घोड़े पर सवार तारासिंह को साथ लिए हुए कुंअर आनंदसिंह जंगल ही जंगल घूमते और साधारण ढंग पर शिकार खेलते हुए बहुत दूर निकल गये और जब दिन बहुत कम बाकी रह गया तब धीरे-धीरे घर की तरफ लौटे।
हम ऊपर के किसी बयान में लिख आये हैं कि अटारी पर एक सजे हुए बंगले में बैठी हुई किशोरी, कामिनी और कमलिनी वगैरह ने जंगल से निकलकर घर की तरफ आते हुए कुंअर आनंदसिंह और तारासिंह को देखा तथा यह भी देखा कि दस-बारह नकाबपोशों ने जंगल में से निकल इन दोनों पर तीर चलाये और ये दोनों उनका पीछा करते हुए पुनः जंगल के अंदर घुस गये - इत्यादि।
यह वही मौका है जिसका हम जिक्र कर रहे हैं। उस समय कमला ने एक लौंडी की जुबानी इंद्रजीतसिंह को इस बात की खबर दिलवा दी थी, और खबर पाते ही कुंअर इंद्रजीतसिंह, भैरोसिंह तथा बहुत से आदमी आनंदसिंह की मदद के लिए रवाना हो गये थे।
असल बात यह थी कि भूतनाथ की चालाकी से शर्मिन्दगी उठाकर भी नानक ने सब्र नहीं किया बल्कि पुनः इन लोगों का पीछा किया और अबकी दफे इस ढंग से जाहिर हुआ था कि मौका मिले तो आनंदसिंह को तीर का निशाना बनावे और इसी तरह बारी-बारी से अपने दुश्मनों की जान लेकर कलेजा ठंडा करे। मगर उसका यह इरादा भी काम न आया, आनंदसिंह और तारासिंह की चालाकी और उनके घोड़ों की चपलता के कारण उसका निशाना कारगर न हुआ और उन्होंने तेजी के साथ उनके सिर पर पहुंचकर सभों को हर तरह से मजबूर कर दिया। तब तक मदद के लिए गये हुए कुंअर इंद्रजीतसिंह भी जा पहुंचे और आठ साथियों के सहित बेईमान नानक को गिरफ्तार कर लिया। यद्यपि उसी समय यह भी मालूम हो गया कि इसके साथियों में से कई आदमी निकल गए मगर इस बात की कुछ परवाह न की गई और जो कुछ गिरफ्तार हो गये थे उन्हीं को लेकर सब कोई घर की तरफ रवाना हो गए।
कम्बख्त नानक पर हर तरह की रियायत की गई, बहुत कड़ी सजा पाने के योग्य होने पर भी उसे किसी तरह की सजा न दी गई, और इस खयाल से बिल्कुल साफ छोड़ दिया गया कि शायद फिर भी सुधर जाय मगर नहीं -
भूयोपि सिकता पयसा घृतेन
न निम्ब वृक्षो मधुरत्वमेति
अर्थात् नीम न मीठी होय सींचे गुड़ घीउ से।
आखिर नानक को वह दुःख भोगना ही पड़ा जो उसकी किस्मत में बदा हुआ था।
जिस समय नानक गिरफ्तार करके लाया गया और लोगों ने उसका हाल सुना, उस समय सभों को उसकी नालायकी पर बहुत ही रंज हुआ। महाराज की आज्ञानुसार वह कैदखाने में पहुंचाया गया और सभों को निश्चय हो गया कि अब इसे किसी तरह छुटकारा नहीं मिल सकता।
दूसरे दिन दरबारे-आम का बंदोबस्त किया गया और कैदियों का मुकदमा सुनने के लिए बड़े शौक से लोग इकट्ठा होने लगे। हथकड़ियों और बेड़ियों से जकड़े हुए कैदी लोग हाजिर किए गए और आपस वालों तथा ऐयारों को साथ लिए हुए महाराज भी दरबार में आकर एक ऊंची गद्दी पर बैठ गये। आज के दरबार में भीड़ मामूली से बहुत ज्यादे भी और कैदियों का मुकदमा सुनने के लिए सभी उतावले हो रहे थे। भरतसिंह, दलीपशाह, अर्जुनसिंह तथा उनके और भी दो साथी जो तिलिस्म के बाहर होने के बाद अपने घर चले गये थे और अब लौट आये हैं अपने-अपने चेहरों पर नकाब डालकर दरबार में राजा गोपालसिंह के पास बैठ गये और महाराज के हुक्म का इंतजार करने लगे।
महाराज का इशारा पाकर भरतसिंह खड़े हो गए और उन्होंने दारोगा तथा जैपाल की तरफ देखकर कहा -
''दारोगा साहब, जरा मेरी तरफ देखिये और पहिचानिये कि मैं कौन हूं। जैपाल, तू भी इधर निगाह कर!''
इतना कहकर भरतसिंह ने अपने चेहरे पर से नकाब उलट दी और एक दफे चारों तरफ देखकर सभों का ध्यान अपनी तरफ खैंच लिया। सूरत देखते ही दारोगा और जैपाल थर-थर कांपने लगे। दारोगा ने लड़खड़ाई आवाज से कहा, ''कौन ओफ भरतसिंह! नहीं-नहीं, भरतसिंह कहां उसे मरे बहुत दिन हो गये, यह तो कोई ऐयार है!!''
भरत - नहीं-नहीं, दारोगा साहब, मैं ऐयार नहीं हूं, मैं वही भरतसिंह हूं जिसे आपने हद से ज्यादा सताया था, मैं वही भरतसिंह हूं जिसके मुंह पर आपने मिर्च का तोबड़ा चढ़ाया था और मैं वही भरतसिंह हूं जिसे आपने अंधेरे कुएं में लटका दिया था। सुनिए मैं अपना किस्सा बयान करता हूं और यह भी कहता हूं कि आखिर में मेरी जान क्योंकर बची। जैपालसिंह आप भी सुनिए और हुंकारी भरते चलिए।
इतना कहकर भरतसिंह ने अपना किस्सा आदि से कहना आरंभ किया जैसा कि हम ऊपर बयान कर आये हैं और इसके बाद यों कहने लगे -
भरत - दारोगा की बातों ने मुझे घबड़ा दिया और मैं उलटे पैर मोहनजी वैद्य को बुलाने के लिए रवाना हुआ। मुझे इस बात का रत्ती भर भी शक न था कि मोहनजी और दारोगा साहब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं अथवा इन दोनों में हमारे लिए कुछ बातें तै पा चुकी हैं। मैं बेधड़क उनके मकान पर गया और इत्तिला कराने के बाद उनके एकांत वाले कमरे में जा पहुंचा जहां उन्होंने मुझे बुला भेजा था। उस समय वे अकेले बैठे माला जप रहे थे। नौकर मुझे वहां तक पहुंचाकर विदा हो गया और मैंने उनके पास बैठकर राजा साहब का हाल बयान करके खास बाग में चलने के लिए कहा। जवाब में वैद्यजी यह कहकर कि 'मैं दवाओं का बंदोबस्त करके अभी आपके साथ चलता हूं' खड़े हुए और अलमारी में से कई तरह की शीशियां निकाल - निकाल जमीन पर रखने लगे। उसी बीच में उन्होंने एक छोटी शीशी निकालकर मेरे हाथ में दे दी और कहा, 'देखिए, यह मैंने एक नए ढंग की ताकत की दवा तैयार की है, खाना दूर रहा इसके सूंघने ही से तुरंत मालूम होता है कि बदन में एक तरह की ताकत आ रही है! लीजिए जरा सूंघ के अंदाज तो कीजिए।'
मैं वैद्यजी के फेर में पड़ गया और शीशी का मुंह खोलकर सूंघने लगा। इतना तो मालूम हुआ कि इसमें कोई खुशबूदार चीज है मगर फिर तनोबदन की सुध न रही। जब मैं होश में आया तो अपने को हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर एक अंधेरी कोठरी में कैद पाया। नहीं कह सकता कि वह दिन का समय था या रात का, कोठरी के एक कोने में चिराग जल रहा था और दारोगा तथा जैपाल हाथ में नंगी तलवार लिए सामने बैठे हुए थे।
मैं - (दारोगा से) अब मालूम हुआ कि आपने इसी काम के लिए मुझे वैद्यजी के पास भेजा था।
दारोगा - बेशक इसीलिए, क्योंकि तुम मेरी जड़ काटने के लिए तैयार हो चुके थे।
मैं - तो फिर मुझे कैद कर रखने से क्या फायदा? मारकर बखेड़ा निपटाइए और बेखटके आनंद कीजिए।
दारोगा - हां, अगर तुम मेरी बात न मानोगे तो बेशक मुझे ऐसा ही करना पड़ेगा।
मैं - मानने की कौन-सी बात है मैंने तो अभी तक कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे आपको किसी तरह का नुकसान पहुंचे।
दारोगा - ये सब बातें तो रहने दो क्योंकि तुम और हरदीन मिलकर जो कुछ कर चुके थे और जो किया चाहते थे उसे मैं खूब जानता हूं मगर बात यह है कि अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हें इस कैद से छुट्टी दे सकता हूं, नहीं तो मौत तुम्हारे लिए रखी हुई है।
मैं - खैर बताइये तो सही कि वह कौन-सा काम है जिसके करने से छुट्टी मिल सकती है।
दारोगा - यही कि तुम एक चीठी इन रघुबरसिंह अर्थात् जैपाल के नाम की लिख दो जिसमें यह बात हो कि 'लक्ष्मीदेवी के बदले में मुंदर को मायारानी बना देने में जो कुछ मेहनत की है वह हम-तुम दोनों ने मिलकर की है अतएव उचित है कि इस काम में जो कुछ तुमने फायदा उठाया है उसमें से आधा मुझे बांट दो नहीं तो तुम्हारे लिए अच्छा न होगा।'
मैं - ठीक है, आपका मतलब मैं समझ गया, खैर आज तो नहीं मगर कल जैसा आप कहते हैं वैसा ही कर दूंगा।
दारोगा - आखिर एक दिन की देर करने में तुमने फायदा ही क्या सोच लिया है!
मैं - सो भी कल ही बताऊंगा।
दारोगा - अच्छा क्या हर्ज है कल ही सही।
इतना कहकर दारोगा चला गया और मैं भूखा-प्यासा उसी कोठरी में पड़ा हुआ तरह-तरह की बातें सोचने लगा क्योंकि उस दिन दारोगा ने मेरे खाने-पीने के लिए कुछ भी प्रबंध न किया। मुझे निश्चय हो गया कि इस ढंग की चीठी लिखाने के बाद दारोगा मुझे जान से मार डालेगा और मेरे मरने के बाद यही चीठी मेरी बदनामी का सबब बनेगी, मेरे दोस्त गोपालसिंह मुझको बेईमान समझेंगे और तमाम दुनिया मुझे कमीना खयाल करेगी, अस्तु मैंने दिल में ठान ली कि चाहे जान जाय या रहे मगर इस तरह की चीठी कदापि न लिखूंगा। आखिर मरना तो जरूर ही है फिर कलंक का टीका जान-बूझकर अपने माथे क्यों लगाऊं?
दूसरे दिन रघुबरसिंह को साथ लिए हुए दारोगा पुनः मेरे पास आया।
भरतसिंह ने अपना हाल यहां तक बयान किया कि राजा गोपालसिंह ने बीच ही में टोका और पूछा, ''क्या रघुबरसिंह भी इसी जैपाल का नाम है?'
भरत - जी हां, इसका नाम रघुबरसिंह था और कुछ दिन के लिए इसने अपना नाम 'भूतनाथ' रख लिया था।
गोपाल - ठीक है, मुझे इस बारे में धोखा हुआ बल्कि मेरे खजांची ही ने मुझे धोखा दिया, खैर तब क्या हुआ?
भरत - हां तो दूसरे दिन जैपाल को साथ लिए हुए दारोगा पुनः मेरे पास आया और बोला, 'कहो चीठी लिख देने के लिए तैयार हो या नहीं इसके जवाब में मैंने कहा कि 'मर जाना मंजूर है मगर झूठे कलंक का टीका अपने माथे पर लगाना मंजूर नहीं।'
दारोगा ने मुझे कई तरह से समझाना-बुझाना और धोखे में डालना चाहा मगर मैंने उसकी एक न सुनी। आखिर दोनों ने मिलकर मुझे मारना शुरू किया, यहां तक मारा कि मैं बेहोश हो गया। जब होश में आया तो फिर उसी तरह अपने को कैद पाया। भूख और प्यास के मारे मेरा बुरा हाल हो गया था और मार के सबब से मेरा तमाम बदन चूर-चूर हो रहा था। तीसरे दिन दोनों शैतान पुनः मेरे पास आये और उस दिन भी मैंने दारोगा की बात न मानी तो उसने घोड़ों के दाना खाने वाले तोबड़े में चूर किया हुआ मिरचा रखकर मेरे मुंह पर चढ़ा दिया। हाय-हाय! उस तकलीफ को मैं कभी भी नहीं भूल सकता!!
यहां तक कहकर भरतसिंह चुप हो गये और दारोगा तथा जैपाल की तरफ देखने लगे। वे दोनों सिर नीचा किये हुए जमीन की तरफ देख रहे थे और डर के मारे दोनों का बदन कांप रहा था। भरतसिंह ने पुकारकर कहा, ''कहिए दारोगा साहब, जो कुछ मैं कह रहा हूं वह सच है या झूठ' मगर दारोगा ने इसका कुछ भी जवाब न दिया। मगर वहां उस समय दरबार में जितने आदमी बैठे थे क्रोध के मारे सभों का बुरा हाल था और सब कोई दारोगा की तरफ जलती हुई निगाह से देख रहे थे। भरतसिंह ने फिर इस तरह कहना शुरू किया -
भरत - दारोगा के संबंध में मेरा किस्सा वैसा दिलचस्प नहीं है जैसा कि दलीपशाह और अर्जुनसिंह का आप लोग सुनेंगे, क्योंकि उनके साथ बड़ी-बड़ी विचित्र घटनाएं हो चुकी हैं, बल्कि यों कहना चाहिए कि मेरा तमाम किस्सा उनकी एक दिन की घटना का मुकाबला भी नहीं कर सकता, परंतु साथ ही इसके यह बात भी जरूर है कि मैंने न तो कभी किसी के साथ किसी तरह की बुराई की और न किसी से विशेष मेलजोल या हंसी-दिल्लगी ही रखता था, फिर भी उन दिनों जमानिया की वह दशा थी कि सादे ढंग पर जिंदगी बिताने वाला मैं भी सुख की नींद न सो सका और राजा साहब की दोस्ती की बदोलत मुझे हर तरह का दुःख भोगना पड़ा। इस हरामखोर दारोगा ने ऐसे-ऐसे कुकर्म किए हैं कि जिनका पूरा-पूरा बयान हो ही नहीं सकता और न यही मेरी समझ में आता है कि दुनिया में कौन-सी ऐसी सजा है जो इसके योग्य समझी जाय। अस्तु अब मैं संक्षेप में अपना हाल समाप्त करता हूं।
अपने मन के माफिक चीठी लिखाने की नीयत से आठ-दस दिन तक कम्बख्त दारोगा ने मुझे बेहिसाब तकलीफें दीं। मिर्च का तोबड़ा मेरे मुंह पर चढ़ाया, जहरीली राई का लेप मेरे बदन पर किया, कुएं में लटकाया, गंदी कोठरी में बंद किया, जो-जो सूझा सब-कुछ किया और इतने दिनों तक बराबर ही मुझे भूखा भी रखा गया मगर न मालूम क्या सबब है कि मेरी जान न निकली। मैं बराबर ईश्वर से प्रार्थना करता था कि किसी तरह मुझे मौत दे जिससे इस दुःख से छुट्टी मिले। आखिरी दिन मैं इतना कमजोर हो गया था कि मुझमें बात करने की ताकत न थी।
उस दिन आधी रात के समय में उसी कोठरी में पड़ा-पड़ा मौत का इंतजार कर रहा था कि यकायक कोठरी का दरवाजा खुला और एक नकाबपोश दाहिने हाथ में नंगी तलवार और बाएं हाथ में एक छोटी गठरी लिए हुए कोठरी के अंदर आता हुआ दिखाई पड़ा। हाथ में वह जो तलवार लिए था उसके अतिरिक्त उसके कमर में एक तलवार और भी थी। कोठरी के अंदर आते ही उसने भीतर से दरवाजा बंद कर दिया और मेरे पास चला आया, हाथ की गठरी और तलवार जमीन पर रख मुझसे चिमट गया और रोने लगा। उसकी ऐसी मुहब्बत देख मैं चौंक पड़ा और मुझे तुरंत मालूम हो गया कि यह मेरा पुराना खैरख्वाह हरदीन है। उसके चेहरे से नकाब हटाकर मैंने उसकी सूरत देखी और तब रोने में उसका साथ दिया।
थोड़ी ही देर बाद हरदीन मुझसे अलग हुआ और बोला, 'मैं किसी न किसी तरह यहां पहुंच गया मगर यहां से निकल भागना जरा कठिन है, तथापि आप घबराएं नहीं, मैं एक दफे तो दुश्मन को सताए बिना नहीं रहता, अब आप शीघ्र उठें और जो कुछ मैं खाने-पीने के लिए लाया हूं उसे भोजन करके चैतन्य हो जायं।'
जो गठरी हरदीन लाया था उसमें खाने-पीने का सामान था। उसने मुझे भोजन कराया, पानी पिलाया और इसके बाद मेरे हाथ में एक तलवार देकर बोला, 'बस अब आप उठिए और मेरे पीछे-पीछे चले आइए, इतना समय नहीं है कि मैं आपसे विशेष बातें करूं, इसके अतिरिक्त जिस जगह पर आप कैद हैं यह तिलिस्म का एक हिस्सा है, यहां से निकलने के लिए भी बहुत उद्योग करना होगा।'
भोजन करने से कुछ ताकत तो मुझमें हो ही गई थी मगर कैद से छुटकारा मिलने की उम्मीद ने उससे भी ज्यादे ताकत पैदा कर दी। मैं उठ खड़ा हुआ और हरदीन के पीछे-पीछे रवाना हुआ। कोठरी का दरवाजा खोलने के बाद जब मैं बाहर निकला तब मुझे मालूम हुआ कि मैं खास बाग के तीसरे दर्जे में हूं जिसमें कई दफे राजा गोपालसिंह के साथ जा चुका था, मगर इस बात से मुझको बहुत ही ताज्जुब हुआ और मैं सोचने लगा कि देखो राजा साहब के खास बाग ही में दारोगा लोगों पर इतना जुल्म करता है और राजा साहब को खबर तक नहीं होती। क्या यहां कई ऐसे स्थान हैं जिनका हाल दारोगा जानता है और राजा साहब नहीं जानते!
खैर में कोठरी के बाहर निकलकर बरादमे में पहुंचा जहां से बायें और दाहिने सिर्फ दो ही तरफ जाने का रास्ता था। दाहिने तरफ इशारा करके हरदीन ने मुझसे कहा, 'इसी तरफ से मैं आया हूं, दारोगा, जैपाल तथा बहुत-से आदमी इस तरफ बैठे हैं इसलिए इधर तो अब जा नहीं सकते, हां बार्ईं तरफ चलिए कहीं-न-कहीं तो रास्ता मिल ही जाएगा।'
रात चांदनी थी और ऊपर से खुला रहने के सबब उधर की हर एक चीज साफ दिखाई देती थी। हम दोनों आदमी बाईं तरफ रवाना हुए। लगभग पचीस कदम जाने के बाद नीचे उतरने के लिए दस-बारह सीढ़ियां मिलीं जिन्हें तै करने के बाद हम दोनों एक दालान में पहुंचे जो बहुत लंबा-चौड़ा तो न था मगर निहायत खूबसूरत और स्याह पत्थर का बना हुआ था। उस दालान में पहुंचे ही थे कि पीछे से दारोगा और जैपाल तेजी के साथ आते हुए दिखाई पड़े, मगर हरदीन ने इनकी कुछ भी परवाह न की और कहा, 'इन दोनों के लिए तो मैं अकेला ही काफी हूं।'
हरदीन मुझे अपने पीछे करने के बाद अड़कर खड़ा हो गया। उसने दारोगा को सैकड़ों गालियां दीं और मुकाबला करने के लिए ललकारा मगर उन दोनों की हिम्मत न पड़ी कि आगे बढ़ें और हरदीन का मुकाबला करें। कुछ देर तक खड़े-खड़े देखने और सोचने के बाद दारोगा ने अपने जेब में से एक छोटा-सा गोला निकाला और हम दोनों की तरफ फेंका। हरदीन समझ गया कि जमीन पर गिरने के साथ ही इसमें से बेहोशी का धुआं निकलेगा। उसने अपने हाथ से मुझे भागने का इशारा किया। गोला जमीन पर गिरकर फटा और उसमें से बहुत-सा धुआं निकला मगर हम दोनों वहां से हट गये थे इसलिए उसका कुछ असर न हुआ। उसी समय दारोगा ने हम लोगों की तरफ फेंकने के लिए दूसरा गोला निकाला।
इस दालान के बीचोंबीच में एक छोटा-सा चबूतरा लाल पत्थर का बना हुआ था मगर हम दोनों यह नहीं जानते थे कि इसमें क्या गुण है। दारोगा को दूसरा गोला निकालते देख हम दोनों उस चबूतरे पर चढ़ गए मगर उस पर से उतरकर भाग न सके क्योंकि चढ़ने के साथ ही चबूतरा हिला, तब हम दोनों को लिए हुए जमीन के अंदर धंस गया और साथ ही न मालूम किस चीज के असर से हम दोनों बेहोश हो गये। जब होश में आये तो चारों तरफ अंधकार ही अंधकार दिखाई दिया, नहीं कह सकते कि हम दोनों कितनी देर तक बेहोश रहे।
कुछ देर तक चुपचाप बैठे रहने के बाद सामने की तरफ कुछ उजाला मालूम हुआ और वह उजाला धीरे-धीरे बढ़ने लगा जिससे हमने समझा कि सामने कोई दरवाजा है और उसमें से सुबह की सफेदी दिखाई दे रही है। हम दोनों उठकर खड़े हुए और उसी उजाले की तरफ बढ़े। वास्तव में वैसा ही था जैसा हम लोगों ने सोचा था। कई कदम चलने के बाद एक दरवाजा मिला जिसे लांघकर हम दोनों उसी बुर्ज वाले बाग में जा पहुंचे जहां दोनों कुमार से मुलाकात हुई थी। इसके बाद बाहर का हाल बहुत दिनों तक कुछ भी मालूम न हुआ कि क्या हो रहा है और क्या हुआ। बहुत दिनों तक वहां से बाहर निकलने के लिए उद्योग करते रहे परंतु सब व्यर्थ हुआ ओैर वहां से छुट्टी तभी मिली जब दोनों कुमारों के दर्शन हुए1 कुछ दिनों बाद दलीपशाह से भी उसी बाग में मुलाकात हुई जिसका हाल उनका किस्सा सुनने से आप लोगों को मालूम होगा। बस इतना ही तो मेरा किस्सा है, हां जब आप लोग दलीपशाह की कहानी सुनेंगे तब बेशक कुछ आनंद मिलेगा। (एक नकाबपोश की तरफ बताकर) मेरा पुराना खैरख्वाह हरदीन यही है जो इतने दिनों तक मेरे दुःख-सुख का साथी बना रहा और अंत में मेरे साथ ही कैद से छूटा।
भरतसिंह की कथा समाप्त होने के बाद दरबार बर्खास्त किया गया और महाराज ने हुक्म दिया कि ''कल के दरबार में दलीपशाह अपना किस्सा बयान करेंगे।''
1. देखिए चंद्रकान्ता संतति, बीसवां भाग, चौथा बयान।