गिल्लन को साथ लिये हुए बीबी गौहर रोहतासगढ़ किले के अन्दर जा पहुंची। किले के अन्दर जाने में किसी तरह का जाल न फैलाना पड़ा और न किसी तरह की कठिनाई हुई। वह बेधड़के किले के उस फाटक पर चली आई जो शिवालय के पीछे की तरफ था और छोटी खिड़की के पास खड़ी होकर खिड़की (छोटा दरवाजा) खोलने के लिए दरबान को पुकारा, जब दरबान ने पूछा, “तू कौन है' तो उसने जवाब दिया कि “मैं शेरअलीखां की लड़की गौहर हूं।”
उन दिनों शेरअलीखां पटने का नामी सूबेदार था। वह शख्स बड़ा ही दिलेर, जवांमर्द और बुद्धिमान था, साथ ही इसके कुछ-कुछ दगाबाज भी था, मगर इसे वह राजनीति का एक अंग मानता था। उसके इलाके भर में जो कुछ उसका रुआब था उसे कहां तक कहा जाये, दूर-दूर तक के आदमी उसका नाम सुनकर कांप जाते थे। उसके पास फौज तो केवल पांच ही हजार थी मगर वह उससे पच्चीस हजार फौज का काम लेता था क्योंकि उसने अपने ढंग के आदमी चुन-चुनकर अपनी फौज में भरती किए थे। गौहर इसी शेरअलीखां की लड़की थी और वह गौहर की मौसेरी बहिन थी जो चुनारगढ़ के पास वाले जंगल में माधवी के हाथ से मारी गई थी।
शेरअलीखां जोरू को बहुत चाहता था और उसी तरह अपनी लड़की गौहर को भी हद्द से ज्यादा प्यार करता था। गौहर को दस वर्ष की छोड़कर उसकी मां मर गई थी। मां के गम में गौहर दीवानी-सी हो गई। लाचार दिल बहलाने के लिए शेरअलीखां ने गौहर को आजाद कर दिया और वह थोड़े से आदमियों को साथ लेकर दूर-दूर तक सैर करती फिरती थी। पांच वर्ष तक वह इसी अवस्था में रही, इसी बीच में आजादी मिलने के कारण उसकी चाल-चलन में भी फर्क पड़ गया था। इस समय गौहर की उम्र पन्द्रह वर्ष की है। शेरअलीखां दिग्विजयसिंह का दिली दोस्त था और दिग्विजयसिंह भी उसका बहुत भरोसा रखता था।
गौहर का नाम सुनते ही दरबान चौंका और उसने उस अफसर को इत्तिला दी जो कई सिपाहियों को साथ लेकर फाटक की हिफाजत पर मुस्तैद था। अफसर तुरन्त फाटक पर आया और उसने पुकारकर पूछा, “आप कौन हैं'
गौहर - मैं शेरअलीखां की लड़की गौहर हूं।
अफसर - इस समय आपको संकेत बताना चाहिए।
गौहर - हां बताती हूं - “जोगिया।”
'जोगिया' सुनते ही अफसर ने दरवाजा खोलने का हुक्म दे दिया और गिल्लन को साथ लिये हुए गौहर किले के अन्दर पहुंच गई। मगर गौहर बिल्कुल नहीं जानती थी कि थोड़ी ही दूर पर एक लम्बे कद का आदमी दीवार के साथ चिपका खड़ा है और उसकी बातें, जो दरबान के साथ हो रही थीं, सुन रहा है।
जब गौहर किले के अन्दर चली गई, उसके आधे घण्टे बाद एक लम्बे कद का आदमी, जिसे अब भूतनाथ कहना उचित है, उसी फाटक पर पहुंचा और दरवाजा खोलने के लिए उसने दरबान को पुकारा।
दरबान - तुम कौन हो?
भूत - मैं शेरअलीखां का जासूस हूं।
दरबान - संकेत बताओ।
भूत - “जोगिया।”
दरवाजा तुरन्त खोल दिया गया और भूतनाथ भी किले के अन्दर जा पहुंचा। गौहर वही परिचय देती हुई राजमहल तक चली गई। जब उसके आने की खबर राजा दिग्विजयसिंह को दी गई, उस समय रात बहुत कम बाकी थी और दिग्विजयसिंह मसहरी पर बैठा हुआ राजकीय मामलों की तरह-तरह की बातें सोच रहा था। गौहर के आने की खबर सुनते ही दिग्विजयसिंह ताज्जुब में आकर उठ खड़ा हुआ, उसे अन्दर आने की आज्ञा दी, बल्कि खुद भी दरवाजे तक इस्तकबाल के लिए आया और बड़ी खातिरदारी से उसे अपने कमरे में ले गया। आज पांच वर्ष बाद दिग्विजयसिंह ने गौहर को देखा, इस समय इसकी खूबसूरती और उठती हुई जवानी गजब करती थी। उसे देखते ही दिग्विजयसिंह की तबीयत डोल गई, मगर शेरअलीखां के डर से रंग न बदल सका।
दिग्विजयसिंह - इस समय आपका आना क्योंकर हुआ और यह दूसरी औरत आपके साथ कौन है?
गौहर - यह मेरी ऐयारा है। कई दिन हुए, केवल अपसे मिलने के लिए सौ सिपाहियों को साथ लेकर मैं यहां आ रही थी। इत्तिफाक से वीरेन्द्रसिंह के जालिम आदमियों ने मुझे गिरफ्तार कर लिया। मेरे साथियों में से कई मारे गए और कई कैद हो गये। मैं भी चार दिन तक कैद रही। आखिर इस चालाक ऐयारा ने, जो कैद होने से बच गई थी, मुझे छुड़ाया। इस समय सिवाय इसके कि मैं इस किले में आ घुसूं और कोई तदबीर जान बचाने की न सूझी। सुना है कि वीरेन्द्रसिंह वगैरह आजकल आपके यहां कैद हैं?
दिग्विजयसिंह - हां, वे लोग आज-कल यहां कैद हैं। मैंने यह खबर आपके पिता को भी लिखी है।
गौहर - हां, मुझे मालूम है। वे भी आपकी मदद को आने वाले हैं। उनका इरादा है कि वीरेन्द्रसिंह के लश्कर पर, जो इस पहाड़ी के नीचे है, छापा मारें।
दिग्विजयसिंह - हां, मुझे तो एक उन्हीं का भरोसा है।
यद्यपि शेरअलीखां के डर से दिग्विजयसिंह गौहर के साथ अदब का बर्ताव करता रहा, मगर कम्बख्त गौहर को यह मंजूर न था। उसने यहां तक हाव-भाव और चुलबुलापन दिखाया कि दिग्विजयसिंह की नीयत आखिर बदल गई और वह एकान्त खोजने लगा।
गौहर तीन दिन से ज्यादा अपने को न बचा सकी। इस बीच में उसने अपना मुंह काला करके दिग्विजयसिंह को काबू में कर लिया और दिग्विजयसिंह से इस बात की प्रतिज्ञा करा ली कि वीरेन्द्रसिंह वगैरह जितने आदमी यहां कैद हैं, सभी का सिर काटकर किले के कंगूरों पर लटका दिया जाएगा और इसका बन्दोबस्त भी होने लगा। मगर इसी बीच में भैरोसिंह, रामनारायण और चुन्नीलाल ने, जो किले के अन्दर पहुंच गए थे, वह धूम मचाई कि लोगों की नाक में दम कर दिया और मजा तो यह कि किसी को कुछ पता न लगता था कि यह कार्रवाई कौन कर रहा है।