कितना महफ़ूज हूँ मैं इस क़ब्र में,
ना कोई दर्द, ना कोई हमदर्द ।
ना सपनों का शोर, ना अपनों की ख़ामोशी
ना जित का जश्न,ना हार का मातम ।
ना मतबल रिश्ते, ना झूठे फ़रिश्ते ।
ना कुछ खोने का डर, ना कुछ पाने की आस ।
ना मीठासा झूठ, ना कड़वा सच ।
ना किसी चेहरें पे हँसी, ना किसी चेहरे पे उदासी ।
अब ना रूठता है कोई, ना मनाता है कोई ।
अब ना टूटेगा दिल, ना इसे तोड़ेगा कोई ।
हो सुबह की रोशनी या हो रात का अँधेरा,
ना खटखटायेगा कोई अब दरवाजा मेरा ।
मंजिल को पाने के लिए चल पडा था मैं सब्र से,
राह आख़िर ख़त्म हुईं आकर पहुँचा इस क़ब्र में ।
कितना वक्त मिल रहा है अब खुद को समझने के लिए
सुकून मिला अंदर ,परेशान था जिसे पाने के लिए ।
पत्थर दिल इंसानों के शहर में, जीने से लग रहा था डर,
क्यों भूलता है इंसान ख़ाली हात आखिर आना है यही पर ।