ये सब्जमंद-ए-चमन है जो लहलहा ना सके
वो गुल है ज़ख्म-ए-बहाराँ जो मुस्कुरा ना सके
ये आदमी है वो परवाना, सम-ए-दानिस्ता
जो रौशनी में रहे, रौशनी को पा ना सके
ये है खुलूस-ए-मुहब्बत के हादीसात-ए-जहाँ
मुझे तो क्या, मेरे नक्श-ए-कदम मिटा ना सके
ना जाने आखिर इन आँसूओ पे क्या गुजरी
जो दिल से आँख तक आये, मगर बहा ना सके
करेंगे मर के बका-ए-दवाम क्या हासिल
जो ज़िन्दा रह के मुकाम-ए-हयात पा ना सके
मेरी नज़र ने शब-ए-गम उन्हें भी देख लिया
वो बेशुमार सितारे के जगमगा ना सके
ये मेहर-ओ-माह मेरे, हमसफर रहे बरसों
फिर इसके बाद मेरी गर्दिशों को पा ना सके
घटे अगर तो बस एक मुश्त-ए-खाक है इंसान
बढ़े तो वसत-ए-कौनैन में समा ना सके