अगले दशक की शुरुआत में सिर्फ एक अदाकार के नाम था , और वह थे राजेश खन्ना | पर बीच दशक में अमिताभ बच्चन के आगमन ने सब स्थिति बदल दी | किशोर कुमार राजेश खन्ना की आवाज़ बन गयी | १९७३ में बॉबी आई , एक युवकों की प्रेम कहानी जिसमें बिकिनी में 17 साल की डिंपल ने फिल्म को बड़ा लोकप्रिय बना दिया | वह फिल्म सालों तक कई जगहों पर प्रदर्शित हुई |अगले साल श्याम बेनेगल ने कला सिनेमा जगत में अपनी जगह बनाई | नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, शबाना आजमी, सचिन, अमोल पालेकर जैसे अदाकारों को उन्होनें ही फिल्म जगत में प्रवेश दिलवाया |
भारतीय फिल्मों के इतिहास में किसी भी साल को भूला जा सकता है लेकिन १९७५ को नहीं | शोले हिंदी फिल्मों की बेहतरीन फिल्म साबित हुई | उसका हर संवाद याद रखने लायक है | सभी अदाकारों द्वारा बेहतरीन प्रदर्शन , बेहतरीन संगीत और उसके संवादों ने शोले को रमेश सिप्पी की शायद सबसे बहुचर्चित फिल्म बना दिया |
१९७६ में इंदिरा गाँधी के राज्य में इमरजेंसी का आगमन हुआ | फिल्में बननी कम हो गयी लेकिन १९७७ में नयी सरकार के बनने से पहली बार बेहतरीन कहानी में बनी एक कम लागत वाली फिल्म ने पैसे कमाए | सत्यजित रे की शतरंज के खिलाडी प्रेमचंद के उपन्यास पर आधारित व्यंग्य फिल्म थी | १९७८ वह साल था जिसमें पहली बार अंग प्रदर्शन की शुरुआत हुई | और वह फिल्म काफी चर्चित भी हुई | ‘सत्यम शिवम् सुन्दरम’ में जीनत अमन ने इस किरदार को निभाया |
इस साल आई फिल्म काला पत्थर में न सिर्फ बेहतरीन अदाकार मोजूद थे अपितु उसमें कई मुश्किल मुद्दों पर आवाज़ भी उठाई गयी | ये यश चोपड़ा की अमिताभ बच्चन के साथ ४ फिल्म थी |१९७९ में आई फिल्म आक्रोश जिसमें नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी ,स्मिता पाटिल और अमरीश पुरी जैसे महान अदाकार थे और इस फिल्म से गोविन्द निहलानी ने अपने को एक बेहतेरीन निर्देशक के रूप में स्थापित किया | फिल्म ज्यादा चली नहीं लेकिन सबने अदाकारी की काफी तारीफ की
१९८२ में रिचर्ड एटनबरो के रूप में गांधीजी का एक सजीव चित्रण पेश किया गया | इस फिल्म को 6 अकादमी पुरुस्कार मिले और दुनिया भर में सबसे ज्यादा एक्स्ट्रास(३०००००) नियुक्त करने के लिए इसे गिनीज़ बुक ऑफ़ रिकार्ड्स में प्रवेश मिला | १९८३ में भारत ने विश्व कप जीता और कोई भी निवेशक ज्यादा पैसे नहीं कमा पाया क्यूंकि उस साल कपिल और उसका दल की मांग ज्यादा थी |
८० के दशक में अमिताभ का बोलबाला रहा उन्हें कोई नहीं हरा सका , राजेश खन्ना भी नहीं |१९८७ में विनोद खन्ना ने इन्साफ और सत्यमेव जयते जैसी फिल्मों से दुबारा फिल्म जगत में धूम मचाई |पर कुछ लोगों के लिए ८० दशक था टी वी के उभरने का समय था | रामायण और महाभारत १९८७ में शुरू हुए और १९८८-८९ में समाप्त हुए | देश भर में ९० % टी वी पर ये दोनों कार्यक्रम देखे जाने लगे | नितीश भरद्वाज कृष्ण भगवन का रूप बन गए | एक के बाद एक आये हम लोग , वागले की दुनिया , बुनियाद , यह जो है ज़िन्दगी , मिटटी के रंग , नीम का पेड़ आदि | इन की कहानी और अदाकारी भारतीय संस्कृति और सामाजिक वेशभूषा के मुताबिक होती थी | इसी साल विदेशियों का फिल्म जगत में प्रवेश हुआ , और इंग्लैंड की मीरा नाएर ने ‘सलाम बॉम्बे’ बनाई जसी कैनस में गोल्डन कैमरा पुरस्कार मिला |
१९८९ तक मध्य वर्ग एक्शन हीरो की फिल्मों में डूबा था लेकिन मध्यम वर्गीय टेलीविज़न सीरिअलस में बदलाव आ रहा था | मध्यम वर्ग अब मौकापरस्त हो गया था और जो चीज़ें वर्जित थीं उनके बारे में बात करने लगा था | विवाहेतर संबंध और यौन संबंधों के बारे में अब खुल के बात होने लगी |डिंपल कपाडिया और शेखर कपूर की दृष्टि में विवाह्तर संबंधों को सच्चाई से पेश किया गया |