दिल को मिटा के दाग़े-तमन्ना[1] दिया मुझे
ऐ इश्क़ तेरी ख़ैर हो ये क्या दिया मुझे

महशर[2] में बात भी न ज़बाँ से निकल सकी
क्या झुक के उस निगाह ने समझा दिया मुझे

मैं और आरज़ू-ए-विसाले-परी-रुख़ाँ[3]
इस इश्क़े-सादा-लौह[4] ने भटका दिया मुझे

हर बार यास हिज्र में दिल की हुई शरीक
हर मर्तबा उम्मीद ने धोका दिया मुझे

दावा किया था ज़ब्ते-मोहब्बत का ऐ ‘जिगर’
ज़ालिम ने बात-बात पे तड़पा दिया मुझे

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