दलीपशाह ने फिर इस तरह अपना किस्सा कहना शुरू किया -
''गिरिजाकुमार ने अपनी बातचीत में दारोगा और बिहारीसिंह को ऐसा उल्लू बनाया कि उन दोनों को गिरिजाकुमार पर पूरा-पूरा भरोसा हो गया और वह खुशी के साथ जमानिया में रहकर बेगम का इंतजार करने लगा बल्कि दारोगा के साथ जाकर उसने खास बाग का रास्ता और मायारानी को भी देख लिया। इधर अर्जुनसिंह गिरिजाकुमार की खोज में जमानिया गए और मैं बेगम को गिरफ्तार करने के फिक्र में पड़ा।
पहले तो मैं अपने घर गया और वहां से कई आदमियों का इंतजाम करके लौटा। ठीक समय पर गंगा के किनारे उस ठिकाने पहुंच गया जहां बेगम की किश्ती किनारे लगाकर लूट लेने की बातचीत कही-बदी थी।
मैं इस घटना का हाल बहुत बढ़ाकर न कहूंगा कि बेगम की किश्ती क्योंकर आई और क्या-क्या हुआ तथा मैंने किसको किस तरह गिरफ्तार किया - संक्षेप में केवल इतना ही कहूंगा कि बेगम पर मैंने कब्जा कर लिया और जो चीजें उसके पास थीं सब ले ली गईं। उन्हीं चीजों में ये सब कागज और वह हीरे की अंगूठी भी थी जो भूतनाथ बेगम के यहां से ले आया है और जो इस समय दरबार में मौजूद है। आगे चलकर मैं इन चीजों का हाल बयान करूंगा और यह भी कहूंगा कि ये सब चीजें मेरे कब्जे में आकर फिर क्योंकर निकल गईं। इस समय मैं पुनः गिरिजाकुमार का हाल बयान करूंगा जो उसी की जुबानी मुझे मालूम हुआ था।
गिरिजाकुमार जमानिया में बैठा हुआ दारोगा के साथ बेगम का इंतजार कर रहा था। जब बेगम को लुटवाकर दोनों सिपाही जिनके साथ बेगम के भी दो आदमी थे और जिन्हें मैंने जान-बूझकर छोड़ दिया था, रोते-कलपते जमानिया पहुंचे तो सीधे दारोगा के पास चले गये। उस समय वहां सूरत बदले हुए असली बिहारीसिंह और गिरिजाकुमार भी बिहारीसिंह बना हुआ बैठा था। दारोगा के सिपाहियों और बेगम के आदमियों ने अपनी बरबादी और बेगम के लुट जाने का हाल बयान किया जिसे सुनते ही दारोगा को ताज्जुब और रंज हुआ। उसने गिरिजाकुमार की तरफ देखकर कहा, 'यह कार्रवाई किसने की होगी?'
गिरिजा - खुद बेगम ने या फिर भूतनाथ ने! (बेगम के आदमियों की तरफ देख के) क्यों जी! मैं समझता हूं कि शायद महीने-भर के लगभग हुआ होगा जब एक दिन भूतनाथ मेरे साथ बेगम के यहां गया था। उस समय तुम भी वहां थे, क्या तुमने मुझे पहचाना था?
बेगम का आदमी - जी नहीं, मैंने आपको नहीं पहचाना था।
गिरिजा - (दारोगा की तरफ देख के) आप ही के कहे मुताबिक मैं दो-तीन दफे भूतनाथ के साथ बेगम के यहां गया था, पर वास्तव में भूतनाथ अच्छा आदमी है और ये लोग भी बड़ी मुस्तैदी के साथ वहां रहते हैं। (बेगम के आदमियों की तरफ देख के) क्यों जी, है न यही बात?
बेगम का आदमी - (हाथ जोड़ के) जी हां सरकार!
बेगम के आदमियों के जुबान से गिरिजाकुमार ने बड़ी खूबी के साथ 'जी हां सरकार' कहलवा लिया। इसमें कोई शक नहीं कि भूतनाथ बेगम के यहां जाया करता था और गिरिजाकुमार को यह हाल मालूम था मगर ऐसे मौके पर उसके आदमियों की जुबान से 'हां' कहला लेना मामूली बात न थी। उन खुशामदी आदमियों ने यह सोचकर कि जब खुद बिहारीसिंह भूतनाथ के साथ अपना जाना कबूल करते हैं तो हां कहना ही अच्छा है - 'जी हां सरकार' कह दिया और गिरिजाकुमार दारोगा तथा बिहारीसिंह की निगाह में सच्चा बन बैठा। साथ ही इसके गिरिजाकुमार दारोगा से पहले ही कह चुका था कि बेगम आवेगी तो मैं बात-ही-बात में किसी तरह साबित करा दूंगा कि भूतनाथ उसके यहां आता-जाता है, वह बात भी दारोगा को खूब याद थी, अस्तु दारोगा को गिरिजाकुमार पर और भी विश्वास हो गया। उसने गिरिजाकुमार का इशारा पाकर बेगम के दोनों आदमियों को बिना कुछ कहे थोड़ी देर के लिए बिदा किया और फिर आपस में इस तरह बातचीत करने लगा -
दारोगा - कुछ समझ में नहीं आता कि क्या मामला है!
गिरिजा - अजी यह उसी कम्बख्त भूतनाथ की बदमाशी और दोनों की मिलीजुली गठन है। बेगम जान-बूझकर यहां नहीं आई। अगर वह आती तो उसके आदमियों की तरह खास उसकी जुबान से भी मैं इस बात को साबित करा देता कि उससे और भूतनाथ से ताल्लुक है और इसीलिए मैं अभी तक बिहारीसिंह बना हुआ था, मगर खैर कोई चिंता नहीं। मैं बहुत जल्द इन सब भेदों का पूरा-पूरा पता लगा लूंगा और भूतनाथ को भी गिरफ्तार कर लूंगा!
दारोगा - तो अब देर क्यों करते हो?
गिरिजा - कुछ नहीं, कल मेरे साथ चलने के लिए बिहारीसिंह तैयार हो जायं।
बिहारी - अच्छी बात है, यह बताओ कि किस सूरत-शक्ल में सफर किया जायगा।
गिरिजा - मैं एक ज्योतिषी की सूरत बनूंगा और आप...।
बिहारी - मैं वैद्य बनूंगा।
गिरिजा - बस-बस, यही ठीक है, मगर एक बात मैं अभी से कहे देता हूं कि दो घंटे के लिए मैं गुरुजी से मिलने जरूर जाऊंगा।
बिहारी - क्या हर्ज है, अगर कहोगे तो मैं भी तुम्हारे साथ चला चलूंगा या कहीं अटक जाऊंगा।
मुख्तसर यह कि दूसरे दिन दोनों ऐयार ज्योतिषी और वैद्य बने हुए जमानिया के बाहर निकले।
मजा तो यह कि गिरिजाकुमार ने चालाकी से उस समय तक किसी को अपनी असली सूरत देखने नहीं दी। जब तक वहां रहा बिहारीसिंह ही बना रहा, जब बाहर निकला तो ज्योतिषी बनकर निकला। खैर दारोगा का तो कहना ही क्या है, खुद बिहारीसिंह और हरनामसिंह व्यर्थ ही ऐयार कहलाए, असल में कोई अच्छा काम इन दोनों के हाथ से होते देखा-सुना नहीं गया।
अब हम थोड़ा-सा हाल अर्जुनसिंह का बयान करते हैं, जो गिरिजाकुमार का पता लगाने के लिए हमसे जुदा होकर जमानिया गए थे। जमानिया में रामसरन नामी एक महाजन अर्जुनसिंह का दोस्त था, अस्तु ये सूरत बदले हुए सीधे उसी के मकान पर चले गए और मौका पाकर उससे मुलाकात करने के बाद सब हाल बयान किया और उससे मदद चाही। पहले तो वह दारोगा और मायारानी के खिलाफ कार्रवाई करने के नाम से बहुत डरा मगर अर्जुनसिंह ने उसे बहुत भरोसा दिलाया और कहा कि जो कुछ हम करेंगे, वह ऐसे ढंग से करेंगे कि तुम पर किसी को किसी तरह का शक न होगा, इसके अतिरिक्त हम तुमसे और किसी तरह की मदद नहीं चाहते केवल एक गुप्त कोठरी ऐसे ढंग की चाहते हैं जिसमें अगर हम किसी को गिरफ्तार करके लावें तो दो-चार दिन के लिए कैद कर रखें और यह काम भी ऐसी खूबी के साथ किया जायगा कि कैदी को इस बात का गुमान भी न होगा कि वह कहां और किसके मकान में कैद किया गया था।
खैर, रामसरन ने किसी तरह अर्जुनसिंह की बात मंजूर कर ली और तब अर्जुनसिंह उसके मकान से बाहर निकलकर हरनामसिंह को फांसने की फिक्र करने लगे, क्योंकि इन्होंने निश्चय कर लिया था कि बिना किसी को फंसाए हुए गिरिजाकुमार का पता लगाना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है।
मुख्तसर यह कि दो दिन की कोशिश में अर्जुनसिंह ने भुलावा दे हरनामसिंह को गिरफ्तार कर लिया, उसे रामसरन के मकान की एक अंधेरी कोठरी में ले जाकर कैद किया तथा खाने-पीने का भी प्रबंध कर दिया। हरनामसिंह को यह मालूम न हुआ कि उसे किसने कैद किया है और वह किस स्थान पर रखा गया है, तथा उसे खाने-पीने को कौन देता है। इस काम से छुट्टी पाकर हरनामसिंह की सूरत बना अर्जुनसिंह दारोगा के दरबार में जा घुसे और इस तरकीब से बहुत जल्द गिरिजाकुमार को पहचान लिया और उसका पता लगा लिया। गिरिजाकुमार ने जिस चालाकी से अपने को बचा लिया था उसे जानकर उसकी बुद्धिमानी पर अर्जुनसिंह को आश्चर्य हुआ मगर भंडा फूटने के डर से अपने को बहुत ही बचाए हुए थे और दारोगा तथा असली बिहारीसिंह से सिरदर्द का बहाना करके बातचीत कम करते थे।
जब बिहारीसिंह को साथ लेकर गिरिजाकुमार शहर के बाहर निकला तो अर्जुनसिंह ने भी सूरत बदलकर उसका पीछा किया। जब दोनों मुसाफिर एक मंजिल रास्ता तै कर चुके तो दूसरे दिन सफर में एक जगह मौका पाकर और कुछ देर के लिए गिरिजाकुमार को अकेला देखकर अर्जुनसिंह उसके पास चले गए और उन्होंने अपने को उस पर प्रकट कर दिया। जल्दी-जल्दी बातचीत करके इन्होंने उसे यह बता दिया कि उसके जमानिया चले जाने के बाद क्या हुआ था अब उसे क्या और किस-किस ढंग पर कार्रवाई करनी चाहिए और हमसे-तुमसे कहां-कहां किस-किस मौके पर या कैसी सूरत में मुलाकात होगी।
अर्जुनसिंह ने गिरिजाकुमार को जो कुछ समझाया उसका हाल आगे चलकर मालूम होगा, इस जगह केवल इतना ही कहना काफी है कि गिरिजाकुमार को समझा कर अर्जुनसिंह फिर जमानिया चले गए और रात के समय हरनामसिंह को कैदखाने से निकाला, शहर के बाहर बहुत दूर मैदान में ले जाकर छोड़ दिया और अपना रास्ता पकड़ा, जिससे होश में आकर वह अपने घर चला जाय और उसे मालूम न हो कि उसके साथ किसने क्या सलूक किया, बल्कि यह बात उसे स्वप्न की तरह याद रहे।
इसके बाद अर्जुनसिंह बहुत जल्द मेरे पास पहुंचे और जो कुछ हो चुका था उसे बयान किया। गिरिजाकुमार का हाल सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और मैंने बेगम के साथ जो कुछ सलूक किया था उसका हाल अर्जुनसिंह से बयान किया तथा जो कुछ चीजें उसकी मेरी हाथ लगी थीं दिखाकर यह भी कहा कि बेगम अभी तक मेरे यहां कैद है अस्तु सोचना चाहिए कि अब उसके साथ क्या कार्रवाई की जाय?
उन दिनों असल में मुझे तीन बातों की फिक्र लगी थी। एक तो यह कि यद्यपि भूतनाथ से और मुझसे रंज चला आता था और भूतनाथ ने अपना मरना मशहूर कर दिया था, मगर भूतनाथ की स्त्री मेरे यहां आई हुई थी और उसकी अवस्था पर मुझे दुःख होता था इसलिए मैं चाहता था कि किसी तरह भूतनाथ से मुलाकात हो और मैं उसे समझा-बुझाकर ठीक रास्ते पर लाऊं, दूसरे यह कि राजा गोपालसिंह के मरने का असली सबब दरियाफ्त करूं और तीसरे बलभद्रसिंह तथा लक्ष्मीदेवी को दरोगा की कैद से छुड़ाऊं, जिनका कुछ-कुछ हाल मुझे मालूम हो चुका था। बस इन्हीं कामों के लिए हम लोगों ने इतनी मेहनत अपने सिर उठाई थी, नहीं तो जमानिया के बारे में हम लोगों के लिए अब किसी तरह की दिलचस्पी नहीं रह गई थी।
बेगम की जो चीजें मेरे हाथ लगी थीं उनमें से कई कागज ओैर एक हीरे की अंगूठी ऐसी थी जिस पर ध्यान देने से हम लोगों को मालूम हो गया कि बेगम भी कोई साधारण औरत नहीं थी। उन कागजों में से कई चीठियां ऐसी थीं जो भूतनाथ के विषय में जैपाल ने बेगम को लिखी थीं और कई चीठियां ऐसी थीं जिनके पढ़ने से मालूम होता था कि मायारानी के बाप को इसी जैपाल ने मायारानी और दारोगा की इच्छानुसार मारकर जहन्नुम में पहुंचा दिया है और बलभद्रसिंह अभी तक जीता है, मगर साथ ही इसके उन चीठियों से यह भी जाहिर होता था कि असली लक्ष्मीदेवी निकलकर भाग गई, जिसका पता लगाने के लिए दारोगा बहुत उद्योग कर रहा है मगर पता नहीं लगता। वह जो हीरे की अंगूठी थी वह वास्तव में हेलासिंह (मायारानी के बाप) की थी जो उसके मरने के बाद जैपाल के हाथ लगी थी। उस अंगूठी के साथ एक कागज का पुर्जा बंधा हुआ था जिस पर बलभद्रसिंह को कैद में रखने और हेलासिंह को मार डालने की आज्ञा थी और उस पर मायारानी तथा दारोगा दोनों के हस्ताक्षर थे।
वे कागज, पुर्जे और अंगूठी इस समय महाराज के दरबार में मौजूद हैं जो भूतनाथ बेगम के यहां से उस समय ले आया था जब वह असली बलभद्रसिंह को छुड़ाने के लिए गया था। आप लोगों को इस बात पर आश्चर्य होगा कि जब ये सब चीजें बेगम के गिरफ्तार करने पर मेरे कब्जे में आ ही चुकी थीं तो पुनः बेगम के कब्जे में कैसे चली गईं इसके जवाब में केवल इतना ही कह देना काफी है कि जब मैं भी बेगम तथा दारोगा के कब्जे में चला गया और इन सब बातों का कर्ता-धर्ता भूतनाथ ही है जिसने उस समय बहुत बड़ा धोखा खाया और जिसके सबब से कुछ दिन बाद उसे भी तकलीफ उठानी पड़ी। मैंने यह भी सुना कि अपनी इस भूल से शर्मिन्दा होकर भूतनाथ ने बेगम और जैपाल को बड़ी तकलीफें दीं मगर उसका नतीजा उस समय कुछ भी न निकला, खैर अब मैं पुनः किस्से की तरफ झुकता हूं।''
दलीपसिंह की इस बात को सुनकर महाराज ने पुनः हीरे की अंगूठी और उन चीठियों को देखने की इच्छा प्रकट की जो भूतनाथ बेगम के यहां से उठा लाया था। तेजसिंह ने पहले महाराज को और फिर और लोगों को भी वे चीजें दिखाईं और उसके बाद फिर दलीपशाह ने इस तरह अपना हाल बयान करना शुरू किया -
''अर्जुनसिंह ज्यादे देर तक मेरे पास नहीं ठहरे, उस समय जो कुछ हम लोगों को करना चाहिए था बहुत जल्द निश्चय कर लिया गया और इसके बाद अर्जुनसिंह के साथ मैं घर से बाहर निकला और हम दोनों मित्र गिरिजाकुमार की तरफ रवाना हुए।
अब गिरिजाकुमार का हाल सुनिए कि अर्जुनसिंह से मिलने के बाद फिर क्या हुआ।
बिहारीसिंह और गिरिजाकुमार दोनों आदमी सफर करते हुए एक ऐसे स्थान में पहुंचे जहां से बेगम का मकान केवल पांच कोस की दूरी पर था। यहां पर एक छोटा गांव था जहां मुसाफिरों के लिए खाने-पीने की मामूली चीजें मिल सकती थीं और जिसमें हलवाई की एक छोटी-सी दुकान भी थी। गांव के बाहरी प्रांत में जमींदारों के देहाती ढंग के बगीचे थे और पास ही में पलास का छोटा-सा जंगल भी था। संध्या होने में घंटे-भर की देर थी और बिहारीसिंह चाहता था कि हम लोग बराबर चले जायं, दो-तीन घंटे रात जाते बेगम के मकान तक पहुंच ही जाएंगे, मगर गिरिजाकुमार को यह बात मंजूर न थी। उसने कहा कि मैं बहुत थक गया हूं और अब एक कोस भी आगे नहीं चल सकता, इसलिए यही अच्छा होगा कि आज की रात इसी गांव के बाहर किसी बगीचे अथवा जंगल में बिता दी जाय।
यद्यपि दोनों की राय दो तरह की थी, मगर बिहारीसिंह को लाचार हो गिरिजाकुमार की बात माननी पड़ी और यह निश्चय करना ही पड़ा कि आज की रात अमुक बागीचे में बिताई जायगी, अस्तु संध्या हो जाने पर दोनों आदमी गांव में हलवाई की दुकान पर गए और वहां पूरी-तरकारी बनवाकर पुनः गांव के बाहर चले आए।
चांदनी निकली हुई थी और चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। बिहारीसिंह और गिरिजाकुमार एक पेड़ के नीचे बैठे हुए धीरे-धीरे भोजन और निम्नलिखित बातें करते जाते थे -
गिरिजा - आज की भूख में ये पूरियां बड़ा ही मजा दे रही हैं।
बिहारी - यह भूख ही के कारण नहीं बल्कि बनी भी अच्छी हैं, इसके अतिरिक्त तुमने आज बूटी (भांग) भी गहरी पिला दी।
गिरिजा - अजी इसी बूटी की बदौलत तो सफर की हरारत मिटेगी।
बिहारी - मगर नशा तो तेज हो रहा है और अभी तक बढ़ता ही जाता है।
गिरिजा - तो हम लोगों को करना ही क्या है?
बिहारी - और कुछ नहीं तो अपने कपड़े-लत्ते और बटुए का खयाल तो है ही।
गिरिजा - (हंसकर) मजा तो तब हो जो इस समय भूतनाथ से सामना हो जाय।
बिहारी - हर्ज ही क्या है मैं इस समय भी लड़ने को तैयार हूं मगर वह बड़ा ही ताकतवर और काइयां ऐयार है।
गिरिजा - उसकी कदर तो राजा गोपालसिंह जानते थे।
बिहारी - मेरे खयाल से तो यह बात नहीं है।
गिरिजा - तुम्हें खबर नहीं है, अगर मौका मिला तो मैं इस बात को साबित कर दूंगा।
बिहारी - किस ढंग से साबित करोगे?
गिरिजा - खुद राजा गोपालसिंह की जुबान से।
बिहारी - (हंसकर) क्या भंग के नशे में पागल हो गए हो राजा गोपालसिंह अब कहां हैं?
गिरिजा - असत बात तो यह है कि मुझे राजा गोपालसिंह के मरने का विश्वास ही नहीं है।
बिहारी - (चौकन्ना होकर) सो क्या तुम्हारे पास उनके जीते रहने का क्या सबूत है।
गिरिजा - बहुत कुछ सबूत है मगर इस विषय पर मैं हुज्जत या बहस करना पसंद नहीं करता, जो कुछ असल बात है तुम स्वयम् जानते हो, अपने दिल से पूछ लो।
बिहारी - मैं तो यही जानता हूं कि राजा साहब मर गए।
गिरिजा - खैर यह तो मैं कह ही चुका हूं कि इस विषय पर बहस न करूंगा।
बिहारी - मगर बताओ तो सही कि तुमने क्या समझ के ऐसा कहा?
गिरिजा - मैं कुछ भी न बताऊंगा।
बिहारी - फिर हमारी-तुम्हारी दोस्ती ही क्या ठहरी जो एक जरा-सी बात छिपा रहे हो और पूछने पर भी नहीं बताते!
गिरिजा - (हंसकर) तुम्हें ऐसा कहने का हक नहीं है। जब तुम खुद दोस्ती का खयाल न करके ये बातें छिपा रहे हो तो मैं क्यों बताऊं।
बिहारी - (संकोच के साथ) मैं तो कुछ भी नहीं छिपाता।
गिरिजा - अच्छा मेरे सिर पर हाथ रखकर कह तो दो कि वास्तव में राजा साहब मर गए। मैं अभी साबित कर देता हूं कि तुम छिपाते हो या नहीं। अगर तुम सच कह दोगे तो मैं भी बता दूंगा कि इसमें कौन-सी नई बात पैदा हो गई और क्या रंग खिला चाहता है।
बिहारी - (कुछ सोचकर) पहले तुम बताओ फिर मैं बताऊंगा।
गिरिजा - ऐसा नहीं हो सकता।
इस समय बिहारीसिंह नशे में मस्त था, एक तो गिरिजाकुमार ने उसे भंग पिला दी थी, दूसरे उसने जो पूरियां खाईं उसमें भी एक प्रकार का बेढब नशा मिला हुआ था, क्योंकि वास्तव में उस हलवाई के यहां अर्जुनसिंह ने पहले ही से प्रबंध कर लिया था और ये बातें गिरिजाकुमार से कही-बदी थीं जैसा कि ऊपर के बयान से आपको मालूम हो चुका है, अस्तु गिरिजाकुमार ने पहले ही से एक दवा खा ली थी जिससे उन पूरियों का असर उस पर कुछ भी न हुआ, मगर बिहारीसिंह धीरे-धीरे अलमस्त हो गया और थोड़ी ही देर में बेहोश होने वाला था। वह ऐसा मस्त और खुश करने वाला नशा था जिसके बस में होकर बिहारीसिंह ने अपने दिल का भेद खोल दिया, मगर अफसोस भूतनाथ ने हमारी कुल मेहनत पर मिट्टी डाल दी और हम लोगों को बरबाद कर दिया। उस भेद का पता लग जाने पर भी हम लोग कुछ न कर सके जिसका सबब आगे चलकर आपको मालूम होगा। जब गिरिजाकुमार और बिहारीसिंह से बातें हो रही थीं उस समय हम दोनों मित्र भी वहां से थोड़ी ही दूर पर छिपे हुए खड़े थे और इंतजार कर रहे थे कि बिहारीसिंह बेहोश हो जाय और गिरिजाकुमार बुलाये तो हम दोनों भी वहां जा पहुंचें।
गिरिजाकुमार ने पुनः जोर देकर कहा, 'ऐसा नहीं हो सकता, पहले तुम्हीं को दिल का परदा खोल के और सच्चा-सच्चा हाल कह के दोस्ती का परिचय देना चाहिए और यह बात मुझसे छिपी नहीं रह सकती कि तुमने सच कहा या झूठ क्योंकि जो कुछ भेद है उसे मैं खूब जानता हूं।'
बिहारी - मुझे भी ऐसा ही मालूम होता है, खैर अब मैं कोई बात तुमसे न छिपाऊंगा, सब भेद साफ कह दूंगा। मगर इस समय केवल इतना ही कहूंगा कि कि वास्तव में राजा साहब मरे नहीं बल्कि अभी तक जीते हैं।
गिरिजा - इतना तो मैं खुद कह चुका हूं, इससे ज्यादा कुछ कहो तो मुझे विश्वास हो।
'गिरिजाकुमार की बात का बिहारीसिंह कुछ जवाब दिया ही चाहता था कि सामने से एक आदमी आता हुआ दिखाई पड़ा जो पास आते ही चांदनी के सबब से बहुत जल्द पहचान लिया गया कि भूतनाथ है। बिहारीसिंह ने, जो भूतनाथ को देखकर घबरा गया था गिरिजाकुमार से कहा, 'लो सम्हल जाओ, भूतनाथ आ पहुंचा!' दोनों आदमी सम्हलकर खड़े हो गए और भूतनाथ भी वहां पहुंच दिलेराना ढंग पर उन दोनों के सामने अकड़कर खड़ा हो गया और बोला, 'तुम दोनों को मैं खूब पहचानता हूं और यकीन है कि तुम लोगों ने भी मुझे पहचान लिया होगा कि यह भूतनाथ है।'
बिहारी - बेशक मैंने तुमको पहचान लिया मगर तुमको हम लोगों के बारे में धोखा हुआ है।
भूत - (हंसकर) मैं तो कभी धोखा खाता ही नहीं। मुझे खूब मालूम है कि तुम दोनों बिहारीसिंह और गिरिजाकुमार हो और साथ ही इसके मुझे यह मालूम है कि तुम लोग मुझे गिरफ्तार करने के लिए जमानिया से बाहर निकले हो! मुझे तुम अपने जैसा बेवकूफ न समझो। (गिरिजाकुमार की तरफ बताकर) जिसे तुम लोगों ने आज तक नहीं पहचाना और जिसे तुम अभी तक शिवशंकर समझे हुए हो उसे मैं खूब जानता हूं कि यह दलीपशाह का शागिर्द गिरिजाकुमार है। जरा सोचो तो सही कि तुम्हारे जैसा बेवकूफ आदमी मुझे क्या गिरफ्तार करेगा जिसे एक लौंडे (गिरिजाकुमार) ने धोखे में डालकर उल्लू बना दिया और जो इतने दिनों तक साथ रहने पर भी गिरिजाकुमार को पहचान न सका। खैर इसे जाने दो, पहले अपनी हिम्मत और बहादुरी ही का अंदाज कर लो, देखो मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं, मुझे गिरफ्तार करो तो सही!
भूतनाथ की बातें सुनकर बिहारीसिंह हैरान बल्कि बदहवास हो गया क्योंकि वह भूतनाथ के जीवट और उसकी ताकत को खूब जानता था और उसे विश्वास था कि इस तरह खुले मैदान भूतनाथ को गिरफ्तार करना दो-चार आदमियों का काम नहीं है। साथ ही वह यह सुनकर और भी घबरा गया कि हमारा साथी वास्तव में शिवशंकर या हमारा मददगार नहीं है बल्कि हमें धोखे में डालकर उल्लू बनाने और भेद ले लेने वाला एक चालाक ऐयार है। इससे मैंने जो गोपालसिंह के जीते रहने का भेद बता दिया सो अच्छा नहीं किया।
गिरिजा - मगर मुझसे आपको किसी तरह की दुश्मनी न होनी चाहिए क्योंकि मैंने आपका कुछ नुकसान नहीं किया है।
भूत - सिवाय इसके कि मुझे गिरफ्तार करने की फिक्र में थे।
गिरिजा - कदापि नहीं, यह तो एक तरकीब थी जिससे कि मैंने अपने को कैद होने से बचा लिया, यही सबब था कि इस समय मैंने इसे (बिहारीसिंह को) धोखा देकर बेहोशी की दवा दी और इसे बांधकर अपने घर ले जाने वाला था।
भूत - तुम्हारी बातें मान लेने के योग्य हैं मगर मैं इस बात को भी खूब जानता हूं कि तुम बड़े बातूनी हो और बातों के जाल में बड़े-बड़े चालाकों को फंसाकर उल्लू बना सकते हो।
इतना कहकर भूतनाथ ने अपनी जेब में से कपड़े का एक टुकड़ा निकालकर गिरिजाकुमार के मुंह पर रख दिया और फिर गिरिजाकुमार को दीन-दुनिया की कुछ भी खबर न रही। इसके बाद क्या हुआ सो उसे मालूम नहीं और न मैं ही जानता हूं, क्योंकि इस विषय में मैं वही बयान करूंगा जो गिरिजाकुमार ने मुझसे कहा था।
हम दोनों मित्र जो उस समय छिपे हुए थे बैठे-बैठे घबड़ा गये और जब लाचार होकर उस बाग में गये तो न गिरिजाकुमार को देखा न बिहारीसिंह को पाया। कुछ पता न लगा कि दोनों कहां गये, क्या हुए या उन पर कैसी बीती। बहुत खोजा, पता लगाया, कई दिन तक इस इलाके में घूमते रहे, मगर नतीजा कुछ न निकला। लाचार अफसोस करते हुए अपने घर की तरफ लौट आए।
अब बहुत विलंब हो गया, महाराज भी घबड़ा गये होंगे। (जीतसिंह की तरफ देखकर) यदि आज्ञा हो तो मैं अपनी राम कहानी यहां पर रोक दूं और जो कुछ बाकी है उसे कल के दरबार में बयान करूं।''
इतना कहकर दलीपशाह चुप हो गया और महाराज का इशारा पाकर जीतसिंह ने उसकी बात मंजूर कर ली। दरबार बर्खास्त हुआ और लोग अपने-अपने डेरे की तरफ रवाना हुए।