अब हम पीछे की तरफ लौटते हैं और पुनः उस दिन का हाल लिखते हैं जिस दिन महाराज सुरेन्द्रसिंह और वीरेन्द्रसिंह वगैरह तिलिस्मी तमाशा देखने के लिए रवाना हुए हैं। हम ऊपर के बयान में लिख आये हैं कि उस समय महाराज और कुमारों के साथ भैरोसिंह और तारासिंह न थे, अर्थात् वे दोनों घर पर ही रह गये थे, अस्तु इस समय उन्हीं दोनों का हाल लिखना बहुत जरूरी हो गया है।
महाराज सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह, कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह वगैरह के चले जाने के बाद भैरोसिंह अपनी मां से मिलने के लिए तारासिंह को साथ लिए हुए महल में गये। उस समय चपला अपनी प्यारी सखी चंपा के कमरे में बैठी हुई धीरे-धीरे बातें कर रही थी जो भैरोसिंह और तारासिंह को आते देख चुप हो गई और इन दोनों की तरफ देखकर बोली, ''क्या महाराज तिलिस्मी तमाशा देखने के लिए गए हैं?'
भैरोसिंह - हां अभी थोड़ी ही देर हुई कि वे लोग उसी पहाड़ी की तरफ रवाना हो गए।
चपला - (चंपा से) तो अब तुम्हें भी तैयार हो जाना पड़ेगा।
चंपा - जरूर, मगर तुम भी क्यों नहीं चलतीं?
चपला - जी तो मेरा ऐसा ही चाहता है मगर मामा साहब की आज्ञा हो तब तो!
चंपा - जहां तक मैं खयाल करती हूं वे कभी इनकार न करेंगे। बहिन जब से मुझे मालूम हुआ है कि इंद्रदेव तुम्हारे मामा होते हैं तब से मैं बहुत प्रसन्न हूं।
चपला - मगर मेरी खुशी का तुम अंदाजा नहीं कर सकतीं, खैर इस समय असल काम की तरफ ध्यान देना चाहिए। (भैरोसिंह और तारासिंह की तरफ देखकर) कहो तुम लोग इस समय यहां कैसे आये?
तारा - (चपला के हाथ में एक पुर्जा देकर) जो कुछ है इसी से मालूम हो जायगा।
चपला ने तारासिंह के हाथ से पुर्जा लेकर पढ़ा और फिर चंपा के हाथ में देकर कहा, ''अच्छा जाओ कह दो कि हम लोगों के लिए किसी तरह का तरद्दुद न करें, मैं अभी जाकर कमलिनी और लक्ष्मीदेवी से मुलाकात करके सब बातें तै कर लेती हूं।''
''बहुत अच्छा'' कहकर भैरोसिंह और तारासिंह वहां से रवाना हुए और इंद्रदेव के डेरे की तरफ चले गये।
जिस समय महाराज सुरेन्द्रसिंह वगैरह तिलिस्मी कैफियत देखने के लिए रवाना हुए उसके दो या तीन घड़ी बाद घोड़े पर सवार इंद्रदेव भी अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए उसी पहाड़ी की तरफ रवाना हुए मगर ये अकेले न थे बल्कि और भी तीन नकाबपोश इनके साथ थे। जब ये चारों आदमी उस पहाड़ी के पास पहुंचे तो कुछ देर के लिए रुके और आपस में यों बातचीत करने लगे -
इंद्रदेव - ताज्जुब है कि अभी तक हमारे आदमी लोग यहां तक नहीं पहुंचे।
दूसरा - और जब तक वे लोग नहीं आवेंगे तब तक यहां अटकना पड़ेगा।
इंद्रदेव - बेशक।
तीसरा - व्यर्थ यहां अटके रहना तो अच्छा न होगा।
इंद्रदेव - तब क्या किया जायगा?
तीसरा - आप लोग जल्दी से वहां पहुंचकर अपना काम कीजिए और मुझे अकेले इसी जगह छोड़ दीजिए, मैं आपके आदमियों का इंतजार करूंगा और जब वे आ जायेंगे तो सब चीजें लिए आपके पास पहुंच जाऊंगा।
इंद्रदेव - अच्छी बात है, मगर उन सब चीजों को क्या तुम अकेले उठा लोगे?
तीसरा - उन सब चीजों की क्या हकीकत है, कहिए तो आपके आदमियों को भी उन चीजों के साथ पीठ पर लादकर लेता आऊं।
इंद्र - शाबाश! अच्छा रास्ता तो न भूलोगे?
तीसरा - कदापि नहीं, अगर मेरी आंखों पर पट्टी बांधकर आप वहां तक ले गये होते तब भी मैं रास्ता न भूलता और टटोलता हुआ वहां तक पहुंच ही जाता।
इंद्रदेव - (हंसकर) बेशक तुम्हारी चालाकी के आगे यह कोई कठिन काम नहीं है, अच्छा हम लोग जाते हैं, तुम सब चीजें लेकर हमारे आदमियों को फौरन वापस कर देना।
इतना कहकर इंद्रदेव ने उस तीसरे नकाबपोश को उसी जगह छोड़ा और दो नकाबपोशों को साथ लिए हुए आगे की तरफ बढ़े।
जिस सुरंग की राह से राजा वीरेन्द्रसिंह वगैरह उस तिलिस्मी बंगले में गये थे उनसे लगभग आध कोस उत्तर की तरफ हटकर और भी एक सुरंग का छोटा-सा मुहाना था जिसका बाहरी हिस्सा जंगली लताओं और बेलों से बहुत ही छिपा हुआ था। इंद्रदेव दोनों नकाबपोशों को साथ लिए तथा पेड़ों की आड़ देकर चलते हुए इसी दूसरी सुरंग के मुहाने पर पहुंचे और जंगली लताओं को हटाकर बड़ी होशियारी से इस सुरंग के अंदर घुस गये।