भैरोसिंह को राजगृही गये आज तीसरा दिन है। यहां का हाल-चाल अभी तक कुछ मालूम नहीं हुआ, इसी सोच में आधी रात के समय अपने कमरे में पलंग पर लेटे हुए कुंअर इंद्रजीतसिंह को नींद नहीं आ रही है। किशोरी की खयाली तस्वीर उनकी आंखों के सामने आ-आकर गायब हो जाती है। इससे उन्हें और भी दुख होता है, घबराकर लंबी सांस ले उठ बैठते हैं। कभी भी जब बेचैनी बहुत बढ़ जाती है तो पलंग को छोड़ कमरे में टहलने लगते हैं।
इसी हालत में इंद्रजीतसिंह कमरे के अंदर टहल रहे थे, इतने में पहरे के एक सिपाही ने अंदर की तरफ झांककर देखा और इनको टहलते देख हट गया, थोड़ी देर बाद वह दरवाजे के पास इस उम्मीद में आकर खड़ा हो गया कि कुमार उसकी तरफ देखकर पूछें तो वह कुछ कहे मगर कुमार तो अपने ध्यान में डूबे हुए हैं, उन्हें खबर ही क्या है कि कोई उनकी तरफ झांक रहा है या इस उम्मीद में खड़ा है कि वे उसकी तरफ देखें और कुछ पूछें। आखिर उस सिपाही ने जान-बूझकर किवाड़ का एक पल्ला इस ढंग से खोला कि कुछ आवाज हुई, साथ ही कुमार ने घूमकर उसकी तरफ देखा और इशारे से पूछा कि क्या है।
राजा सुरेंद्रसिंह, वीरेंद्रसिंह, इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह का बराबर ये हुक्म था कि मौका न होने पर चाहे किसी की इत्तिला न की जाय मगर जब कोई ऐयार आवे और कहे कि मैं ऐयार हूं और इसी समय मिलना चाहता हूं तो चाहे कैसा ही बेमौका क्यों न हो हम तक उसकी इत्तिला जरूर पहुंचनी चाहिए। अपने घर के ऐयारों के लिए तो कोई रोक-टोक थी नहीं, चाहे वह कुसमय में भी महल में घुस जाय या जहां चाहे वहां पहुंचे, महल में उनकी खातिर और उनका लिहाज ठीक उतना ही किया जाता था, जितना पंद्रह वर्ष के लड़के का किया जाता और इसी का ठीक नमूना ऐयार लोग दिखलाते थे।
सिपाही ने हाथ जोड़कर कहा, “एक ऐयार हाजिर हुआ है और इसी समय कुछ अर्ज किया चाहता है!” कुमार ने कहा, “रोशनी तेज कर दो और उसे अभी यहां लाओ।” थोड़ी देर बाद चुस्त स्याह मखमल की पोशाक पहिरे कमर में खंजर लटकाये, हाथ में कमंद लिए एक खूबसूरत लड़का कमरे में आ मौजूद हुआ।
इंद्रजीतसिंह ने गौर से उसकी ओर देखा, साथ ही उनके चेहरे की रंगत बदल गई, जो अभी उदास मालूम होता था खुशी से दमकता हुआ दिखाई देने लगा।
इंद्र - मैं तुम्हें पहचान गया।
लड़का - क्यों न पहचानेंगे जबकि आपके यहां एक से एक बढ़कर ऐयार हैं और दिन-रात उनका संग है, मगर इस समय मैंने भी अपनी सूरत अच्छी तरह नहीं बदली है।
इंद्र - कमला, पहले यह कहो कि किशोरी कहां और किस हालत में हैं, और उन्हें अग्निदत्त के हाथ से छुट्टी मिली या नहीं।
कमला - अग्निदत्त को अब उनकी कोई खबर नहीं है।
इंद्र - इधर आओ और हमारे पास बैठो, खुलासा कहो कि क्या हुआ, मैं तो इस लायक नहीं कि अपना मुंह उन्हें दिखाऊं क्योंकि मेरे किए कुछ भी न हो सका।
कमला - (बैठकर) आप ऐसा खयाल न करें, आपने बहुत कुछ किया, अपनी जान देने को तैयार हो गये और महीनों दुख झेला। अपने ऐयार लोग अभी तक राजगृही में इस मुस्तैदी से काम कर रहे हैं कि अगर उन्हें यह मालूम हो जाता कि किशोरी वहां नहीं है तो उस राज्य का नाम-निशान मिटा देते।
इंद्र - मैंने भी यही सोच के उस तरफ जोर नहीं दिया कि कहीं अग्निदत्त के हाथ पड़ी हुई बेचारी किशोरी पर कुछ आफत न आवे, हां तो अब किशोरी वहां नहीं है।
कमला - नहीं!
इंद्र - कहां हैं और किसके कब्जे में हैं?
कमला - इस समय वह खुदमुख्तार हैं, सिवाय लज्जा के उन्हें और किसी का डर नहीं।
इंद्र - जल्द बताओ वह कहां हैं मेरा जी घबड़ा रहा है।
कमला - वह इसी शहर में हैं मगर अभी आपसे मिलना नहीं चाहतीं।
इंद्र - (आंखों में आंसू भरकर) बस तो मुझे मालूम हो गया कि उन्हें मेरी तरफ से रंज है, मेरे किए कुछ न हो सका इसका उन्हें दुख है।
कमला - नहीं-नहीं, ऐसा भूल के भी न सोचिए।
इंद्र - तो फिर मैं उनसे क्यों नहीं मिल सकता?
कमला - (कुछ सोचकर) मिल क्यों नहीं सकते, मगर इस समय...
इंद्र - क्या तुमको मुझ पर दया नहीं आती! अफसोस, तुम बिल्कुल नहीं जानतीं कि तुम्हारी बातें सुनकर इस समय मेरी दशा कैसी हो रही है। जब तुम खुद कह रही हो कि वह स्वतंत्र हैं, किसी के दबाव में नहीं हैं और इसी शहर में हैं तो मुझसे न मिलने का कारण ही क्या है बस यही न कि मैं उस लायक नहीं समझा जाता।
कमला - फिर आप उसी खयाल को मजबूत करते हैं! खैर तो फिर चलिए मैं आपको ले चलती हूं, जो होगा देखा जायेगा, मगर अपने साथ किसी ऐयार को लेते चलिए। भैरोसिंह तो यहां हैं नहीं, आपने उन्हें राजगृही भेज दिया है।
इंद्र - क्या हर्ज है तारासिंह को साथ लिए चलता हूं, मगर भैरोसिंह के जाने की खबर तुम्हें क्योंकर मिली?
कमला - मैं बखूबी जानती हूं, बल्कि उनसे मिलकर मैंने कह भी दिया है कि किशोरी राजगृही में नहीं है तुम बेखौफ अपना काम करना।
इंद्र - अगर तुमने उससे ऐसा कह दिया है तो राजगृही में बड़ा ही बखेड़ा मचावेगा!
कमला - मचाना ही चाहिए।
कुंअर इंद्रजीतसिंह ने उसी समय तारासिंह को बुलाया और उन्हें साथ ले कपड़े पहन कमला के साथ किशोरी से मिलने की खुशी में लंबे-लंबे कदम बढ़ाते रवाना हुए।
शहर ही शहर बहुत-सी गलियों में घुमाती हुई इन दोनों को साथ लिए कमला बहुत दूर चली गई और विष्णु पादुका मंदिर के पास ही एक मकान के मोड़ पर पहुंचकर खड़ी हो गई।
इंद्र - क्यों क्या हुआ रुक क्यों गईं?
कमला - इस मकान के दरवाजे के सामने ही एक भारी जमींदार की बैठक है। वहां दिन-रात पहरा पड़ता है। इधर से आप लोगों का जाना और यह जाहिर करना कि आज इस मकान में दो आदमी नये घुसे हैं मुनासिब नहीं।
तारा - तो फिर क्या करना चाहिए।
कमला - मैं दरवाजे की राह से जाती हूं। आप लोग पीछे की तरफ जाइये और कमंद लगाकर मकान के अंदर पहुंचिये।
इंद्र - क्या हर्ज है, ऐसा ही होगा, तुम दरवाजे की राह से जाओ।
कमला - मगर एक बात और सुन लीजिए। जब मैं इस मकान में पहुंचकर छत पर से झांकू तभी आप कमंद फेंकिए, क्योंकि बिना मेरी मदद के कमंद अड़ न सकेगी।

 

 


 

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