रात पहर से ज्यादे जा चुकी है। एक सुंदर सजे हुए कमरे में राजा गोपालसिंह और इंद्रदेव बैठे हैं और उनके सामने नानक हाथ जोड़े बैठा दिखाई देता है।

गोपाल - (नानक से) ठीक है, यद्यपि इन बातों में तुमने अपनी तरफ से कुछ नमक-मिर्च जरूर लगाया होगा मगर फिर भी मुझे कोई ऐसी बात नहीं जान पड़ती जिससे भूतनाथ को दोषी ठहराऊं। उसने जो कुछ तुम्हारी मां से कहा सच कहा और उसके साथ जैसा बर्ताव किया वह उचित ही था। इस विषय में मैं भूतनाथ को कुछ भी नहीं कह सकता और न अब तुम्हारी बातों पर भरोसा ही कर सकता हूं। बड़े अफसोस की बात है कि मेरी नसीहत ने तुम्हारे दिल पर कुछ भी असर न किया1 और अगर कुछ किया भी तो वह दो-चार दिन बाद जाता रहा। अगर तुम अपनी मां के साथ नन्हों के मकान में गिरफ्तार न हुए होते तो कदाचित् मैं तुम्हारे धोखे में आ जाता मगर अब मैं किसी तरह भी तुम्हारा साथ नहीं दे सकता।

नानक - मगर आप मेरा कसूर माफ कर चुके हैं और...।

इंद्रदेव - (नानक से) अगर तुम उस माफी को पाकर खुश हुए थे तो फिर पुराने रास्ते पर क्यों गये और पुनः अपनी मां को लेकर नन्हों के पास क्यों पहुंचे तुम्हें बात करते शर्म नहीं आती!!

गोपाल - फिर भी मैं अपनी जबान (माफी) का खयाल करूंगा और तुम्हें किसी तरह की तकलीफ न दूंगा, मगर अब भूतनाथ की तरह मैं भी तुम्हारी सूरत देखना पसंद नहीं करता और न भूतनाथ को इस विषय में कुछ कहना चाहता हूं। इंद्रदेव ने तुम्हारे साथ इतनी ही रियायत की सो बहुत किया कि तुमको यहां से निकल जाने की आज्ञा दे दी नहीं तो तुम इस लायक थे कि जन्म भर कैद में पड़े सड़ा करते।

नानक - जो आज्ञा, मगर मेरे पिता से इतना तो दिला दीजिए कि मेरी मां जन्म भर खाने-पीने की तरफ से बेफिक्र रहे।

इंद्रदेव - अबे कमीने, तुझे यह कहते शर्म नहीं मालूम होती! इतना बड़ा हो के भी तू अपनी मां के लायक दाना-पानी नहीं जुटा सकता और अब तुझे आखिरी मर्तबे कहा जाता है कि अब हम लोगों से किसी तरह की उम्मीद न रख और अपनी मां को साथ लेकर यहां से चला जा। भूतनाथ ने भी मुझे ऐसा ही कहने के लिए कहला भेजा है।

इतना कहकर इंद्रदेव ने ताली बजाई और साथ ही अपने ऐयार सूर्यसिंह को कमरे के अंदर आते देखा।

इंद्रदेव - (सूर्य से) भूतनाथ कहां है?

सूर्य - नंबर पांच के कमरे में देवीसिंहजी से बातें कर रहे हैं, वे दोनों यहां आये भी थे मगर

1. देखिए चंद्रकान्ता संतति, उन्नीसवां भाग, तीसरा बयान।

यह सुनकर कि नानक यहां बैठा हुआ है पिछले पैर लौट गये।

इंद्रदेव - अच्छा तुम जाओ और उन्हें यहां बुला लाओ।

सूर्यसिंह - जो आज्ञा, परंतु मुझे आशा नहीं है कि वे लोग नानक के रहते यहां आवेंगे।

इंद्रदेव - अच्छा तो मैं खुद जाता हूं।

गोपाल - हां तुम्हारा ही जाना ठीक होगा, देवीसिंह को भी बुलाते आना।

इंद्रदेव उठकर चले गये और थोड़ी ही देर में भूतनाथ तथा देवीसिंह को साथ लिए हुए आ पहुंचे।

गोपाल - (भूतनाथ से) क्यों साहब, आप यहां तक आकर लौट क्यों गये?

भूत - यों ही, मैंने समझा कि आप लोग किसी खास बात में लगे हुए हैं।

गोपाल - अच्छा बैठिये और एक बात का जवाब दीजिए।

भूत - कहिए?

गोपाल - रामदेई और नानक के बारे में आप क्या हुक्म देते हैं?

भूत - महाराज ने क्या आज्ञा दी है?

गोपाल - उन्होंने इसका फैसला आप ही के ऊपर छोड़ा है।

भूत - फिर जो राय आप लोगों की हो, मैंने तो इन दोनों के बारे में इसकी मां को हुक्म सुना ही दिया है।

गोपाल - इनके कसूर तो आप सुन ही चुके होंगे।

भूत - पिछले कसूरों को तो मैं सुन ही चुका हूं, हां नया कसूर सिर्फ इतना ही मालूम हुआ है कि ये दोनों नन्हों के यहां गिरफ्तार हुए हैं।

गोपाल - इसके अतिरिक्त एक बात और है।

भूत - वह क्या?

गोपाल - यही कि ये दोनों अगर खाली हाथ न होते तो बेचारी शांता को जान से मार डालते।

इतने ही में नानक बोल उठा, ''नहीं-नहीं, यह आपके जासूसों ने हमारे ऊपर झूठा इल्जाम लगाया है!''

भूत - अगर यह बात है तो मैं इसे हथकड़ी से खाली क्यों देखता हूं?

इंद्रदेव - इसीलिए कि हमारे हाते के अंदर ये लोग कुछ कर नहीं सकते। जब ये लोग यहां गिरफ्तार होकर आये तो कुछ दिन तक तो भलमनसी के साथ रहे मगर आज इनकी नीयत बिगड़ी हुई मालूम पड़ी।

भूत - खैर, अब आप ही इनके लिए हुक्म सुनाइये। मगर इंद्रदेव, आप यह न समझियेगा कि इन लोगों के बारे में मुझे किसी तरह का रंज है। मैं सच कहता हूं कि इन दोनों का यहां आना मेरे लिए बहुत अच्छा हुआ! मैं इन लोगों के फेर में बेतरह फंसा हुआ था। आज मालूम हुआ कि ये लोग जहर हलाहल से भी बढ़े हुए हैं, अस्तु आज इन लोगों से पीछा छुड़ाकर मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ। मेरे सिर से बोझा उतर गया और आज मेरी जिंदगी खुशी के साथ बीतेगी। आपका कहना सच निकला अर्थात् इनका यहां आना मेरे लिए खुशी का सबब हुआ।

इंद्रदेव - अच्छा यह बताइये कि ये अगर इसी तरह छोड़ दिये जायं तो आपके खजाने को तो किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचा सकते जो 'लामाघाटी' के अंदर है।

भूत - कुछ भी नहीं, और 'लामाघाटी' के अंदर जेवरों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं, सो जेवरों को मैं वहां से मंगवा ले सकता हूं।

इंद्रदेव - अगर सिर्फ नानक की मां के जेवरों से आपका मतलब है तो वह अब मेरे कब्जे में हैं क्योंकि नन्हों के यहां वह बिना जेवरों के नहीं गई थी।

भूत - बस तो मैं उस तरफ से बेफिक्र हो गया, यद्यपि उन जेवरों की मुझे कोई परवाह नहीं है मगर उसके पास मैं एक कौड़ी भी नहीं छोड़ा चाहता। इसके अतिरिक्त यह भी जरूर कहूंगा कि अब ये लोग सूखा छोड़ देने लायक नहीं रहे।

इंद्रदेव - खैर जैसी राय होगी वैसा ही किया जायगा।

इतना कहकर इंद्रदेव ने पुनः सूर्यसिंह को बुलाया और जब वह कमरे के अंदर आ गया तो कहा - ''थोड़ी देर के लिए नानक को बाहर ले जाओ।''

नानक को लिए हुए सूर्यसिंह कमरे के बाहर चला गया और इसके बाद चारों आदमी विचार करने लगे कि नानक ओैर उसकी मां के साथ क्या बर्ताव करना चाहिए। देर तक सोच-विचार कर यही निश्चय किया कि उन दोनों को देश से निकाल दिया जाय और कह दिया जाय कि जिस दिन हमारे महाराज की अमलदारी में दिखाई दोगे उसी दिन मार डाले जाओगे।

इस हुक्म पर महाराज से आज्ञा लेने की इन लोगों को कोई जरूरत न थी क्योंकि उन्होंने सब बातें सुन-सुनाकर पहले ही हुक्म दे दिया था कि भूतनाथ की आज्ञानुसार काम किया जाय, अस्तु नानक कमरे के अंदर बुलाया गया और इसके बाद रामदेई भी बुलाई गई। जब दोनों इकट्ठे हो गए तो उन्हें हुक्म सुना दिया गया।

यह हुक्म यद्यपि साधारण मालूम होता है मगर उन दोनों के लिए ऐसा न था जिन्हें भूतनाथ की बदौलत शाहखर्ची की आदत पड़ गई थी। नानक और रामदेई की आंखों से आंसू जारी था जब इन्द्रदेव ने सूर्यसिंह को हुक्म दिया कि चार आदमी इन दोनों को ले जायं और महाराज की सरहद के बाहर कर आवें। सूर्यसिंह दोनों को लिए कमरे के बाहर निकल गया।

भूत - सिर से बोझ उतरा और कम्बख्तों से पीछा छूटा, अच्छा अब बतलाइये कि कल क्या-क्या होगा

गोपाल - महाराज ने तो यही हुक्म दिया है कि कल यहां से डेरा कूच किया जाय और तिलिस्म की सैर करते हुए चुनारगढ़ पहुंचें, चंपा, शांता, हरनामसिंह, भरतसिंह और दलीपशाह वगैरह बाहर की राह से चुनार भेज दिये जायं, यदि हमारे किसी ऐयार की भी इच्छा हो तो उनके साथ चला जाय।

भूत - ऐसा कौन बेवकूफ होगा जो तिलिस्म की सैर छोड़ उनके साथ जाएगा!

देवीसिंह - सभी कोई ऐसा ही कहते हैं।

भूत - हां यह तो बताइये कि मैंने नानक को जब दरबार में देखा था तो उसके हाथ में एक लपेटी तस्वीर थी, अब वह तस्वीर कहां है और उसमें क्या बात थी?

इंद्रदेव - वह कागज जिसे आप तस्वीर समझे हुए हैं मेरे पास है, आपको दिखाऊंगा। असल में वह तस्वीर नहीं बल्कि नानक ने उसमें एक बहुत बड़ी दर्खास्त लिखकर तैयार की थी जो दरबार में आ के पेश किया चाहता था, मगर ऐसा कर न सका।

भूत - उसमें लिखा क्या था?

इंद्रदेव - जो लोग उसे गिरफ्तार कर लाये हैं उनकी शिकायत के सिवाय और कुछ भी नहीं। साथ ही इसके उस दर्खास्त में इस बात पर बहुत जोर दिया गया था कि कमला की मां वास्तव में मर गई है और आज जिस शांता को सब कोई देख रहे हैं वह वास्तव में नकली है।

भूत - वाह रे शैतान! (कुछ सोचकर) तो शायद यह दर्खास्त महाराज के हाथ तक नहीं पहुंची।

इंद्रदेव - क्यों नहीं, मैंने जान-बूझकर ऐसा करने का मौका दिया। वह रात को पहरे वालों से इत्तिला कराकर खुद महाराज के पास पहुंचा और उनके सामने वह दर्खास्त रख दी। उस समय महाराज ने मुझे बुलाया और मुझी को वह दर्खास्त पढ़ने के लिए दी गई। उसे सुनकर महाराज ने मुस्करा दिया और इशारा किया कि वह कमरे के बाहर निकाल दिया जाय क्योंकि इसके पहले मैं शांता और हरनामसिंह का पूरा-पूरा हाल महाराज से अर्ज कर चुका था।

भूत - अच्छा मुझे वह दर्खास्त दिखाइयेगा।

इंद्रदेव - (उंगली से इशारा करके) वह कारनिस के ऊपर पड़ी हुई है, देख लीजिए।

भूतनाथ ने दर्खास्त उतारकर पढ़ी और इसके बाद कुछ देर तक उन लोगों में बातचीत होती रही।

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