनी[3] में न आवाज़ में है
दिल की हस्ती भी उसी सिलसिला-ए-राज़[4] में है
आशिकों के दिले-मजरूह [5] से कोई पूछे
वो जो इक लुत्फ़ निगाहे-ग़लत -अंदाज़[6] में है
गोशे-मुश्ताक़[7] की क्या बात है अल्लाह-अल्लाह
सुन रहा हूँ मैं जो नग़्मा जो अभी साज़ में है