सुबह का सुहावना समय सब जगह एक-सा नहीं मालूम होता, घर की खिड़कियों से उसका चेहरा कुछ और ही दिखाई देता है और बाग में उसकी कैफियत कुछ मस्तानी होती है, पहाड़ में उसकी खूबी कुछ और ढंग की दिखाई देती है और जंगल में उसकी छटा कुछ निराली ही होती है। आज इंद्रदेव के इस अनूठे स्थान में इसकी खूबी सबसे चढ़ी-बढ़ी है, क्योंकि जहां जंगल भी हैं, पहाड़ भी, अनूठा बाग तथा सुंदर बंगला या कोठी भी है, फिर यहां के आनंद का पूछना ही क्या। इसलिए हमारे महाराज कुंअर साहब और ऐयार लोग भी यहां घूमकर सुबह के सुहावने समय का पूरा आनंद ले रहे हैं, खास करके इसलिए कि आज ये लोग डेरा कूच करने वाले हैं।
बहुत देर घूमने-फिरने के बाद हर कोई बाग में आकर बैठा और इधर-उधर की बातें होनी लगीं।
जीत - (इंद्रदेव से) भरतसिंह वगैरह तथा औरतों को आपने चुनार रवाना कर दिया।
इंद्रदेव - जी हां, बड़े सबेरे ही उन लोगों को बाहर की राह से रवाना कर दिया। औरतों के लिए सवारी का इंतजाम कर देने के अतिरिक्त अपने दस-पंद्रह मातबिर आदमी भी साथ कर दिये हैं।
जीत - तब अब हम लोग भी कुछ भोजन करके यहां से रवाना हुआ चाहते हैं।
इंद्रदेव - जैसी मर्जी।
जीत - भैरो और तारा जो आपके साथ यहां आए थे कहां चले गए, दिखाई नहीं पड़ते।
इंद्रदेव - अब भी मैं उन्हें अपने साथ ही ले जाने की आज्ञा चाहता हूं क्योंकि उनकी मदद की मुझे जरूरत है।
जीत - तो क्या आप हम लोगों के साथ न चलेंगे?
इंद्रदेव - जी हां उस बाग तक जरूर साथ चलूंगा जहां से मैं आप लोगों को यहां तक ले आया हूं पर उसके बाद गुप्त हो जाऊंगा क्योंकि मैं आपको कुछ तिलिस्मी तमाशे दिखाया चाहता हूं और इसके अतिरिक्त उन चीजों को भी तिलिस्म के अंदर से निकलवाकर चुनार पहुंचाना है जिनके लिये आज्ञा मिल चुकी है।
सुरेन्द्र - नहीं, नहीं, गुप्त रीति पर हम तिलिस्म का तमाशा नहीं देखा चाहते, हमारे साथ रहकर जो-जो कुछ दिखा सको दिखा दो, बाकी रहा उन चीजों को निकलवाकर चुनार पहुंचाना, सो यह काम दो दिन के बाद भी होगा तो कोई हर्ज नहीं।
इंद्रदेव - जैसी आज्ञा।
इतना कहकर इंद्रदेव थोड़ी देर के लिए कहीं चले गए और तब भैरोसिंह तथा तारासिंह को साथ लिए आकर बोले, ''भोजन तैयार है।''
सब कोई वहां से उठे और भोजन इत्यादि से छुट्टी पाकर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए। जिस तरह इंद्रदेव इन लोगों को अपने स्थान में ले आये थे उसी तरह पुनः उस तिलिस्मी बाग में ले गये जिसमें से लाए थे।
जब महाराज सुरेन्द्रसिंह वगैरह उस बारहदरी में पहुंचे जिसमें पहले दिन आराम किया था और जहां बाजे की आवाज सुनी थी तब दिन पहर भर से कुछ ज्यादे बाकी था। जीतसिंह ने इंद्रदेव से पूछा, ''अब क्या करना चाहिए?'
इंद्रदेव - यदि महाराज आज की रात यहां रहना पसंद करें तो एक दूसरे बाग में चलकर वहां की कुछ कैफियत दिखाऊंगा!
जीत - बहुत अच्छी बात है, चलिये।
इतना सुनकर इंद्रदेव ने उस बारहदरी की कई अलमारियों में से एक अलमारी खोली और उसके अंदर जाकर सभों को अपने पीछे आने का इशारा किया। यहां एक गली के तौर पर रास्ता बना हुआ था जिसमें सब कोई इंद्रदेव की इच्छानुसार बेखौफ चले गए और थोड़ी दूर जाने के बाद जब इंद्रदेव ने दूसरा दरवाजा खोला तब उसके बाहर होकर सभों ने अपने को एक छोटे बाग में पाया जिसकी बनावट कुछ विचित्र ही ढंग की थी। यह बाग जंगली पौधों की सब्जी से हरा-भरा था और पानी का चश्मा भी बह रहा था मगर चारदीवारी के अतिरिक्त और किसी तरह की बड़ी इमारत इसमें न थी, हां बीच में एक बहुत बड़ा चबूतरा जरूर था जिस पर धूप और बरसाती पानी के लिए सिर्फ मोटे-मोटे बारह खंभों के सहारे पर छत बनी हुई थी और चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों तरफ सीढ़ियां थीं।
यह चबूतरा कुछ अजीब ढंग का बना हुआ था। लगभग चालीस हाथ के चौड़ा और इतना ही लंबा होगा। इसके फर्श में लोहे की बारीक नालियां जाल की तरह जड़ी हुई थीं और बीच में एक चौखूटा स्याह पत्थर इस अंदाज का रखा था जिस पर चार आदमी बैठ सकते थे। बस इसके अतिरिक्त इस चबूतरे में और कुछ भी न था।
थोड़ी देर तक सब कोई उस चबूतरे की बनावट देखते रहे, इसके बाद इंद्रदेव ने महाराज से कहा, ''तिलिस्म बनाने वालों ने यह बगीचा केवल तमाशा देखने के लिए बनाया था। यहां की कैफियत आपके साथ रहकर मैं नहीं दिखा सकता हां यदि आप मुझे दो-तीन पहर की छुट्टी दें तो...!!''
इंद्रदेव की बात महाराज ने मंजूर कर ली और तब वह (इंद्रदेव) सभों के देखते-देखते चौखूटे पत्थर के ऊपर चले गये जो चबूतरे के बीच में जड़ा हुआ था। सवार होने के साथ ही वह पत्थर हिला और इंद्रदेव को लिए हुए जमीन के अंदर चला गया मगर थोड़ी देर में पुनः ऊपर चला आया और अपने ठिकाने पर ज्यों का त्यों बैठ गया लेकिन उस समय इंद्रदेव उस पर न थे।
इंद्रदेव के चले जाने के बाद थोड़ी देर तक तो सब कोई उस चबूतरे पर खड़े रहे, इसके बाद धीरे-धीरे वह चबूतरा गरम होने लगा और वह गर्मी यहां तक बढ़ी कि लाचार उन सभों को चबूतरा छोड़ देना पड़ा, अर्थात् सब कोई चबूतरे के नीचे उतर आए और बाग में टहलने लगे। इस समय दिन घंटे भर से कुछ कम बाकी था।
इस खयाल से कि देखें इसकी दीवार किस ढंग की बनी हुई है, सब कोई घूमते हुए पूरब तरफ वाली दीवार के पास जा पहुंचे ओैर गौर से देखने लगे मगर कोई अनूठी बात दिखाई न दी। इसके बाद उत्तर तरफ वाली और फिर पश्चिम तरफ वाली दीवार को देखते हुए सब कोई दक्खिन तरफ गए और उधर की दीवार को आश्चर्य के साथ देखने लगे क्योंकि इसमें कुछ विचित्रता जरूर थी।
यह दीवार शीशे की मालूम होती थी और इसमें महाभारत की तस्वीरें बनी हुई थीं। ये तस्वीरें उसी ढंग की थीं जैसा कि उस तिलिस्मी बंगले में चलती-फिरती तस्वीरें इन लोगों ने देखी थीं। ये लोग तस्वीरों को बड़ी देर तक देखते रहे और सभों को विश्वास हो गया कि जिस तरह उस बंगले वाली तस्वीरों को चलते-फिरते और काम करते हम लोग देख चुके हैं उसी तरह इन तस्वीरों को भी देखेंगे क्योंकि दीवार पर हाथ फेरने से साफ मालूम होता था कि तस्वीरें शीशे के अंदर हैं।
इन तस्वीरों को देखने से महाभारत की लड़ाई का जमाना आंखों के सामने फिर जाता था, कौरवों ओैर पाण्डवों की फौज, बड़े-बड़े सेनापति तथा रथ, हाथी, घोड़े इत्यादि जो कुछ बने थे सभी अच्छे और दिल पर असर पैदा करने वाले थे। 'इस लड़ाई की नकल अपनी आंखों से देखेंगे' इस विचार से सब कोई प्रसन्न थे। बड़ी दिलचस्पी के साथ उन तस्वीरों को देख रहे थे, यहां तक कि सूर्य अस्त हो गया और धीरे-धीरे अंधकार ने चारों तरफ अपना दखल जमा लिया। उस समय यकायक दीवार चमकने लगी और तस्वीरों में हरकत पैदा हुई जिससे सभों ने समझा कि नकली लड़ाई शुरू हुआ चाहती है मगर कुछ ही देर बाद लोगों का यह विश्वास ताज्जुब के साथ बदल गया जब यह देखा कि उसमें की तस्वीरें एक-एक करके गायब हो रही हैं। यहां तक कि घड़ी भर के अंदर ही सब तस्वीरें गायब हो गईं और दीवार साफ दिखाई देने लगी। इसके बाद दीवार की चमक भी बंद हो गई ओैर फिर अंधकार दिखाई देने लगा।
थोड़ी देर बाद उस चबूतरे की तरफ रोशनी मालूम हुई। यह देखकर सब कोई उसी तरफ रवाना हुए और जब उसके पास पहुंचे तो देखा कि उस चबूतरे की छत में जड़े हुए शीशों के दस बारह टुकड़े इस तेजी के साथ चमक रहे हैं कि जिससे केवल चबूतरा ही नहीं बल्कि तमाम बाग उजाला हो रहा है। इसके अतिरिक्त सैकड़ों मूरतें भी उस चबूतरे पर इधर-उधर चलती-फिरती दिखाई दीं। गौर करने से मालूम हुआ कि ये मूरतें (या तस्वीरें) बेशक वे ही हैं जिन्हें उस दीवार के अंदर देख चुके हैं। ताज्जुब नहीं कि वह दीवार इन सभों का खजाना हो और वही यहां इस चबूतरे पर आकर तमाशा दिखाती हों।
इस समय जितनी मूरतें उस चबूतरे पर थीं सब अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु की लड़ाई से संबंध रखती थीं। जब उन मूरतों ने अपना काम शुरू किया तो ठीक अभिमन्यु की लड़ाई का तमाशा आंखों के सामने दिखाई देने लगा। जिस तरह कौरवों के रचे हुए व्यूह के अंदर फंसकर कुमार अभिमन्यु ने वीरता दिखाई थी और अंत में अधर्म के साथ जिस तरह वह मारा गया था उसी को आज नाटक स्वरूप में देखकर सब कोई बड़े प्रसन्न हुए और सभों के दिलों पर बहुत देर तक इसका असर रहा।
इस तमाशे का हाल खुलासे तौर पर हम इसलिए नहीं लिखते कि इसकी कथा बहुत प्रसिद्ध है और महाभारत में विस्तार के साथ लिखी है।
यह तमाशा थोड़ी ही देर में खत्म नहीं हुआ बल्कि देखते-देखते तमाम रात बीत गई। सबेरा होने के कुछ पहले अंधकार हो गया और उसी अंधकार में सब मूरतें गायब हो गईं। उजाला होने और आंखें ठहरने पर जब सभों ने देखा तो उस चबूतरे पर सिवाय इंद्रदेव के और कुछ भी दिखाई न दिया।
इंद्रदेव को देखकर सब कोई प्रसन्न हुए और साहब-सलामत के बाद इस तरह बातचीत होने लगी -
इंद्रदेव - (चबूतरे से नीचे उतरकर और महाराज के पास आकर) मैं उम्मीद करता हूं कि इस तमाशे को देखकर महाराज प्रसन्न हुए होंगे।
महाराज - बेशक! क्या इसके सिवाय और भी कोई तमाशा यहां दिखाई दे सकता है?
इंद्रदेव - जी हां यहां पूरा महाभारत दिखाई दे सकता है अर्थात् महाभारत ग्रंथ में जो कुछ लिखा है वह सब इसी ढंग पर और इसी चबूतरे पर आप देख सकते हैं मगर दो-चार दिन में नहीं बल्कि महीनों में। इसके साथ-साथ बनाने वाले ने इसकी भी तरकीब रखी है कि चाहे शुरू ही से तमाशा दिखाया जाय या बीच ही से कोई टुकड़ा दिखा दिया जाय अर्थात् महाभारत के अंतर्गत जो कुछ चाहें देख सकते हैं।
महाराज - इच्छा तो बहुत कुछ देखने की थी मगर इस समय हम लोग यहां ज्यादे रुक नहीं सकते अस्तु फिर कभी जरूर देखेंगे। हां हमें इस तमाशे के विषय में कुछ समझाओ तो सही कि यह काम क्योंकर हो सकता है और तुमने यहां से कहां जाकर क्या किया?
इंद्रदेव ने इस तमाशे का पूरा-पूरा भेद सभों को समझाया और कहा कि ऐसे कई तमाशे इस तिलिस्म में भरे पड़े हैं, अगर आप चाहें तो इस काम में वर्षों बीत सकते हैं, इसके अतिरिक्त यहां की दौलत का भी यही हाल है कि वर्षों तक ढोते रहिए फिर भी कमी न हो, सोने-चांदी का तो कहना ही क्या है, जवाहिरात भी आप जितना चाहें ले सकते हैं, सच तो यों है कि जितनी दौलत यहां है उसके रहने का ठिकाना भी यहीं हो सकता है। इस बगीचे के आस ही पास और भी चार बाग हैं, शायद उन सभों में घूमना और वहां के तमाशों को देखना इस समय आप पसंद न करें...।
महाराज - बेशक इस समय हम इन सब तमाशों में समय बिताना पसंद नहीं करते। सबसे पहले शादी-ब्याह के काम से छुट्टी पाने की इच्छा लगी हुई है मगर इसके बाद पुनः एक दफे इस तिलिस्म में आकर यहां की सैर जरूर करेंगे।
कुछ देर तक इसी किस्म की बातें होती रहीं, इसके बाद इंद्रदेव सभों को पुनः उसी बाग में ले आये जिसमें उनसे मुलाकात हुई थी या जहां से इंद्रदेव के स्थान पर जाने का रास्ता था।