श्रीमैत्रेयजी बोले - 
हे गुरो ! मैंने जो कुछ पुछा था वह सब आपने यथावत् वर्णन किया । अब मैं एक बात और सुनना चाहता हूँ, वह आप मुझसे कहिये ॥१॥
हे महामुने ! सातों द्वीप, सातों पाताल और सातों लोक- ये सभी स्थान जो इस ब्रह्माण्डके अन्तर्गत हैं, स्थूल, सूक्ष्म, सुक्ष्मतर, सूक्ष्मातिसुक्ष्म तथा स्थूल और स्थुलतर जीवोंसे भरे हुए हैं ॥२-३॥
हे मुनिसत्तम ! एक अंगुलका आठवाँ भाग भी कोई ऐसा स्थान नहीं हैं जहाँ कर्मबन्धनसे बँधे हुए जीव न रहते हों ॥४॥
किंतु हे भगवन् ! आयुके समाप्त होनेपर ये सभी यमराजके वशीभूत हो जाते है और उन्हीकें आदेशानुसार नरक आदि नाना प्रकारकी यातनाएँ भोगते हैं ॥५॥
तदनन्तर पाप-भोगके समाप्त होनेपर वे देवादि योनियोंमे घुमते रहते हैं - सकल शास्त्रोंका ऐसा ही मत है ॥६॥
अतः आप मुझे वह कर्म बताइये जिस करनेसे मनुष्य यमराजके वशीभूत नहीं होता; मैं आपसे यही सुनना चाहता हूँ ॥७॥
श्रीपराशरजी बोले - हे मुने ! यह प्रश्न महात्मा नकुलने पितामह भीष्मसे पूछा था । उसके उत्तरमें उन्होंने जो कुछ कहा था वह सुनो ॥८॥
भीष्मजीने कहाँ - हे वत्स ! पूर्वकालमें मेरे पास एक कलिंगदेशीय ब्राह्मण मित्र आया और मुझसे बोला- ' मेरे पूछनेपर एक जातिस्मर मुनिने बतलाया था कि ये सब बातें अमुक-अमूक प्रकार ही होंगी । हे वत्स ! उस बुद्धीमान्‌ने जो-जो बातें जिस - जिस प्रकार होंनेको कहीं थी वे सब ज्यों- की - त्यों हुई ॥९-१०॥
इस प्रकार उसमें श्रद्धा हो जानेसे मैंने उससे फिर कुछ और भी प्रश्न किये और उनके उत्तरमें उस द्विजश्रेष्ठने जो - जो बातें बतलायीं उनके विपरीत मैंने कभी कुछ नहीं देखा ॥११॥
एक दिन, जो बात तुम मुझसे पूछते हो वही मैंने उस कालिंग ब्राह्मणसे पूछी । उस समय उसने उस मुनिके वचनोंको याद करके कहा कि उस जातिस्मर ब्राह्मणने, यम और उनके दूतोंके बीचमें जो संवाद हुआ था, अह अति गूढ़ रहस्य मुझे सुनाया था । वही मैं तुमसे कहता हूँ ॥१२-१३॥
कालिंग बोला - अपने अनुचरको हाथमें पाश लिये देखकर यमराजने उसके कानमें कहा - ' भगवान् मधूसूदनके शरणागत व्यक्तियोंको छोड़ देना, क्योंकी मैं वैष्णवोंसे अतिरिक्त और सब मनुष्योंका ही स्वामी हूँ ॥१४॥
देव - पुज्य विधाताने मुझे 'यम ' नामसे लोकोंके पाप - पुण्यका विचार करनेके लिये नियुक्त किया है । मैं अपने गुरु श्रीहरीकि वशीभूत हूँ, स्वतन्त नहीं हूँ । भगवान विष्णु मेरा भी नियन्तण करनेमें समर्थं हैं ॥१५॥
जिस प्रकार सुवर्ण भेदरहित और एक होकर भी कटक, मुकुट तथा कर्णिका आदिके भेदसे नानारूप प्रतीत होता है उसी प्रकार ही हरिका देवता , मनुष्य और पशु, आदि नाना विध कल्पनाओंसे निर्देश किया जाता हैं ॥१६॥
जिस प्रकर वायुके शान्त होनेपर उसमें उड़ते हुए परमाणु पृथिवीसे मिलकर एक हो जाते हैं उसी प्रकार गुण-क्षोभसे उत्पन्न हुए समस्त देवता, मनुष्य और पशु आदि ( उसका अन्त हो जानेपर ) उस सनातन परमात्मामें लीन हो जाते हैं ॥१७॥
जो भगवानके सुरवरवान्दित चरण कमलोंकी परमार्थ बुद्धिसे वन्दना करता है, घृतहूतिसे प्रज्वलित अग्निके समान समस्त पाप-बन्धनसे मुक्त हुए उस पुरुषको तुम दूरहीसे छोड़कर निकल जाना' ॥१८॥
यमराजके ऐसे वचन सुनकर पाशहस्त यमदूतने उनसे पूछा- 'प्रभो ! सबके विधाता भगवान् हरिका भक्त कैसा होता है, यह आप मुझसे कहिये' ॥१९॥
यमराज बोले - जो पुरुष अपने वर्ण - धर्मसे विचलित नहीं होता, अपने सुहृद् और विपक्षियोंके प्रति समान भाव रखता है, किसीका द्रव्य हरण नहीं करता तथा किसी जीवकी हिंसा नहीं करता उस अत्यन्त रागादि-शून्य और निर्मलचित्त व्यक्तिको भगवान् विष्णुका भक्त जानो ॥२०॥
जिस निर्मलमतिका चित्त कलि-कल्मषरूप मलसे मलिन नहीं हुआ और जिसने अपने हृदयमें श्रीजनार्दनको बसाया हुआ है उस मनुष्यको भगवान्‌को अतीव भक्त समझो ॥२१॥
जो एकान्तमें पड़े हुए दुसरेंके सोनेको देखकर भी उसे अपनी बुद्धिद्वारा तृणके समान समझता है और निरन्तर भगवान्‌का अनन्यभावसे चिन्तन करता है उस नरश्रेष्ठको विष्णुका भक्त जानो ॥२२॥
कहाँ तो स्फटिकागिरिशिलाके समान अति निर्मल भगवान् विष्णु और कहाँ मनुष्योंके चित्तमें रहनेवाले राग-द्वेषादि दोष ? ( इन दोनोंका संयोग किसी प्रकार नहीं हो हो सकता ) हिमकर ( चन्द्रमा ) जे किरण जालमें अग्नि तेजकी उष्णता कभी नहीं रह सकती हैं ॥२३॥
जो व्यक्ति निर्मल- चित्त, मात्सर्यरहित, प्रशान्त , शुद्ध चरित्र, समस्त जीवोंका सूहद, प्रिय और हितवादी तथा अभिमान एवं मायसे रहित होता हैं उसके हृदयमें भगवान् वासुदेव सर्वदा विराजमान रहते हैं ॥२४॥
उन सनातन भगवान्‌के हृदयमें विराजमान होनेपर पुरुष इस जगत्‌में सौम्यस्मृतिं हो जाता है, जिस प्रकार नवीन शाल वृक्ष अपने सौन्दर्यसे ही भीतर भरे हुए अति सुन्दर पार्थिव रसकी बतला देता है ॥२५॥
हे दूत ! यम और नियमके द्वारा जिनकी पापराशि दूर हो गयी है, जिनका हृदय निरन्तर श्रीअच्युतमें ही आसक्त रहता हैं, तथा जिनमें गर्व, अभिमान और मात्सर्यका लेश भी नहीं रहा हैं उन मनुष्योंको तुम दूरहीसे त्याग देना ॥२६॥
यदि खंड्‌ग शंख और गदाधारी अव्ययात्मा भगवान् हरि हृदयमें विराजमान हैं तो उन पापनाशक भगवान्‌के द्वारा उसके सभी पाप नष्ट हो जाते है ? ॥२७॥
जो पुरुष दुसरोंका धन हरण करता है, जीवोंका हिंसा करता है तथा मिथ्या और कटुभाषण करता है उस अशुभ कर्मोन्मन्त दुष्टबुद्धिके हृदयमें भगवान्‌ अनन्त नहीं टिक सकते ॥२८॥
जो कुमति दूसरोंके वैभवको नहीं देख सकता , जो दुसरोंकी निन्दा करता है, साधुजनोंका अपकार करता है तथा ( सम्पन्न होकर भी ) न तो श्रीविष्णुभगवान्‌की पूजा ही करता है और न ( उनके भक्तोंको ) दान ही देता है उस अधमके हृदयमें श्रीजनार्दनका निवास कभी नहीं हो सकता ॥२९॥
जो दुष्टबुद्धि अपने परम सूहृद, बन्धु बान्धव , स्त्री पुत्र, कन्या, पिता तथा भॄत्यवर्गके प्रति अर्थतृष्णा प्रकट करता है उस पापचारीको भगवान्‌का भक्त मत समझो ॥३०॥
जो दुर्बुद्दि पुरुष असत्कर्मोमें लगा रहता है, नीचे पुरुषोंके आचार और उन्हींके संगमें उन्मत रहता है तथा नित्यप्रति पापमय कर्मबन्धनसे ही बँधता जाता है वह मनुष्यरूप पशु है, वह भगवान् वासुदेवका भक्त नहीं हो सकता ॥३१॥
यह सकल प्रपत्र्च और मैं एक परमपुरुष परमेश्वर वासुदेव ही हैं, हृदयमें भगवान् अनन्तके स्थित होनेसे जिनकी ऐसी स्थिर बुद्धि हो गयी हो, उन्हें तुम दुरहीसे छोडंकर चले जाना ॥३२॥
' हे कमलनयन ! हे वासुदेव ! हे विष्णो ! हे धरणिधर ! हे अच्युत ! हे शंख चक्र पाणे ! आप हमें शरण दीजिये - जो लोग इस प्रकार पुकारते हों उन निष्पाप व्यक्तियोको तुम दुसरे ही त्याग देना ॥३३॥
जिस पुरुषश्रेष्ठके अन्तःकरणमें वे अव्ययात्मा भगवान् विराजते हैं उसका जहाँतक दृष्टिपात होता है वहाँतक भगवानके चक्रके प्रभावसे अपने बल-वीर्य नष्ट हो जानेके कारण तुम्हारी अथवा मेरी गति-नहीं हो सकती । वह ( महापुरुष ) तो अन्य ( वैकुण्ठादि ) लोकोंका पात्र हैं ॥३४॥
कालिंग बोला - हे कुरुवर ! अपने दूतको शिक्षा देनेके लिये सूर्यपुत्र धर्मराजने उससे इस प्रकर कहा । मुझसे यह प्रसंग उस जातिस्मर मुनिने कहा था और मैंने यह सम्पूर्ण कथा तुमको सुना दी हैं ॥३५॥
श्रीभीष्मजी बोले - 
हे नकुल ! पूर्वकालमें कलिंगदेशसें आये हुए उस महात्मा ब्राह्मणने प्रसन्न होकर मुझे यह सब विषय सुनाया था ॥३६॥
हे वत्स ! वही सम्पूर्ण वृतान्त, जिस प्रकार कि इस संसार सागरमें एक विष्णुभगवान्‌को छोड़कर जीवका और कोई भी रक्षक नहीं है, मैंने ज्यों-को-त्यों तुम्हें सुना दिया ॥३७॥
जिसका हृदय निरन्तर भगतत्परायण रहता है उसका यम, यमदूत, यमपाश, यमदण्ड अथवा यम यातना कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते ॥३८॥
श्रीपराशरजी बोले - हे मुने ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार जो कुछ यमने कहा था, वह सब मैंने तुम्हें भली प्रकार सुना दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥३९॥
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे सप्तमोऽध्यायः ॥७॥
 

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