दो पहर दिन चढ़ने के पहले ही फौज लेकर नाहरसिंह रोहतासगढ़ पहाड़ी के ऊपर चढ़ गया। उस समय दुश्मनों ने लाचार होकर फाटक खोल दिया और लड़-भिड़कर जान देने पर तैयार हो गये। किले की कुल फौज फाटक पर उमड़ आई और फाटक के बाहर मैदान में घोर युद्ध होने लगा। नाहरसिंह की बहादुरी देखने योग्य थी। वह हाथ में तलवार लिए जिस तरफ को निकल जाता था, पूरा सफाया कर देता था। उसकी बहादुरी देखकर उसकी मातहत फौज की भी हिम्मत दूनी हो गई और वह ककड़ी की तरह दुश्मनों को काटने लगी। उसी समय पांच सौ बहादुरों को साथ लिए राजा वीरेन्द्रसिंह, कुंअर आनन्दसिंह और तेजसिंह वगैरह भी आ पहुंचे और उस फौज में मिल गये जो नाहरसिंह की मातहती में लड़ रही थी। ये पांच सौ आदमी उन्हीं की फौज के थे जो दो-दो, चार-चार करके पहाड़ के ऊपर चढ़ाये गए थे। तहखाने से बाहर निकलने पर राजा वीरेन्द्रसिंह से मुलाकात हुई थी और सब एक जगह हो गये थे।
जिस समय किले वालों को यह मालूम हुआ कि राजा वीरेन्द्रसिंह वगैरह भी उस फौज में आ मिले, उस समय उनकी हिम्मत बिल्कुल जाती रही। बिना दिल का हौसला निकाले ही उन लोगों ने हथियार रख दिए और सुलह का डंका बजा दिया। पहाड़ी के नीचे से और फौज भी पहुंच गई और रोहतासगढ़ में राजा वीरेन्द्रसिंह की अमलदारी हो गई। जिस समय राजा वीरेन्द्रसिंह दीवानखाने में पहुंचे वहां राजा दिग्विजयसिंह की लाश पाई गई। मालूम हुआ कि उसने आत्मघात कर लिया। उसकी हालत पर राजा वीरेन्द्रसिंह देर तक अफसोस करते रहे।
राजा वीरेन्द्रसिंह ने कुंअर आनन्दसिंह को गद्दी पर बैठाया। सभी ने नजरें दीं। उसी समय कमला भी आ पहुंची। उसने किले में पहुंचकर कोई ऐसा काम नहीं किया था जो लिखने लायक हो। हां, गिल्लन के सहित गौहर को जरूर गिरफ्तार कर लिया था। दिग्विजयसिंह की रानी अपने पति के साथ सती हुई। रामानन्द की स्त्री भी अपने पति के साथ जल मरी। शहर में कुमार के नाम की मुनादी करा दी गई और यह कहला दिया गया कि जो रोहतासगढ़ से निकल जाना चाहे वह खुशी से चला जाय! दिग्विजयसिंह के मरने से जिसे कष्ट हुआ हो वह यदि हमारे भरोसे पर यहां रहेगा तो उसे किसी तरह का दुःख न होगा। हर एक की मदद की जायगी और जो जिस लायक है उसकी खातिर की जायगी। इन सब कामों के बाद राजा वीरेन्द्रसिंह ने कुल हाल की चीठी लिखकर अपने पिता के पास रवाना की।
दूसरे दिन राजा वीरेन्द्रसिंह ने एकान्त में कमला को बुलाया। उस समय उनके पास कुंअर आनन्दसिंह, तेजसिंह, भैरोसिंह, तारासिंह वगैरह ऐयार लोग ही बैठे थे, अर्थात् सिवाय आपस वालों के कोई भी बाहरी आदमी नहीं था। राजा वीरेन्द्रसिंह ने कमला से पूछा, “कमला, तू इतने दिनों तक कहां रही तेरे ऊपर क्या-क्या मुसीबतें आईं, और तू किशोरी का क्या-क्या हाल जानती है, सो मैं सुना चाहता हूं।”
कमला - (हाथ जोड़कर) जो कुछ मुसीबतें मुझ पर आईं और जो कुछ किशोरी का हाल मैं जानती हूं सब अर्ज करती हूं। अपनी प्यारी किशोरी से छूटने के बाद मैं बहुत ही परेशान हुई। अग्निदत्त की लड़की कामिनी ने जब किशोरी को अपने बाप के पंजे से छुड़ाया और खुद भी निकल खड़ी हुई तो पुनः मैं उन लोगों से जा मिली और बहुत दिनों तक गयाजी में रही और वहीं बहुत-सी विचित्र बातें हुईं।
वीरेन्द्रसिंह - हां, गयाजी का बहुत-कुछ हाल तुम लोगों के बारे में देवीसिंह की जुबानी मुझे मालूम हुआ था और यह भी जाना गया कि जिन दिनों इन्द्रजीतसिंह बीमार था, उसके कमरे में जो-जो अद्भुत बातें देखने-सुनने में आईं, सब कामिनी ही की कार्रवाइयां थीं, मगर उनमें से कई बातों का भेद अभी तक मालूम नहीं हुआ।
कमला - वह क्या?
वीरेन्द्रसिंह - एक तो यह कि तुम लोग उस कोठरी में किस रास्ते से आती-जाती थीं दूसरे, लड़ाई किससे हुई थी वह कटा हाथ जो कोठरी में पाया गया, किसका था, और बिना सिर की लाश किसकी थी?
कमला - वह भेद भी मैं आपसे कहती हूं। गयाजी में फलगू नदी के किनारे एक मन्दिर श्री राधाकृष्णजी का है। उसी मन्दिर में से एक रास्ता महल में जाने का है जो उस कोठरी में निकला है जिसका हाल माधवी, अग्निदत्त और कामिनी के सिवाय किसी को मालूम नहीं। कामिनी की बदौलत मुझे और किशोरी को मालूम हुआ। उसी रास्ते से हम लोग आते-जाते थे। वह रास्ता बड़ा ही विचित्र है, उसका हाल मैं जुबानी नहीं समझा सकती। गयाजी चलने के बाद जब मौका मिलेगा तो ले चलकर उसे दिखाऊंगी, हम लोगों का उस मकान में आना-जाना नेकनीयती के साथ होता था। मगर जब माधवी गयाजी में पहुंची तो बदला लेने की नीयत से एक आदमी और अपनी ऐयारा को साथ ले उसी राह से महल की तरफ रवाना हुई। उसे उस समय तक शायद हम लोगों का हाल मालूम न था। इत्तिफाक से हम तीनों आदमी भी उसी समय सुरंग में घुसे, आखिर नतीजा यह हुआ कि उस कोठरी में पहुंचकर लड़ाई हो गई। माधवी के साथ का आदमी मारा गया। वह कलाई माधवी की थी और मेरे हाथ से कटी थी। अन्त में उसकी ऐयारा उस आदमी का सिर और माधवी को लेकर चली गई। हम लोगों ने उस समय रोकना मुनासिब न समझा।
वीरेन्द्रसिंह - हां ठीक है, ऐसा ही हुआ है। यह हाल मुझे मालूम था, मगर शक मिटाने के लिए तुमसे पूछा था।
कमला - (ताज्जुब में आकर) आपको कैसे मालूम हुआ?
वीरेन्द्रसिंह - मुझसे देवीसिंह ने कहा था और देवीसिंह को उस साधु ने कहा था जो रामशिला पहाड़ी के सामने फलगू नदी के बीच वाले भयानक टीले पर रहता था। देवीसिंह की जुबानी बाबाजी ने मुझे एक सन्देशा भी कहला भेजा था, मौका मिलने पर मैं जरूर उनके हुक्म की तामील करूंगा।
कमला - वह सन्देशा क्या था?
वीरेन्द्रसिंह - सो इस समय न कहूंगा। हां, यह तो बता कि कामिनी का और उन डाकुओं का साथ क्योंकर हुआ जो गयाजी की रिआया को दुःख देते थे?
कमला - कामिनी का उन डाकुओं से मिलना केवल उन लोगों को धोखा देने के लिए था। वे डाकू सब अग्निदत्त की तरफ से तनख्वाह और लूट के माल में कुछ हिस्सा भी पाते थे। वे लोग कामिनी को पहचानते थे और उसकी इज्जत करते थे। उस समय उन लोगों को यह नहीं मालूम था कि कामिनी अपने बाप से रंज होकर घर से निकली है इसलिए उससे डरते थे और जो वह कहती थी करते थे। आखिर कामिनी ने धोखा देकर उन लोगों को मरवा डाला और मेरे ही हाथ से उन डाकुओं की जानें गईं। वे डाकू लोग जहां रहते थे, आपको मालूम हुआ ही होगा।
वीरेन्द्रसिंह - हां, मालूम हुआ है। जो कुछ मेरा शक था, मिट गया, अब उस विषय में विशेष कुछ मालूम करने की कोई जरूरत नहीं है। अब मैं यह पूछता हूं कि इस रोहतासगढ़ वाले आदमी जब किशोरी को ले भागे, तब तेरा और कामिनी का क्या हाल हुआ?
कमला - कामिनी को साथ लेकर मैं उस खंडहर से, जिसमें नाहरसिंह और कुंअर इन्द्रजीसिंह की लड़ाई हुई थी, बाहर निकली और किशोरी को छुड़ाने की धुन में रवाना हुई, मगर कुछ कर न सकी, बल्कि यों कहना चाहिए कि अभी तक मारी फिरती हूं। यद्यपि इस रोहतासगढ़ के महल तक पहुंच चुकी थी, मगर मेरे हाथ से कोई काम न निकला।
वीरेन्द्रसिंह - खैर, कोई हर्ज नहीं। अच्छा यह बता कि अब कामिनी कहां है?
कमला - कामिनी को मेरे चाचा शेरसिंह ने अपने एक दोस्त के घर में रखा है मगर मुझे यह नहीं मालूम कि वह कौन है और कहां रहता है।
वीरेन्द्रसिंह - शेरसिंह से कामिनी क्योंकर मिली?
कमला - यहां से थोड़ी ही दूर पर एक खंडहर है। शेरसिंह से मिलने के लिए कामिनी को साथ लेकर मैं उसी खंडहर में गई थी मगर अब सुनने में आया है कि शेरसिंह ने आपकी ताबेदारी कबूल कर ली और आपने उन्हें कहीं भेजा है।
वीरेन्द्रसिंह - हां, वह देवीसिंह को साथ लेकर इन्द्रजीत को छुड़ाने के लिए गये हैं मगर न मालूम, क्या हुआ कि अभी तक नहीं लौटे।
कमला - कुंअर इन्द्रजीतसिंह तो यहां से दूर न थे और चाचा को वह जगह मालूम थी, अब तक उन्हें लौट आना चाहिए था।
वीरेन्द्रसिंह - क्या तुझे भी वह जगह मालूम है?
कमला - जी हां, आप जब चाहें चलें, मुझे रास्ता बखूबी मालूम है।
इस समय कुंअर आनन्दसिंह ने, जो सिर झुकाए सब बातें सुन रहे थे, अपने पिता की तरफ देखा और कहा, “यदि आज्ञा हो तो मैं कमला के साथ भाई की खोज में जाऊं' इसके जवाब में राजा वीरेन्द्रसिंह ने सिर हिलाया अर्थात् उनकी अर्जी मंजूर नहीं की।
राजा वीरेन्द्रसिंह और कमला में जो कुछ बातें हो रही थीं, सब कोई गौर से सुन रहे थे। यह कहना जरा मुश्किल है कि उस समय कुंअर आनन्दसिंह की क्या दशा थी। कामिनी के वे सच्चे आशिक थे, मगर वाह रे दिल, इस इश्क को उन्होंने जैसा छिपाया उन्हीं का काम था। इस समय वे कमला की बातें बड़े गौर से सुन रहे थे। उन्हें निश्चय था कि जिस जगह शेरसिंह ने कामिनी को रखा है, वह जगह कमला को मालूम है मगर किसी कारण से बताती नहीं, इसलिए कमला के साथ भाई की खोज में जाने के लिए पिता से आज्ञा मांगी। इसके सिवाय कामिनी के विषय में और भी बहुत-सी बातें कमला से पूछना चाहते थे। मगर क्या करें, लाचार कि उनकी अर्जी नामंजूर की गई और वे कलेजा मसोसकर रह गए।
इसके बाद आनन्दसिंह फिर अपने पिता के सामने गए और हाथ जोड़कर बोले, “मैं एक बात और अर्ज किया चाहता हूं।”
वीरेन्द्रसिंह - वह क्या?
आनन्दसिंह - इस रोहतासगढ़ की गद्दी पर मैं बैठाया गया हूं परन्तु मेरी इच्छा है कि बतौर सूबेदार के यहां का राज्य किसी के सुपुर्द कर दिया जाय।
आनन्दसिंह की बात सुन राजा वीरेन्द्रसिंह गौर में पड़ गए और कुछ देर तक सोचने के बाद बोले, “हां, मैं तुम्हारी इस राय को पसन्द करता हूं और इसका बन्दोबस्त तुम्हारे ही ऊपर छोड़ता हूं। तुम जिसे चाहो, इस काम के लिए चुन लो।”
आनन्दसिंह ने झुककर सलाम किया और उन लोगों की तरफ देखा जो वहां मौजूद थे। इस समय सभी के दिल में खुटका पैदा हुआ और सभी इस बात से डरने लगे कि कहीं ऐसा न हो कि यहां का बन्दोबस्त मेरे सुपुर्द किया जाय, क्योंकि उन लोगों में से कोई भी ऐसा न था जो अपने मालिक का साथ छोड़ना पसन्द करता। आखिर आनन्दसिंह ने सोच-समझकर अर्ज किया –
आनन्दसिंह - मैं इस काम के लिए पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी को पसन्द करता हूं।
वीरेन्द्रसिंह - अच्छी बात है, कोई हर्ज नहीं।
ज्योतिषीजी ने बहुत-कुछ उज्र किया, बावेला मचाया, मगर कुछ सुना नहीं गया। उसी दिन से मुद्दत तक रोहतासगढ़ ब्राह्मणों की हुकूमत में रहा और यह हुकूमत हुमायूं के जमाने में 944 हिजरी तक कायम रही। इसके बाद 945 में दगाबाज शेर खां ने (यह दूसरा शेरखां था) रोहतासगढ़ के राजा चिन्तामन ब्राह्मण को धोखा देकर किले पर अपना कब्जा कर लिया।