मृत्यु लोकजीवन का अन्तिम सस्कार है जिसकी समाप्ति प्रायः शोक एव विषाद मैं होती है। मृतात्मा की सुगत के लिये प्रत्येक जाति में अपने पारंपरिक क्रिया कर्म प्रचलित हैं। अनेक जातियों में नाना दस्तूरों के साथ मृत्यु गीत भी गाये जाते है। ये गीत बडे मार्मिक तथा हृदयद्रावक होते हैं। कोई दस्तूर एवं क्रिया कर्म नहीं करने पर, ऐसा माना जाता है कि माका व्यक्ति को सद्गति नहीं मिल पाती है फलत: उसका भवरा आकुलावस्था में भटकता रहता है अत: विशेष दस्तूर सस्कार करने पर ही उसका भवरा ठिकाने लगता है और उसे गत मिलती है। मृत्युपरक इन संस्कारो मे शखाढाल नामक सस्कार भी एक है जो राजस्थान की मेघवाल, भील, गमेती, भावी, मोग्या, रेगर, बलाई, बोला, कामड आदि कई जातियों में प्रचलित है।
शंखादाल एक सत्संगी संघ विशेष होता है जिसके अपने सदस्य होते है। परिवार के सभी व्यक्ति उसके सदस्य हों यह आवश्यक नहीं। इसके अनुसार मृतक व्यक्ति यदि शंखाढाल का सदस्य रहा हो और उसके पीछे परिवार मे जो व्यक्ति शखाढाल का सदस्य है वह चाहने पर ही शंखाढाल का आयोजन करता है। यह आयोजन किसी की मृत्यु होने के तीसरे दिन किया जाता है। गुरु की आज्ञा से कोटवाल द्वारा शखाढाल की सूचना मृतक के सदस्य सम्बन्धियो को दिला दी जाती है। इसकी सबसे बडी विशेषता यह कि इससे सम्बन्धित जितने भी छोटे-मोटे कम ज्यादा महत्व के घटना प्रसग होने हैं उन सबका अपना बंधा बंधाया सवाल होता है जिसका अनिवार्यतः उच्चारण करना पड़ता है। इसके अभाव में कोई क्रिया पूर्ण हुई नहीं समझी जाती है। जब कोटवाल शंखाढाल की सूचना देने जाता है तो सूचना प्राप्त करने वाला सादका (आखा) प्राप्त करने से पूर्व सवाल बोलता है जो सादके का सवाल कहलाता है। यह सवाल इस प्रकार है-
“आखा साका सादका वेग तण्या विचार कलश में कला गत में नूर आवो? सामी परवत सू। सादका जाप सम्पूर्ण व्हीया गादी बैठा अलखजी भाग्जीया। साद को सलाम, गुरु को हरनाम। बोलो सता सत साहेब की।”
इस सवाल से तात्पर्य यह है कि सवाल नोलने वाले ने गवामान ने सम्मिलिन होने का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया है और यथासमय वह यथान्यान पहुंच यदि किसी व्यक्ति को किसी कारणवश उसमें शरीक नहीं होना होता हे नो वह उपर्युक्त, सवाल नहीं बोलेगा और न सादके ही लेगा। ये सादके सुगरे व्यक्ति को ही दिये जाते है नुगरे को नहीं। सुगरा से तात्पर्य शखाढाल का सदस्य होने से है। सुगरा बनाने की यह क्रिया शखाढाल के समय हीसपूरित होती है जब कहीं शंखाढाल हो रहा होता है तब वहा उस बालक विशेष को आंख बन्दकर गुरु के पास लाया जाता है। गुरु दक्षिणा के रूप में एक रुपया नारियल गुरु केहाथ में रख दिया जाता है तब गुरु बालक के सिर पर हाथ रखता हुआ उसके कान में फूंक मार देता है। इससे बच्चा दीक्षित हुआ समझ लिया जाता है।
मृतक गृह में जहाँ शखाढाल का आयोजन किया जाता है वहाँ दूसरे व्यक्तियों का आना-जाना बन्द रहता है। इसके लिये प्रायः अलग ही एक मेडी ओवरा रहता है! सर्वप्रथम गुरु के निर्देश में कोटवाल द्वारा पाट पूरने की रस्म पूरी की जाती है। यह पाट सवा हाथ कपड़े पर पूरा जाता है। आगन पर पहले सफेद और उसके ऊपर लाल कपड़ा बिछा दिया जात है। यह कपडा ओछाड कहलाता है। इस ओछाड़ पर चांवलों से कोटवाल द्वारा पाट पूरा जाता है। इसमें सबसे ऊपर तीन तिबारियाँ बनाई जातीहै।
इनमें पहली तिबारी में रोहिदास तथा सुगताबाई, दूसरी में निशान, तुम्बी, चिमटा तथा पगल्या, समाधि एवं तीसरी मे डालीबाई व हरजी भाटी कोरे जाते हैं। पहली तिबारी के नीचे एक के नीचे एक करके पांच पाडव, गणेशजी, गणेशजी के नीचे मालदे एवं रूपादे राणी तथा इनके नीचे प्रहलाद भक्त एवं रजा बलि दिखाये जाते हैं। बीच वाली तिबारी के नीचे रामदेवजी का घोड़ा, घोडे के नीचे हिंगलाज का कलश जोत तथा उसके पास गय एवं माताजी को अकित किया जाता है। तीसरी तिवारी के नीचे हनुमानजी और उनके साथ चिमटा लिये कोटवाल, इनके नीचे जेतलजी व रानी तोलादे तथा नीचे राजा हरिशचन्द्र एव रानी तारामती मॉडे जाते है।
पाट के बीच में जहां कलश रखा जाता है उसके दोनों ओर एक तरफ त्रिशूल तथा दूसरी तरफ वासक बनाये जाते हैं। यह सारा पाट सवासेर चावलों से बड़ी बारीक कलाकरी लिये होता है। बीच पाट पर सातिया मांडा जाता है इसी सातिये पर कलश थोपा जाता है। इस कलश में प्रसाद रूप में चूरमा बाटी ठांड दिया जाता है। यह प्रसाद 'भाव' नाम से जाना जाता है। कलश के ऊपर जोत दीपाई जाती है। यह जोत पूरी रात प्रज्वलित होती रहती है। इस पाट के वारों कोनो पर चार व्यक्ति बैठते हैं। इनमें एक गुरु तथा तीन मृतक के मुग्न्य रिश्तेदार होते है। ये पूरी रात एकासन में वहीं वैठे रहते हैं।पाट पूरने का सवाल इस प्रकार है -
“ओम गुरुजी, पेला जुग में काहे का पाट? काहे का ठाठ? काहे का मनरा? काहे की चेली? काहे का नाद? काहे की जनोई? काहे की पत्थर पावडी?”
“ओम गुरुजी, पेला जुग में रूपा का पाट, रूपा का ठाठ, रूपा का मनरा, रूपे की चेली, रूपा का नाद, रूपे की जनोई, रूपे की पत्थर पावडी। जाप से पाट पूरे बैठ पालकी अपरापुर जावे। वना जाप से पाट पूरे पुन्न परडा जावे।”
इसी प्रकार दूजा जुग में रूपे की बजाय सोना, तीजा जुग मे मोती तथा चौथा जुग में माटी का नाम ले लेकर सवाल रहता है।
पाट के पास ही कर्डो की आग पर चूरमे नारियल की धूप खेई जाती है। इस धूप से जो लौ निकलती है उससे कलश की जोत की ज्योति दी जाती है। यह ज्योति लकडी पर कच्चे सूत के केंकड़े की सहायता से गिराई जाती है। यह केकडा पांच व्यक्तियों से स्पर्श कराया जाता है। कलश पर जोत गिरते ही सभी बत्तीस करोड देवताओं की जय- ध्वनि उच्चारित की जाती है। यह समय रात्रि के दस-ग्यारह बचे के करीब का होता है। जोत करने के पश्चात् जिस घर में आयोजन किया जा रहा होता है उसके किवाड़ बन्द कर दिये जाते हैं तथा भीतर एक पर्दा डाल दिया जाता है। धूप चेताने देने का यह सारा काम कोटवाल के जिम्मे रहता है। यो भी सम्पूर्ण शंखाढाल में कोटवाल की भूमिका बड़ी महत्व की होती है।
यह गुरु महाराज कासच्चा सेवक होता है जो श्रद्धा पूर्वक उनका हर हुक्म बजाता है। इसीलिये इसे गुरु महाराज का हजूरिया भी कहते है।धूप चेताते वक्त भी कोटवाल का सवाल होता है-
“ओम गुरुजी, धूप से रूप, पेप से पूजा, पांचोई देव मुख माडे, धूप पांचो अलख है धरबार, पाप करीने धूप करे, बैठ पालकी अपरापुर जावे। बना जाप से धूप करे पुन्न परडे जावे। साध को सलाम......”
पाट पूरने के पश्चात् भजनों का कार्यक्रम प्रारम्भ होता है। तंदुरा, मजीरा तथा खजरी के सहारे रात-रात पर भजनियों की भजन तन्मयता देखते ही बनती है। करीब चार बने शंख ढोलने की रस्म प्रारम्भ होती है भजन भाव के साथ साथ मृतक संस्कार के लिये (डठल) की खाटली (अर्थी) बनाई जाती है। यह अधी डिग्यार बहला है। इसे कच्चे सूत पर लपेट कर इसके चारो किनारों पर चार भागे बांध दिये जाते हैं। इन धान धागों को एक बड़े धागे से जोड़ दिया जाता है। यह धागा पकान के संबंध दिया जाता है । पाट पूरने के स्थान पर मिट्टी के रखे कुटे में यह गिलाद लदका दिया जाता है। इस हिगलाट पर उडद के आटे अथवा दान नामक धाम का गुलना बनाकर सुला दिया जाता है। पुरुष मृतक का शंखाढालहोने की अवस्था में सफेद और भी मृतक की अवस्था में इस पुतले को लाल कपडा ओढ़ाकर झुलाया जाता है । अपर डाई लग सूत में 9 पीपली के पत्ते बांध दिये जाते हैं। ये नौ पत्ते। पेडिया (सीहिया) कहलाती है जिनके द्वारा भगवान तक पहुचा जाता है। कूडे के पास शंख पड़ा रहता है। शंखाहाल में आये सभी सगे सम्बन्धी शख में पानी भर-भर कर हिंगलाट पर डालत रहते हैं पानी डालते समय हर व्यक्ति अपनी अगुली में दाब की अंगूठी धारण करता है। गरव सं हिंगलाट पर पानी यह क्रिया “शखढाल” कहलाती है। यह दृश्य बा भाव बिल होता है जबकि सभी लोग सिसकियां भर-भर अश्रुपूरित अवस्था में होते है।
शंखादाल का यह प्रारम्भ यूं ही नहीं हो जाता। इसके प्रारम्भ में पृथ्वी को बधाने वाले गणदेव गणेश की “आवीनी गुणेश देवता धरती बधावणा” के रूप में आरती गाई जाती है।शख ढोलते वक्त का सवाल इस प्रकार है-
“ढोले शंख पावे मोक्ष, करणी करतां नहीं है दोष, सोना सींगो रूपाखरी जामर पूछी। सवासेर धडो दूध रो देती तार तार माता गंवतरी।” ये शख पांच सात तथा नौ तक ढोले जाते है तब इनका सवाल कुछ भिन्न प्रकार का होता है। यथा - “ओम गुरुजी। आद शख अलख जी पाया, अधर आसान से आवाज लगाया। दूजा शंख सगरे दिया, बांध काकण जग मोया। नाभ कमल का वास किया। तीजा शंख गुरजी को दिया वेला के कान सुनाया। चौथा शख गधा को दिया स्वर शंख नाम धराया| पांचवा शरख पांडवां को दिया, अधर आसन से आवाज लगाया। धूमर घट्टी झूमर पूंछ सोना सींगी रूपा खरी तार तार माता गवंतरी| ढोले शंख पावे मोक्ष। पांच शंख गवंतरी जाप से डोले, बैठ पालकी अमरापुर जावे। बना जाप के शंख ढोले पुन्न परडा जावे। पांच शंख गवंतरी सपूरण व्हीया। गादी बैठ अलखजी भाखिया......”
शंख ढोलते वक्त नौ हीपेड़ियों का भी सवाल होता है। एक-एक पेड़ी को पकड-पकड़कर 'जय' उच्चरित किया जाता है और सवाल बोला जाता है। “ओम गुरुजी। पेली पेड़ी परभात तणी। सरव धात के सांसे चड़ी” राई राई जीव अन्धेरा हुआ। कुण माता ने कुण पिता? गोरज्या माता ने ईसरजी पिता? कहा हंसा कहां जावोगे ? म्हे जावूगा राजा धरम के दरबार। धरम राजा लेखा मागे। नाम नामणी जापट मारे। कई दाण देके उतरोगे पार? रूपा दाण देके उतरूंगा पार'। इसी प्रकार एक-एक पेडी पकडते हुए क्रमश-रूपा, सोना, कपडा, अन्न, जोड़ी, भोम, माटी, ताबा तथा गऊ दाण बोलकर नौ पेडी का सवाल पूरा किया जाता है।
प्रात: कोई पाच बजे पेडी खोलकर कूडे में रख दी जाती है । तत्पश्चात् चार व्यक्ति इस कुंडे को लेकर बाहर किसी एकात में उस हिगलाट को समाधिस्थ कर देते हैं, इस समय गावंतरी जापी जाती है, बोल है-
“ओम गुरुजी। आवो हंसा खोलो अमर टाटी। अमर टाटी में करे उजियालो । सगरा जीव समाधि लेवे। नगरा जीव मसाण जले| कुण खोदे? कुण खोदावे? किसनजी खोदे, विष्णु जी खोदावे। खोद्या-खोया सवा हाथ जमीं पाया सोना की मिट्टी| रूपा का पावड़ा। अडी खडी पीर केवाणां। चोथी खडी जीव केवाणा। मु सात दाब का तरमा। समाधि गावंतरी जाप कर स्टे। बैठ पालकी अ जाप के समाधि लेवे तो पुन्न परड़े जावे । समाधि गावतरी सपूरण व्ही। गादी बैठता नाथजी भाखिया.....”
इस समाधि पर बाद में एक छोटी सी चबूतरी बना दी जाती है। इसके नारियल चूरमे की धूप दे दी जाती है। समाधि पूरी होने पर चारों व्यक्ति यथास्थान जाते हैं। अन्दर प्रवेश करने से पूर्व कोटवाल उनसे सवाल करता है जिसका जवाब प्राप्त कर ही उन्हे अन्दर प्रवेश दिया जाता है। सवाल जवाब इस तरह है-
तुम कहाँ गये?
अपरापुर गये।
कितने गये?
पांच गये।
(चार व्यक्ति तथा एक मृतक - हिंगलाट)
एक कहां छोड आये?
अपरापुर में।
शंखढ़ाल की यह क्रिया सम्पूर्ण होने के बाद अन्त मे आरती की जाती है और शवाला प्रसाद सभी को बॉट दिया जाता है। शंखाढ़ाल सम्बन्धी भजनों में मीरा, कबीर रूपा दे तोला दे बाणिया आदि के भजन गाये जाते हैं|
यहा बाणिया
तिलोकचन्द नया रूपादे का एक एक भजन पष्टय है
आज म्हारा वीगजी को राज ए.
सावग्यिो मले तो देसा आलमो जी,
गिरधारी मले तो देसा ओलमो जी.... आज()
केसर ने कस्तूरी काली क्यू पडी,
क्यू आयो हलदी में रग म्हारा राज.... आज()
नेनकड़िया टाबरिया री माताक्यू मग
क्यू दीदो बाली ने रंडपो म्हारा राज.... आज()
एकलडी मत करजे वन रो रूंकड़ो,
मती करजे गाया रो गवाल म्हारा गज... आज()
बना भायां की कसी बेनड़ी,
नही म्हारे जामणजायो वीर म्हारा राज.... आज()
सासुजी बना तो सुनो सासरो,
नहीं म्हारे पोता रो परवार म्हारा राज.... आज()
बाणिया तिलोकचन्द री विनती,
भाईडा रो बेकुंठा में वास म्हारा राज.... आज()
(ख) ए माता म्हानै भली तो परणाई नगरा देश में ओ जी।
मेले जावा नी दे, जमले जावा नी दे,
भाईडाऊं मलवा नी दे ए माता म्हाने......
यो जुग तो लागै दोइलोजी ए माता म्हाने........
ए माता म्हानै करती ए डेरी री कुतरी जी
इतो आवता साधुडा टुकडो नाकता म्हाने.....
ए माता म्हारी म्हानै करती ए पंथी बावड़ी जी
इतो आवता साधुड़ा पाणी पीवता म्हाने........
ए माता म्हानै करती ए बनड़ी रोजडी ओ जी
मतक सम्कार गवाहाल
इता आवता शिकली गोली मारता म्हाने......
ए माता रहाने करदी ए पारस पीपरी ओ जी
इतो आवा पीडा छाया बेठता ओ जी म्हाने......
ए माता म्हारी राणी रूपादे री विनती ओ जी
इतो सुणजो सूरत लगाय ए माता म्हाने......
इस प्रकार हम देखते है कि शंखाढाल एक ऐसा सस्कार है जो न केवल वर्तमान जीवन को ही सुखमय देखता है अपितु आगे का जीवन भी अच्छे सांस्कृतिक रूप मे जन्म धारण करे, इस ओर भी यह शखाढाल मनुज को मृत्युलोक से अमरत्व की ओर पहुंचता है।