इतना किस्सा कहकर दलीपशाह ने कुछ दम लिया और फिर इस तरह कहना शुरू किया -
गिरिजाकुमार ने अपना काम करके दारोगा का पीछा छोड़ नहीं दिया बल्कि उसे यह जानने का शौक पैदा हुआ कि देखें अब दारोगा साहब क्या करते हैं, जमानिया की तरफ विदा होते हैं या पुनः मनोरमा के घर जाते हें, या अगर मनोरमा के घर जाते हैं तो देखना चाहिए कि किस ढंग की बातें होती हैं और कैसी रंगत निकलती है।
यद्यपि दारोगा का चित्त दुविधा में पड़ा हुआ था परंतु उसे इस बात का कुछ-कुछ विश्वास जरूर हो गया था कि मेरे साथ ऐसा खोटा बर्ताव मनोरमा ही ने किया है, दूसरे किसी को क्या मालूम कि मुझसे-उससे किस समय क्या बातें हुईं। मगर साथ ही इसके वह इस बात को भी जरूर सोचता था कि मनोरमा ने ऐसा क्यों किया मैं तो कभी उसकी बात से किसी तरह इनकार नहीं करता था। जो कुछ उसने कहा उस बात की इजाजत तुरंत दे दी, अगर वह चीठी लिख देने के लिए कहती तो चीठी भी लिख देता, फिर उसने ऐसा क्यों किया ...इत्यादि।
खैर जो कुछ हो दारोगा साहब अपने हाथ से रथ जोतकर सवार हुए और मनोरमा के पास न जाकर सीधे जमानिया की तरफ रवाना हो गये। यह देखकर गिरिजाकुमार ने उस समय उनका पीछा छोड़ दिया और मेरे पास चला आया। जो कुछ मामला हुआ था खुलासा बयान करने के बाद दारोगा साहब की लिखी हुई चीठी दी और फिर मुझसे बिदा होकर जमानिया की तरफ चला गया।
मुझे यह जानकर हौल-सा पैदा हो गया कि बेचारे गोपालसिंह की जान मुफ्त में जाया चाहती है। मैं सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए जिससे गोपालसिंह की जान बचे। एक दिन और एक रात तो इसी सोच में पड़ा रह गया और अंत में यह निश्चय किया कि इंद्रदेव से मिलकर यह सब हाल कहना चाहिए। दूसरा दिन मुझे घर का इंतजाम करने में लग गया क्योंकि दारोगा की दुश्मनी के खयाल से मुझे घर की हिफाजत का पूरा-पूरा इंतजाम करके ही तब बाहर जाना जरूरी था, अस्तु मैंने अपनी स्त्री और बच्चे को गुप्त रीति से अपने ससुराल अर्थात् स्त्री के मां-बाप के घर पहुंचा दिया और उन लोगों को जो कुछ समझाना था सो भी समझा दिया। इसके बाद घर का इंतजाम करके इंद्रदेव की तरफ रवाना हुआ।
जब इंद्रदेव के मकान पर पहुंचा तो देखा कि वे सफर की तैयारी कर रहे हैं। पूछने पर जवाब मिला कि गोपालसिंह बीमार हो गये हैं, उन्हें देखने के लिए जाते हैं। सुनने के साथ ही मेरा दिल धड़क उठा और मेरे मुंह से ये शब्द निकल पड़े - 'हाय अफसोस! कम्बख्त दुश्मन लोग अपना काम कर गए!!'
मेरी बात सुनकर इंद्रदेव चौंक पड़े और उन्होंने पूछा, ''आपने यह क्या कहा?' दो-चार खिदमतगार वहां मौजूद थे उन्हें बिदा करके मैंने गिरिजाकुमार का सब हाल इंद्रदेव से बयान किया और दारोगा साहब की लिखी हुई वह चीठी उनके हाथ पर रख दी। उसे देखकर और सब हाल सुनकर इंद्रदेव बेचैन हो गए। आधे घंटे तक तो ऐसा मालूम होता था कि उन्हें तनोबदन की सुध नहीं है। इसके बाद उन्होंने अपने को सम्हाला और मुझसे कहा - 'बेशक दुश्मन लोग अपना काम कर गए, मगर तुमने भी तो बहुत बड़ी भूल की थी कि दो दिन की देर कर दी और आज मेरे पास खबर करने के लिए आए! अभी दो ही घड़ी बीती हैं कि मुझे उनके बीमार होने की खबर मिली है, ईश्वर ही कुशल करें!'
इसके जवाब में चुप रह जाने के सिवाय मैं कुछ भी न बोल सका और अपनी भूल स्वीकार कर ली। कुछ और बातचीत होने के बाद इंद्रदेव ने मुझसे कहा, 'खैर जो कुछ होना था हो गया, अब तुम भी मेरे साथ जमानिया चलो, वहां पहुंचने तक अगर ईश्वर ने कुशल रखी तो जिस तरह बन पड़ेगा उनकी जान बचावेंगे!!'
अस्तु हम दोनों आदमी तेज घोड़ों पर सवार होकर जमानिया की तरफ रवाना हो गये और साथियों को पीछे से आने की ताकीद कर गये।
जब हम लोग जमानिया के करीब पहुंचे और जमानिया सिर्फ दो कोस की दूरी पर रह गया तो सामने से कई देहाती आदमी रोते और चिल्लाते हुए आते दिखाई पड़े। हम लोगों ने घबराकर रोने का सबब पूछा तो उन्होंने हिचकियां लेकर कहा कि हमारे राजा गोपालसिंह हम लोगों को छोड़कर बैकुंठ चले गये।
सुनने के साथ हम लोगों का कलेजा धक हो गया। आगे बढ़ने की हिम्मत न पड़ी और सड़क के किनारे एक घने पेड़ के नीचे जाकर घोड़ों पर से उतर पड़े। दोनों घोड़ों को पेड़ के साथ बांध दिया और जीनपोश बिछाकर बैठ गये, आंखों से आंसू की धारा बहने लगी। घंटे भर तक हम दोनों में किसी तरह की बातचीत न हुई क्योंकि चित्त बड़ा ही दुःखी हो गया था। उस समय दिन अनुमान तीन घंटे के बाकी था, हम दोनों आदमी पेड़ के नीचे बैठे आंसू बहा रहे थे कि यकायक जमानिया से लौटता हुआ गिरिजाकुमार भी उसी जगह आ पहुंचा। उस समय उसकी सूरत बदली हुई थी इसलिए हम लोगों ने तो नहीं पहचाना परंतु वह हम लोगों को देखकर स्वयं पास चला आया और अपना गुप्त परिचय देकर बोला, 'मैं गिरिजाकुमार हूं।'
इंद्रदेव - (आंसू पोंछकर) अच्छे मौके पर तुम आ पहुंचे! यह बताओ कि क्या वास्तव में राजा गोपालसिंह मर गये?
गिरिजा - जी हां, उनकी चिता मेरे सामने लगाई गई और देखते ही देखते उनकी लाश पंचतत्व में मिल गई, परंतु अभी तक मेरे दिल को विश्वास नहीं होता कि राजा साहब मर गये!
इंद्रदेव - (चौंककर) सो क्या यह कैसी बात?
गिरिजा - जी हां, हर तरह का रंग-ढंग देखकर मेरा दिल कबूल नहीं करता कि वे मर गये।
मैं - क्या तुम्हारी तरह वहां और भी किसी को इस बात का शक है।
गिरिजा - नहीं, ऐसा तो नहीं मालूम होता, बल्कि मैं तो समझता हूं कि खास दारोगा साहब को भी उनके मरने का विश्वास है मगर क्या किया जाय मुझे विश्वास नहीं होता, दिल बार-बार यही कहता है कि राजा साहब मरे नहीं।
इंद्रदेव - आखिर तुम क्या सोचते हो और इस बात का तुम्हारे पास क्या सबूत है तुमने कौन-सी ऐसी बात देखी जिससे तुम्हारे दिल को अभी तक उनके मरने का विश्वास नहीं होता?
गिरिजा - और बातों के अतिरिक्त दो बातें तो बहुत ही ज्यादे शक पैदा करती हैं। एक तो यह है कि कल दो घंटे रात रहते मैंने हरनामसिंह और बिहारीसिंह को एक कंगले की लाश उठाते हुए चोर दरवाजे की राह से महल के अंदर जाते हुए देखा, फिर बहुत टोह लेने पर भी उस लाश का कुछ पता न लगा और न वह लाश लौटाकर महल के बाहर ही निकाली गई, तो क्या वह महल ही में हजम हो गई उनके बाद केवल राजा साहब की लाश बाहर निकली।
इंद्रदेव - जरूर यह शक करने की जगह है।
गिरिजा - इसके अतिरिक्त राजा गोपालसिंह की लाश को बाहर निकालने और जलाने में हद दर्जे की फुर्ती और जल्दबाजी की गई, यहां तक कि रियासत के उमरा लोगों के भी इकट्ठा होने का इंतजार नहीं किया गया। एक साधारण आदमी के लिए भी इतनी जल्दी नहीं की जाती, वे तो राजा ही ठहरे! हां एक बात और भी सोचने के लायक है। चिता पर क्रिया नियम के विरुद्ध लाश का मुंह खोले बिना ही कर दी गई और इस बारे में बिहारीसिंह और हरनामसिंह तथा लौंडियों ने यह बहाना किया कि राजा साहब की सूरत देख मायारानी बहुत बेहाल हो जायंगी इसलिए मुर्दे का मुंह खोलने की कोई जरूरत नहीं। और लोगों ने इन बातों पर खयाल किया हो चाहे न किया हो मगर मेरे दिल पर तो इन बातों ने बहुत बड़ा असर किया और यही सबब है कि मुझे राजा साहब के मरने का विश्वास नहीं होता।
इंद्रदेव - (कुछ सोचकर) शक तो तुम्हारा बहुत ठीक है, अच्छा यह बताओ कि तुम इस समय कहां जा रहे थे?
गिरिजा - (मेरी तरफ इशारा करके) गुरुजी के पास यही सब हाल कहने के लिए जा रहा था।
मैं - इस समय मनोरमा कहां है सो बताओ?
गिरिजा - जमानिया में मायारानी के पास है।
मैं - तुम्हारे हाथ से छूटने के बाद दारोगा और मनोरमा में कैसी निपटी इसका कुछ हाल मालूम हुआ?
गिरिजा - जी हां, मालूम हुआ, उस बारे में बहुत बड़ी दिल्लगी हुई जो मैं निश्चिंती के साथ बयान करूंगा।
इंद्रदेव - अच्छा यह तो बताओ कि गोपालसिंह के बारे में तुम्हारी क्या राय है और अब हम लोगों को क्या करना चाहिए?
गिरिजा - इस बारे में मैं एक अदना और नादान आदमी आपको क्या राय दे सकता हूं। हां मुझे जो कुछ आज्ञा हो सो करने के लिए जरूर तैयार हूं।
इतनी बातें हो ही रही थीं कि सामने जमानिया की तरफ से दारोगा और जैपाल घोड़ों पर सवार आते हुए दिखाई पड़े जिन्हें देखते ही गिरिजाकुमार ने कहा, 'देखिये, ये दोनों शैतान कहीं जा रहे हैं, इसमें भी कोई भेद जरूर है, यदि आज्ञा हो तो मैं इनके पीछे जाऊं।'
दारोगा और जैपाल को देखकर हम दोनों पेड़ की तरफ घूम गये जिससे वे पहचान न सकें। जब वे आगे निकल गए तब मैंने अपना घोड़ा गिरिजाकुमार को देकर कहा, 'तुम जल्द सवार हो के इन दोनों का पीछा करो।' और गिरिजाकुमार ने भी ऐसा ही किया।
(तेईसवां भाग समाप्त)