एक अजनबी के महफ़िल में
आज उनसें मुलाक़ात हुईं थी ।
नजरें तो मेरे ओर थी उनकी
खुद कैद किसी और के बाहों मे थी ।
हम मुस्कुराकर आगे चल दिये
गले मिलने की ना आस थी ।
फिर भी उन ग़हरी निग़ाहों मे
हमसे मिलने की प्यास थी ।
कहना तो बहुत कुछ था
उनकी प्यासी निगाहों को ।
करे तो क्या करे दोनों भी
अलग किया जो राहों को ।
चिराग ख़ुद ही बुझाये बैठे
और रोशनी ढूँढने निकले हम ।
जाने कैसी अनबन थी दोनों में
फासलों को मिटाना सके हम ।
एक पल के लिए दिल को लगा , अच्छा होता !
अगर फिर ये मुलाक़ात ना होतीं ।
मेरी आँखें भी नम ना होती
ना वो सारी रात तकिये पर सर रखकर रोती ।