युरोप राजनीतिक क्षितिज पर नेपोलियन का प्रादुर्भाव एक घूमकेतु की तरह हुआ और अपनी प्रक्रिया तथा परिश्रम के बल पर वह शीघ्र ही यूरोप का भाग्यविधाता बन बैठा। उसमें अद्भुत सैनिक तथा प्रशासनिक क्षमता से सभी कोचकित कर दिया। परंतु उसकी शक्ति का स्तंभ जैसे बालु की भीत पर खड़ा था। जो कुछ ही वर्षों में ध्वस्त हो गया वस्तुत: नेपोलियन का उत्थान और पतन चकाचौंध करने वाली उल्का के समान हुआ। वह युरोप के आकाश में सैनिक सफलता के बल पर चमकता रहा परन्तु पराजय के साथ ही उसके भाग्य का सितारा डुब गया। जिस साम्राज्य की कठिन परिश्रम के पश्चात कायम किया गया था वह देखते ही देखते समाप्त हो गया उसके पतन के अनेक कारण थे जो स प्रकार है।

असीम महात्वाकांक्षा-

नेपोलियन असीम महात्वकांक्षी था। असीम महात्वकांक्षी किसी व्यक्ति के पतन का मुख्य कारण साबित होती है। नेपोलियन के साथ भी यही बात थी। युद्ध में जैसे- जैसे- उसकी विजय होती गई वैसे- वैसे उसकी महात्वकांक्षा बढ़ाता गया और वह विश्व राज्य की स्थापना का स्वपन देखने लगा। यदि थोड़े से ही वह संतुष्ट हो जाता और जीते हुए सम्राज्य की देखभाल करता और अपना समय उसमें लगाता तो उसे पतन का दुर्दशा नहीं देखना पड़ता।

चारित्रिक दुर्बलता-

नेपोलियन में साहस संयम और धैर्य कुट- कुट कर भरा था परन्तु उसकी दृष्टि में घृणा उसका प्रतिशोध उसका कर्तव्य तथा क्षमादान कलंक था। उसके चरित्र की बड़ी दुर्बलता यह थी कि वह संधि को सम्मानित समझौता नहीं मानता था। किसी भी देश की मैत्री उसके लिए राजनीतिक आवश्यकता से अधिक नहीं थी। धीरे- धीरे वह जिद्दी बनता गया उसे यह विश्वास था कि उसका प्रत्येक कदम ठीक है। वह कभी भूल नहीं कर सकता वह दूसरों की सलाह की उपेक्षा करने लगा। फलत: उसके सच्चे मित्र भी उससे दूर होते चले गए।

नेपोलियन की व्यवस्था का सैन्यवाद पर आधारित होना-

उसकी राजनीतिक प्रणाली सैन्यवाद पर आधारित थी जो इसके पतन का प्रधान कारण साबित हुआ। वह सभी मामलों में सेना पर निर्भर रहता था फलत: वह हमेशा युद्ध में ही उलझा रहा। वह यह भूल गया कि सैनिकवाद सिर्फ संकट के समय ही लाभकारी हो सकता है। जब तक फ्रांस विपत्तियों के बादल छाए रहे वहाँ की जनता ने उसका साथ दिया विपत्तियों के हटते ही जनता ने उसका साथ देना छोड़ दिया। फ्रांसीसी जनता की सहानुभुति और प्रेम का खोना उसके लिए घातक सिद्ध हुआ। उसके अतिरिक्त पराजित राष्ट्र उसके शत्रु बनते गए जो अवसर मिलते ही उसके खिलाफ उठ खड़े हुए। इतिहासकार काब्बन ने ठीक ही लिखा है। ‘नेपोलियन का साम्राज्य युद्ध में पनपा था युद्ध ही उसके अस्तित्व का आधार था और युद्ध में ही उसका अंत हुआ।’

दोषपुर्ण सैनिक व्यवस्था-

प्रारंभ में फ्रांस की सेना देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत थी। उसके समक्ष एक आदर्श का और वह एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए युद्ध करता था। परन्तु ज्यों- ज्यों उसके साम्राज्य का विस्तार हुआ सेना का राष्ट्रीय रूप विधितत होता गया। पहले उसकी सेना में फ्रांसीसी सैनिक ते परन्तु बाद में उसमें जर्मन इटालियन पुर्तेगाली और डच सैनिक शामिल कर लिया गया। फलत: उसकी सेना अनेक राज्यों की सेना बन गई। उनके सामने कोई आदर्श और उद्देश्य नहीं था। अत: उसकी सैनिक शक्ति कमजोर पड़ती गई और यह उसके पतन का महत्वपूर्ण कारण साबित हुआ।

नौसेना की दुर्बलता-

नेपोलियन ने स्थल सेना का संगठन ठीक से किया था किन्तु उसके पास शक्तिशालि नौसेना का अभाव था, जिसके कारण उसे इंगलैंड से पराजित होना पड़ा। अगर उसके पास शक्तिशाली नौसेना होती तो उसे इंगलैंड से पराजित नहीं होना पड़ता।

विजित प्रदेशों में देशभक्ति का अभाव-

उसने जिन प्रदेशों पर विजय प्राप्त की वहीँ की जनता के ह्रदय में उसके प्रति सदभावना और प्रेम नहीं था। वे नेपोलियन की शासन से घृणा करते थे। जब उसकी शक्ति कमजोर पड़ने लगी तो उसके अधीनस्थ राज्य अपनी स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न करने लगे। यूरोपीय राष्ट्र ने उसके खिलाफ संघ के लिए चतुर्थ गुट का निर्माण किया और इसी के चलते वाटरलु के युद्ध में उसे पराजित होना पड़ा।

पोप से शत्रुता-

महाद्वीपीय व्यवस्था के कारण उसने पोप को अपना शत्रु बना लिया। जब पोप ने उसी महाद्वीपीय व्यवस्था को मानने से इंकार कर दिया तो उसने अप्रैल 1808 में रोम पर अधिकार कर लिया। और 1809 ई. में पोप को बंदी बना लिया फलत: कैथोलिकों को यह विश्वास हो गया कि नेपोलियन ने केवल राज्यों की स्वतंत्रता नष्ट करने वाला दानव है। वरना उनका धर्म नष्ट करने वाला भी है।

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