इसी बीच में वसन्तसेना संस्थानक की गाड़ी में फूलबाग पहुंच गयी। संस्थानक नगरपाल के साथ प्रतीक्षा कर रहा था। गाड़ी के देर से पहुंचने के कारण संस्थानक गुस्से से लाल पीला हो रहा था।
वह लपक कर गाड़ी के पास पहुंचा और गाड़ीवान को पीटने लगा और साथ में चिल्लाता रहा, “तुमने इतनी देर क्यों की। जल्दी बताओ नहीं तो तुम्हें पीटते पीटते मार डालूंगा।”
"मेरे स्वामी," गाड़ीवान बोला, "पहले मेरी बात तो सुन लीजिए। एक गाड़ी के रेत में फंस जाने के कारण एक संकरी गली में रास्ता रुका हुआ था। दूसरी गाड़ी वहाँ से तब तक नहीं जा सकती थी जब तक फंसी हुई गाड़ी का पहिया निकल न जाय। इस कारण मुझे देर हो गई। लेकिन, स्वामी देखिए तो सही में किसको लाया हूँ। देवी वसन्तसेना भीतर हैं।"
“वसन्तसेना," संस्थानक चिल्लाया। श्रीमान नगरपाल, वसन्तसेना मेरे पास आई है। अब वसन्तसेना ने अनुभव किया कि वह गलत गाड़ी में बैठ गई थी और वह मुसीबत में है।
नगरपाल लपक कर उसके पास पहुंचे और बोले, “तुम्हें यहाँ इस तरह नहीं आना चाहिए था। यदि संस्थानक के बारे में तुमने अपना विचार बदल लिया था और उससे मिलना चाहती थीं तो उसका प्रस्ताव तुम्हें उसी समय स्वीकार कर लेना चाहिए था जब उसने तुम्हारे पास दूत भेजे थे। वसन्तसेना उसे अपनी गलती के बारे में बताना चाहती थी।
लेकिन संस्थानक लपक कर उसके पास पहुंचा और हाथ पकड़कर उसे नीचे उतार लिया और बोला,“ओह, वसन्तसेना आखिर तुम मेरे पास आ ही गई। तुम कितनी अच्छी हो।"
वसन्तसेना ने अपने हाथ खींच लिए, “कृपा कर के मुझे अकेला छोड़ दो । नगरपाल महोदय मैं यहाँ संस्थानक के पास नहीं आई हूँ। गलती से मैं दूसरी गाड़ी में बैठ गई। मैंने सोचा यह चारुदत्त की गाड़ी है। कृपा कर के मुझे जाने दीजिए।"
संस्थानक गुस्से से बौखला उठा। उसने अपने गाड़ीवान को कोड़े मारे और चिल्लाया, “तुम इस मूर्ख स्त्री को कहाँ से ले आये हो?"
"मैंने गाड़ी चारुदत्त के घर के सामने खड़ी की थी,” गाड़ीवान ने कहा, “क्योंकि रास्ते में एक गाड़ी के फंस जाने से मैं आगे नहीं जा सकता था। यह वहीं से चढ़ी हैं।"
“तो तुम चारुदत्त के घर में थीं?" उसने मुड़कर वसन्तसेना से पूछा। उसका चेहरा द्वेष से विकृत हो रहा था।
“कल रात मैं चारुदत्त के घर पर ही रही थी|" वसन्तसेना ने उत्तर दिया।
संस्थानक अपना सन्तुलन खो बैठा। वह उस पर झपटा और उसके बाल पकड़ लिये। वह उसे पीटना चाहता था पर तभी नगरपाल महोदय दौड़कर आये और उसे दूर खींच ले गये। उन्होंने अपनी तलवार उठाई और बोले, “आप मेरे हाकिम हैं लेकिन आप एक स्त्री पर हाथ नहीं उठा सकते।"
संस्थानक ने अपनी गलती अनुभव की। उसने अपना सन्तुलन खो बैठने पर खेद प्रकट किया। “नगरपाल महोदय हम तो जा सकते हैं, किन्तु वसन्तसेना का क्या होगा? उसे किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा देना चाहिए।"
नगरपाल खुश थे कि संस्थानक को अक्ल आ गई है| वह बोले, “हम दोनों उसे उसके घर पहुंचा देंगे। यह सचमुच ही बहुत अच्छा विचार है|" संस्थानक बोला, “लेकिन गाड़ी में दो से अधिक आदमी नहीं बैठ सकते। सो अच्छा यही होगा कि आप यहीं ठहरें और मैं वसन्तसेना को उसके घर पहुंचा आता हूँ।”
“नगरपाल महोदय,” वसन्तसेना बोली, “आप इसे मुझे घर छोड़ आने की अनुमति मत दीजिए। मुझे इस पर बिल्कुल विश्वास नहीं है।"
"मैं तुमसे तुम्हारी इच्छा के विपरीत कोई बात नहीं करूंगा। मेरा विश्वास करो मैं तुम्हें बिल्कुल सुरक्षित घर पहुंचा दूंगा। मुझे ऐसा करने की अनुमति दीजिए|” संस्थानक बोला।
नगरपाल ने सोचा कि संस्थानक अब सुधर गया है। अब इसकी नीयत पर शक करने की जरूरत नहीं, वह किसी भद्र महिला से बुरा व्यवहार नहीं करेगा।
वह वसन्तसेना से बोले, “देवी, कुमार संस्थानक इस समय इतने भले लग रहे हैं कि उनसे डरने की ज़रा भी आवश्यकता नहीं। इनके साथ चली जाओ। ईश्वर सब खतरों से तुम्हारी रक्षा करेंगे।”
वसन्तसेना अब भी संस्थानक के साथ नहीं जाना चाहती थी। लेकिन नगरपाल का कहना मानने के सिवाय उसके पास कोई रास्ता नहीं था। सो वह अब उस आदमी के साथ घर की ओर चल पड़ी जिससे वह सबसे अधिक घृणा करती थी।