किशोरी, कामिनी, कमलिनी, लक्ष्मीदेवी, कमला और लाडिली सभी को कृष्णा जिन्न के आने का इन्तजार था। सभी के दिल में तरह-तरह की बातें पैदा हो रही थीं और सभों को इस बात की आशा लग रही थी कि कृष्णा जिन्न के आने पर इस बात का पता लग जायेगा कि कृष्णा जिन्न कौन है और राजा गोपालसिंह ने लक्ष्मीदेवी की सुध क्यों भुला दी।
आखिर दूसरे दिन कृष्णा जिन्न भी वहां आ पहुंचा। यद्यपि वह एक ऐसा आदमी था जिसकी किसी को भी खबर न थी, कोई भी नहीं कह सकता था कि वह कौन और कहां का रहने वाला है, न कोई उसकी जात बात सकता था और न कोई उसकी ताकत और सामर्थ्य के विषय में ही कुछ वादविवाद कर सकता था, तथापि उसकी हमदर्दी और कार्रवाई से सभी खुश थे और इसलिए कि राजा वीरेन्द्रसिंह उसे मानते थे सभी उसकी कदर करते थे। गुप्त स्थान में पहुंच वह सभों को चौकन्ना कर चुका था, इसलिए किशोरी और लक्ष्मीदेवी इत्यादि को उससे पर्दा करने की कोई आवश्यकता न थी और न ऐसा करने का उन्हें हुक्म था अस्तु कृष्णा जिन्न के आने की खबर पाकर सब खुश हुईं और बीच वाले दो मंजिले मकान में जिसमें सबके पहिले आकर उसने इन्द्रदेव से मुलाकात की थी, चलने के लिए तैयार हो गईं, मगर उसी समय भैरोसिंह ने बंगले पर आकर लक्ष्मीदेवी इत्यादि से कहा कि कृष्णा जिन्न स्वयम् वहीं चले आ रहे हैं।
थोड़ी देर बाद कृष्णा जिन्न बंगले पर आ पहुंचा। लक्ष्मीदेवी, कमलिनी, लाडिली, किशोरी, कामिनी और कमला ने आगे बढ़कर उसका इस्तकबाल (अगवानी) किया और इज्जत के साथ लाकर एक ऊंची गद्दी के ऊपर बैठाया। उसकी आज्ञानुसार इन्द्रदेव और भैरोसिंह गद्दी के नीचे दाहिनी तरफ बैठे और लक्ष्मीदेवी इत्यादि को सामने बैठने के लिए कृष्णा जिन्न ने आज्ञा दी और सभों ने खुशी से उसकी आज्ञा स्वीकार की। कृष्णा जिन्न ने सभों का कुशल-मंगल पूछा और फिर यों बातचीत होने लगी –
किशोरी - आपकी बदौलत हम लोगों की जान बच गई, मगर उन लौंडियों के मारे जाने का रंज है।
कृष्णा - यह सब ईश्वर की माया है, वह जो चाहता है, करता है। यद्यपि मनोरमा ने कई शैतानों को साथ लेकर तुम लोगों का पीछा किया था मगर उसके गिरफ्तार हो जाने ही से उन सभों का खौफ जाता रहा। अब जो मैं खयाल करके देखता हूं तो तुम लोगों का दुश्मन कोई भी दिखाई नहीं देता, क्योंकि जिन दुष्टों की बदौलत लोग दुश्मन हो रहे थे या यों कहो कि जो लोग उनके मुखिया थे गिरफ्तार हो गए, यहां तक कि उन लोगों को कैद से छुड़ाने वाला भी कोई न रहा।
कमलिनी - ठीक है, तो अब हम लोगों को छिपकर यहां रहने की क्या जरूरत है?
कृष्णा - (हंसकर) तुम्हें तो तब भी छिपकर रहने की जरूरत नहीं पड़ी जब चारों तरफ दुश्मनों का जोर बंधा हुआ था, आज की कौन कहें मगर हां, (हाथ का इशारा करके) इन बेचारियों को अब यहां रहने की कोई जरूरत नहीं और अब इसीलिए मैं यहां आया हूं कि तुम लोगों को जमानिया ले चलूं। वहां से फिर जिसको जिधर जाना होगा, चला जायगा।
लक्ष्मी - तो आप हम लोगों को चुनारगढ़ नहीं ले चलते या वहां जाने की आज्ञा क्यों नहीं देते?
कृष्णा - नहीं-नहीं, तुम लोगों को पहिले जमानिया चलना चाहिए। यह केवल मेरी आज्ञा ही नहीं बल्कि मैं समझता हूं कि तुम लोगों की भी यही इच्छा होगी। (लक्ष्मीदेवी से) तुम तो जमानिया की रानी ही ठहरीं, तुम्हारी रिआया खुशी मनाने के लिए उस दिन का इन्तजार कर रही है जिस दिन तुम्हारी सवारी शहर के अन्दर पहुंचेगी, और कमलिनी तथा लाडिली तुम्हारी बहिन ही ठहरीं...।
लक्ष्मीदेवी - (बात काटकर) बस-बस, मैं बाज आई जमानिया की रानी बनने से! वहां जाने की मुझे कोई जरूरत नहीं, और मेरी दोनों बहिनें भी जहां मैं रहूंगी वहीं मेरे साथ रहेंगी।
कृष्णा - क्यों-क्यों, ऐसा क्यों?
लक्ष्मी - मैं इसलिए विशेष बात कहना नहीं चाहती कि आपने यद्यपि हम लोगों की बड़ी सहायता की है और हम लोग जन्म-भर आपकी ताबेदारी करके भी उसका बदला नहीं चुका सकते तथापि आपका परिचय न पाने के कारण...।
कृष्णा - ठीक है, ठीक है, अपरिचित पुरुष से दिल खोलकर बातें करना कुलवंती स्त्रियों का धर्म नहीं है, मगर मैं यद्यपि इस समय अपना परिचय नहीं दे सकता तथापि यह कहे देता हूं कि नाते में राजा गोपालसिंह का छोटा भाई हूं इसलिए तुम्हें भावज मानकर बहुत कुछ कहने और सुनने का हक रखता हूं। तुम निश्चय रक्खो कि मेरे विषय में राजा गोपालसिंह तुम्हें कभी उलाहना न देंगे चाहे तुम मुझसे किसी तरह पर बातचीत क्यों न करो! (कुछ सोचकर) मगर मैं समझ रहा हूं कि तुम जमानिया जाने से क्यों इनकार करती हो। शायद तुम्हें इस बात का रंज है कि यकायक तुम्हारे जीते रहने की खबर पाकर भी गोपालसिंह तुम्हें देखने के लिए न आए...।
कमलिनी - देखने के लिए आना तो दूर रहा अपने हाथ से एक पुर्जा लिखकर यह भी न पूछा कि तेरा मिजाज कैसा है?
लाडिली - आने - जाने वाले आदमी तक से भी हाल न पूछा!
लक्ष्मी - (धीरे से) एक कुत्ते की भी इतनी बेकदरी नहीं की जाती!
कमलिनी - ऐसी हालत में रंज हुआ ही चाहिए। जब आप यह कहते हैं कि हम राजा गोपालसिंह के छोटे भाई हैं, और मैं समझती हूं कि आप झूठ भी नहीं कहते होंगे, तभी हम लोगों को इतना कहने का हौसला भी होता है। आप ही कहिए कि राजा साहब को क्या यही उचित था?
कृष्णा - मगर तुम इस बात का क्या सबूत रखती हो कि राजा साहब ने इनकी बेकदरी की औरतों की भी विचित्र बुद्धि होती है! असल बात तो जानतीं नहीं और उलाहना देने पर तैयार हो जाती हैं!
कमलिनी - सबूत अब इससे बढ़कर क्या होगा जो मैं कह चुकी हूं अगर एक दिन के लिए चुनारगढ़ आ जाते तो क्या पैर की मेंहदी छूट जाती!
कृष्णा - अपने बड़े लोगों के सामने अपनी स्त्री को देखने के लिए आना क्या उचित होता! मगर अफसोस, तुम लोगों को तो इस बात की खबर ही नहीं कि राजा गोपालसिंह महाराजा वीरेन्द्रसिंह के भतीजे होते हैं और इसी सबब से लक्ष्मीदेवी को अपने घर में आ गई जानकर उन्होंने किसी तरह की जाहिरदारी न की।
सब - (ताज्जुब से) क्या महाराज उनके चाचा होते हैं?
कृष्णा - हां, यह बात पहिले केवल हमीं दोनों आदमियों को मालूम थी और तिलिस्म तोड़ते समय दोनों कुमारों को मालूम हुई या आज मेरी जुबानी तुम लोगों ने सुनी! खुद महाराज वीरेन्द्रसिंह को भी अभी तक यह मालूम नहीं है।
लक्ष्मी - अच्छा-अच्छा, अब नातेदारी इतनी छिपी हुई थी तो...।
कमलिनी - (लक्ष्मीदेवी को रोककर) बहिन, तुम रहने दो मैं इनकी बातों का जवाब दे लूंगी! (कृष्णा जिन्न से) तो क्या गुप्त रीति से वह एक चिट्ठी भी नहीं भेज सकते थे?
कृष्णा - चिट्ठी भेजना तो दूर रहा, गुप्त रीति से खुद कई दफे आकर के इनको देख भी गये हैं।
लाडिली - अगर ऐसा ही होता तो रंज काहे का था!
कमलिनी - इस बात को तो वह कदापि साबित नहीं कर सकते!
कृष्णा - यह बात बहुत सहज में साबित हो जायेगी और तुम लोग सहज ही में मान भी जाओगी मगर जब उनका और तुम्हारा सामना होगा तब।
कमलिनी - तो आपकी राय है कि बिना सन्तोष हुए और बिना बुलाये बेइज्जती के साथ हमारी बहिन जमानिया चली जाये?
कृष्णा - बिना बुलाये कैसे, आखिर मैं यहां किसलिए आया हूं। (जेब से एक चिट्ठी निकालकर और लक्ष्मीदेवी के हाथ में देकर) देखो उनके हाथ की लिखी चिट्ठी पढ़ो।
चिट्ठी में यह लिखा हुआ था –
“जिरंजीव कृष्णा योग्य लिखी गोपालसिंह का आशीर्वाद - आज तीन दिन हुए एक पत्र तुम्हें भेज चुका हूं। तुम छोटे भाई हो इसलिए विशेष लिखना उचित नहीं समझता, केवल इतना लिखता हूं कि चिट्ठी देखते ही चले आओ और अपनी भावज को तथा उनकी दोनों बहिनों को जहां तक जल्दी हो सके, यहां ले आओ।”
इसी चिट्ठी को बारी-बारी से सभों ने पढ़ा।
कमलिनी - मगर इस चिट्ठी में कोई ऐसी बात नहीं लिखी है जिससे लक्ष्मीदेवी के साथ हमदर्दी पाई जाती हो! जब हाथ दुखाने बैठे ही थे तो एक चिट्ठी इनके नाम की भी लिख डाली होती! इन्हें नहीं तो मुझी को कुछ लिख भेजा होता, मेरा-उनका सामना हुए भी तो बहुत दिन नहीं हुए। मालूम होता है कि थोड़े ही दिनों में वे बेमुरौवत और कृतघ्न भी हो गए।
कृष्णा - कृतघ्न का शब्द तुमने बहुत ठीक कहा! मालूम होता है कि तुम उन पर अपनी कार्रवाइयों का अहसान डाला चाहती हो?
कमलिनी - (क्रोध से) क्यों नहीं क्या मैंने उनके लिए थोड़ी मेहनत की है और इसका क्या यही बदला था?
कृष्णा - जब अहसान और उसके बदले का खयाल आ गया तो मुहब्बत कैसी और प्रेम कैसा मुहब्बत और प्रेम में अहसान और बदला चुकाने का तो खयाल ही नहीं होना चाहिए। यह तो रोजगार और लेने-देने का सौदा हो गया! और अगर तुम इसी बदला चुकाने वाली कार्रवाई को प्रेम भाव समझती हो तो घबराती क्यों हो समझ लो कि दुकानदार नादेहन्द है मगर बदला देने योग्य है, कभी-न-कभी बदला चुका ही जायेगा। हाय, हाय, औरतें भी कितना जल्द अहसान जताने लगती हैं! क्या तुमने कभी यह भी सोचा कि तुम पर किसने अहसान किया और तुम उसका बदला किस तरह चुका सकती हो अगर तुम्हारा ऐसा ही मिजाज है और बदला चुकाये जाने की तुम ऐसी ही भूखी हो तो बस हो चुका। तुम्हारे हाथों से किसी गरीब, असमर्थ या दीन-दुखिया का भला कैसे हो सकता है क्योंकि उसे तो तुम बदला चुकाने लायक समझोगी ही नहीं!
कम - (कुछ शर्माकर) क्या राजा गोपालसिंह असमर्थ और दीन हैं?
कृष्णा - नहीं हैं। तो तुमने राजा समझ के उन पर अहसान किया था अगर ऐसा है तो मैं तुम्हें उनसे बहुत-सा रुपया दिलवा सकता हूं।
कमलिनी - जी, मैं रुपये की भूखी नहीं हूं।
कृष्णा - बहुत ठीक, तब तुम प्रेम की भूखी होगी!
कमलिनी - बेशक!
कृष्णा - अच्छा तो जो आदमी प्रेम का भूखा है उसे दीन, असमर्थ और समर्थ में अहसान करते समय भेद क्यों दिखने लगा और इसके देखने की जरूरत ही क्या है ऐसी अवस्था में यही जान पड़ता है कि तुम्हारे हाथों से गरीब और दुखियों को लाभ नहीं पहुंच सकता क्योंकि वे न तो समर्थ हैं और न तुम उनसे उस अहसान के बदले में प्रेम ही पाकर खुश हो सकती हो।
कमलिनी - आपके इस कहने से मेरी बात नहीं कटती। प्रेमभाव का बर्ताव करके तो अमीर और गरीब आदमी भी अहसान का बदला उतार सकता है! और कुछ नहीं तो वह कम-से-कम अपने ऊपर अहसान करने वाले का कुशल-मंगल ही चाहेगा। इसके अतिरिक्त अहसान और अहसान का जस माने बिना दोस्ती भी तो नहीं हो सकती। दोस्ती की तो बुनियाद ही नेकी है! क्या आप उसके साथ दोस्ती कर सकते हैं जो आपके साथ बदी करे?
कृष्णा - अगर तुम केवल उपकार मान लेने ही से खुश हो सकती हो तो चलकर राजा साहब से पूछो कि वह तुम्हारा उपकार मानते हैं या नहीं, या उनको कहो कि उपकार मानते हो तो इसकी मुनादी करवा दें जैसा कि लक्ष्मीदेवी ने इन्द्रदेव का उपकार मान के किया था।
लक्ष्मी - (शर्माकर) मैं भला उनके अहसान का बदला क्योंकर अदा कर सकती हूं और मुनादी कराने से होता ही क्या है?
कृष्णा - शायद राजा गोपालसिंह भी यही सोचकर चुप बैठ रहे हों और दिल में तुम्हारी तारीफ करते हों।
लक्ष्मी - (कमलिनी से) तुम व्यर्थ की बातें कर रही हो, इस वाद-विवाद से क्या फायदा होगा। मतलब तो इतना ही है कि मैं उस घर में नहीं जाना चाहती जहां अपनी इज्जत नहीं, पूछ नहीं, चाह नहीं और जहां एक दिन भी रही नहीं।
कृष्णा - अच्छा इन सब बातों को जाने दो, मैं एक दूसरी बात कहता हूं। उसका जवाब दो।
कमलिनी - कहिए।
कृष्णा - जरा विचार करके देखो कि तुम उनको तो बेमुरौवत कहती हो, इसका खयाल भी नहीं करतीं कि तुम लोग उनसे कहीं बढ़कर बेमुरौवत हो! राजा गोपालसिंह एक चिट्ठी अपने हाथ से लिखकर तुम्हारे पास भेज देते तो तुम्हें सन्तोष हो जाता मगर चिट्ठी के बदले में मुझे भेजना तुम लोगों को पसन्द न आया! अच्छा, अहसान जताने का रास्ता तो तुमने खोल ही दिया है, खुद गोपालसिंह पर अहसान बता चुकी हो, तो अगर मैं भी यह कहूं कि मैंने तुम लोगों पर अहसान किया है तो क्या बुराई है?
कमलिनी - कोई बुराई नहीं है और इसमें कोई सन्देह भी नहीं है कि आपने हम लोगों पर बहुत बड़ा अहसान किया है और बड़े वक्त पर ऐसी मदद की है कि कोई दूसरा कर ही नहीं सकता था। हम लोगों का बाल-बाल आपके अहसान से बंधा हुआ है।
कृष्णा - तो अगर मैं ही राजा गोपालसिंह बन जाऊं तो!
कृष्णा जिन्न की इस आखिरी बात ने सभी को चौंका दिया। लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली कृष्णा जिन्न का मुंह देखने लगीं। कृष्णा जिन्न इस समय भी ठीक उसी सूरत में था जिस सूरत में अबके पहिले कई दफे हमारे पाठक उसे देख चुके हैं।
कृष्णा जिन्न ने अपने चेहरे पर से एक झिल्ली-सी उतारकर अलग रख दी और उसी समय कमलिनी ने चिल्लाकर कहा, “आहा, ये तो स्वयं राजा गोपालसिंह हैं!” और तब यह कहकर उनके पैरों पर गिर पड़ी, “आपने तो हम लोगों को अच्छा धोखा दिया!”